मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पीएन प्रकाश और आरएन मंजुला ने एक आपराधिक मामले में प्रेमकुमार रत्नावेल नाम के श्रीलंकाई शरणार्थी को तिरुचि के एक विशेष शिविर में रखने के सरकार के फैसले के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया है l कोर्ट ने कहा कि श्रीलंकाई शरणार्थी या तो 107 शरणार्थी शिविरों में से किसी एक में रहना चुन सकते हैं या स्वयं कहीं और शरणार्थी के रूप में रहते हुए उन्हें निकटतम पुलिस स्टेशन को जानकारी प्रदान करानी होगी। यदि वे किसी भी अपराध में शामिल होते हैं तो वे इन विशेषाधिकारों को खो देंगे और जब तक सरकार उन्हें हटाने का फैसला नहीं करती तब तक वे तिरुचि में एक विशेष शिविर में रह सकते हैं।
न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि सरकार द्वारा पारित कानूनी हिरासत के आदेशों के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर नहीं की जा सकती है और केवल नियमित रिट याचिकाओं को ही स्थानांतरित किया जा सकता है। कोर्ट ने इस मुद्दे पर हाईकोर्ट की रजिस्ट्री को मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाने का निर्देश दिया ताकि ऐसे मामलों पर विचार करने के लिए उचित प्रशासनिक निर्देश जारी किए जा सके। पीठ ने याचिकाकर्ताओं को विशेष शिविर से उन्हें हटाने के लिए सरकार से संपर्क करने की भी अनुमति दी।
इससे पहले, महाधिवक्ता आर. षणमुगसुंदरम ने अदालत के संज्ञान में लाते हुए कहा कि राज्य सरकार 107 श्रीलंकाई शरणार्थी शिविरों में रहने वाले प्रत्येक परिवार के मुखिया को प्रति माह 1,000 रुपये का भुगतान करती है। इसके अलावा 12 साल से ऊपर वालों को 750 रुपये और 12 साल से कम उम्र वालों को 450 रुपये भी देती है। यह शिविर के बाहर रहने वाले शरणार्थियों पर लागू नहीं होगा। यदि श्रीलंकाई शरणार्थी आपराधिक मामलों में शामिल हैं तो जमानत मिलने के बाद उन्हें विशेष शिविर में ही रखा जाएगा।
ऐसे लोगों को 175 रुपये प्रतिदिन का भुगतान भी किया जाएगा और उन्हें खुद खाना बनाने की भी अनुमति होगी। उनके रिश्तेदार उनसे शिविरों में मिल सकते हैं और सरकार उन्हें मुफ्त इलाज मुहैया कराएगी। इसलिए ऐसी नजरबंदी को अवैध नहीं कहा जा सकता। कई बार ऐसा देखा जाता है कि बांग्लादेश व श्रीलंकाई शरणार्थी भारत आकर रहने लग जाते हैं और फिर इनमें से कुछ लोग चोरी, हत्या, बलात्कार जैसे अपराधों को अंजाम देते हैं, ऐसे में कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए l