देश में देववाणी संस्कृत के प्रति क्यों कम हो रहा लगाव ?

अंग्रेजों और मुग़लों के अलावा हम भी इसके लिए जिम्मेदार हैं!

संस्कृत भाषा

राष्ट्रीय संस्कृत दिवस प्रति वर्ष रक्षाबंधन के समय श्रावण पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस पूरे सप्ताह को राष्ट्रीय संस्कृत सप्ताह कहा जाता है। इस साल 7 अगस्त को संस्कृत दिवस और 4 से 10 अगस्त तक संस्कृत भाषा सप्ताह मनाया गया। इसका उद्देश्य संस्कृत के उपयोग को बढ़ावा देना और लोकप्रिय बनाना है।

इस शास्त्रीय भाषा के बारे में ऐसा कहा जाता है कि यह उच्च माध्यमिक, स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर एक लोकप्रिय विषय बना हुआ है। पाठ्यक्रम के बाहर हिंदू धार्मिक समारोह (कर्म कांड) जैसे पूजा, विवाह और श्राद्ध आदि कार्यों में इसे प्रयोग में लाया जाता है लेकिन संस्कृत में पत्रकारिता, आधुनिक साहित्य, फिल्म उद्योग, टेलीविजन चैनल या संगीत उद्योग की उपलब्धता नहीं है।

यह आश्चर्यजनक है कि भारत में युगों तक दार्शनिक, साहित्यिक और कलात्मक प्रवचनों पर हावी रहने के बावजूद संस्कृत सार्वजनिक जीवन से कैसे गायब हो गई, संस्कृत के विशेषज्ञ खुद इससे अनजान हैं। विशेषज्ञ आमतौर पर इसे बाहरी कारकों जैसे लॉर्ड थॉमस बैबिंगटन मैकाले की शिक्षा नीतियों और जवाहरलाल नेहरू की इसे राष्ट्रीय भाषा घोषित करने की अनिच्छा के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं।

अंग्रेजों की शिक्षा नीतियों को दोष देना राजनीतिक रूप से सही है। मुग़ल शासन को दोष देने के लिए भारत में कुछ इस्लामिक कट्टरपंथियों का विरोध झेलना पड़ता है लेकिन अपना ऐतिहासिक स्व-विश्लेषण करना सबसे कठिन कार्य है। संस्कृत के विद्वानों को इसे प्रसारित करना होगा यदि वे इस ईश्वरीय भाषा की दुर्दशा को समझना चाहते हैं।

मुगलों ने संस्कृत को सीमित कर दिया

मध्यकालीन युग में स्थानीय भाषाओं के विकास ने संस्कृत की संभावनाओं को प्रभावित किया। उनमें से कई स्थानीय भाषाएं संस्कृत से उत्पन्न हुई और उनकी विरासत को उच्च सम्मान भी मिला है। भक्ति आंदोलन भी स्थानीय भाषाओं के साथ-साथ चला। भाषायी आंदोलन उत्तर भारत में कबीर, महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर, मिथिला में विद्यापति और पश्चिम बंगाल में चंडीदास द्वारा शुरू किया गया था। गोस्वामी तुलसीदास जो खुद संस्कृत में निपुण थे लेकिन उन्होंने 16वीं शताब्दी में अवधी में रामचरितमानस लिखने का फैसला किया। जैसा भी हो लेकिन तथ्य यह है कि मुगल दरबार में विशेष रूप से अकबर के समय में कुछ चुनिन्दा संस्कृत विद्वानों को ही प्रश्रय मिलता था। हालांकि, यह काफी स्वार्थी राजनीतिक कदम था। उसके बाद मुगलों ने संस्कृत को पुस्तकालयों में लाकर हमेशा के लिए वहीं सीमित कर दिया।

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वाराणसी के संस्कृत पंडितों ने संस्कृत साहित्य की गैर-संस्कृत भाषा में अनुवाद का विरोध किया लेकिन महान वेदांतवादी भिक्षु मधुसूदन सरस्वती उनकी मदद के लिए आगे आए। एक बंगाली होने के नाते मधुसूदन सरस्वती को पता था कि रामायण अच्छी तरह से एक गैर-संस्कृत भाषा में लिखी जा सकती है। तुलसीदास की शताब्दी में हिंदी की बोलियों में लिखने वाले अन्य कवियों का उदय हुआ, जिनमें सूरदास, अब्दुल रहीम खान-ए-खाना (जिन्होंने अवधी, संस्कृत और फारसी में लिखा), रसखान, केशवदास (एक संस्कृत विद्वान) और बिहारी लाल चौबे जैसे कवि शामिल हैं। दिलचस्प बात यह है कि अद्वैत सिद्धि के लेखक मधुसूदन सरस्वती भारत के अंतिम व्यक्ति थे, जो पूरी तरह से संस्कृत में लिखकर सार्वजनिक व्यक्तित्व के मालिक बन गए। उनके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती और संत त्यागराज सहित कोई भी सार्वजनिक जीवन में केवल संस्कृत के माध्यम से उत्कृष्टता प्राप्त नहीं कर पाया।

ब्रिटिश काल में हुआ संस्कृत का पुनर्जागरण

अंग्रेजी ज्ञान का नया पैटर्न लेकर आई जो समकालीन पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता पर आधारित थी। यह भाषा ज्ञान को ‘मंदिर’ की बजाय ‘प्रयोगशाला’ बनाने में विश्वास करती थी। संस्कृत के पास इस नए राजनीतिक-कानूनी-तकनीकी शासन को ध्वस्त करने का साधन नहीं था। राजा राम मोहन राय से लेकर मदन मोहन मालवीय तक उस युग के कई दिग्गजों को संस्कृत का अच्छा ज्ञान था लेकिन उन्होंने अंग्रेजी या अपनी मातृभाषा में लिखने और बोलने को ज्यादा तवज्ज़ो दी।

यह एक मिथक है कि अंग्रेजों ने भारत पर अंग्रेजी थोप दी जिससे संस्कृत का नाश हो गया। अगर अंग्रेजों ने अंग्रेजी को ‘लागू’ किया होता, तो भारत की स्थानीय भाषाओं का भी ऐसा ही हश्र होता लेकिन उसी ब्रिटिश शासन के तहत स्थानीय भाषाओं का तेजी से विकास हुआI

सच तो यह है कि ब्रिटिश काल में संस्कृत का ‘पुनर्जागरण’ हुआ। वारेन हेस्टिंग्स (1772) से लेकर लॉर्ड एमहर्स्ट (1828) तक अंग्रेजों ने ‘प्राच्यवाद’ की नीति अपनाई जिससे संस्कृत, फारसी, उर्दू आदि को बढ़ावा मिला। इस परियोजना के एक भाग के रूप में वाराणसी के संस्कृत कॉलेज (अब संपूर्णानंद विश्वविद्यालय), कलकत्ता संस्कृत कॉलेज आदि की स्थापना की गई थी। देवनागरी फ़ॉन्ट विकसित किया गया जिसमें संस्कृत पांडुलिपियों की छपाई हुई।

भारत के विभिन्न हिस्सों से कई खोई हुई संस्कृत पांडुलिपियां बरामद की गई और अनुवाद का कार्य किया गया। मैकाले की जीत के बाद भी संस्कृत नहीं हारी। कोई संस्कृत कॉलेज या संस्कृत पाठशाला बंद नहीं की गई। 1902 में स्वामी श्रद्धानंद ने हरिद्वार के निकट गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। मद्रास संस्कृत कॉलेज की स्थापना भी 1906 में हुई थी।

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संस्कृत को मिले संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह

यह आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास था जिसने संस्कृत की संभावनाओं को बंद कर दिया। संस्कृत की प्रधानता उस युग की थी जब पुस्तकों का बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं होता था। 19वीं और 20वीं शताब्दी में जब पुस्तकों का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू हुआ तब लेखक, प्रकाशक, मुद्रक, पुस्तक विक्रेता और पाठक के बीच एक व्यावसायिक संबंध उभर कर सामने आया। संस्कृत लुप्त हो गई। जब प्राचीन काल में भर्तृहरि, भास या भारवी ने कोई रचना लिखी थी तो उनका यह इरादा बिलकुल नहीं था कि उनके काम की प्रतियां अधिक से अधिक लोगों के पास हो। लेकिन बिक्री का आंकड़ा आधुनिक काल में साहित्य का एक महत्वपूर्ण घटक बन गया।

इस प्रकार संस्कृत अपने छोटे पाठक आधार के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकी। दर्शकों की रुचि के बारे में भी यही सच है। यही कारण है कि 20वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा सिर्फ संस्कृत शिक्षण और सीखने तक ही सीमित होकर रह गई। स्वतंत्र भारत में दोनों संस्कृत आयोगों का गठन क्रमशः 1957 और 2015 में हुआ था। इन आयोगों नें संस्कृत को केवल सीखने तक सीमित कर दिया। सीखना निश्चित रूप से महान भाषा को पुनर्जीवित करने का पहला कदम है।

संस्कृत भारत में सबसे कम बोली जाने वाली भाषा हो सकती है लेकिन यह धूल-धूसरित होने से बहुत दूर है। 2011 की नवीनतम जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि प्राचीन भाषा ने 10 वर्षों की अवधि में 71 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 10,000 नए वक्ता अर्जित किए हैं। इसके प्रोत्साहन के लिए जरूरी है कि इसे संविधान की 8वीं अनुसूची में जगह दी जाए। ऐसे कुछ सार्थक कदमों के माध्यम से ही हम संस्कृत को एक लोकप्रिय भाषा के रूप में प्रसारित कर सकते है।

 

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