हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हमने कभी भी योग्यता और कथावाचन को मॉडर्न समय में कभी भी प्राथमिकता नहीं दी है। चाहे आज की सिनेमा हो या टीवी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाता है। इसी का दुष्परिणाम है कि जो देश कभी ‘बुनियाद’, ‘हम लोग’, ‘रामायण’, ‘कैंपस’, ‘अल्पविराम’ जैसे सीरियल बनाता था, आज वह ‘ससुराल सिमर का’, ‘साथ निभाना साथिया’, ‘यह रिश्ता क्या कहलाता है’ इत्यादि जैसे निकृष्ट सीरियल भी जबरदस्ती परोस रहा है, और OTT के जरिए तो न जाने क्या-क्या फूहड़ता फैला रहा है।
ये सब हुआ कैसे? आखिर भारतीय टीवी का ऐसा नैतिक पतन कैसे और कब हुआ? असल में इसके लिए हमें भारतीय टीवी का सम्पूर्ण इतिहास जानना होगा। यूं तो टीवी का पदार्पण देश में 1959 में ही हो गया था, पर कुछ फिल्मों, समाचार, और गीतों को छोड़कर एकमात्र सरकारी चैनल दूरदर्शन पर कुछ और नहीं दिखाया जाता था। कलर टीवी की उत्पत्ति यूं तो 1960 के दशक में ही हो चुकी थी, परंतु भारत आते-आते उसे 1982 लग गया, और 1984 में जाकर दूरदर्शन पर पहला धारावाहिक प्रसारित हुआ, ‘हम लोग’।
भारत में सीरियल का आरंभ
यह एक पारिवारिक प्रयोग था, जो काफी सफल रहा और 1985 में 154 एपिसोड के साथ खत्म हुआ। इसके सूत्रधार कोई और नहीं, वयोवृद्ध अभिनेता कुमुदलाल गांगुली थे, जिन्हें हम अशोक कुमार के नाम से बेहतर जानते हैं। यह वो समय था जब लोगों के पास दूरदर्शन के अलावा कोई विकल्प नहीं था, और तब लोग वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच के अंतर से भी अधिक परिचित नहीं थे।
इसी बीच ‘हम लोग’ के लेखक मनोहर श्याम जोशी एक और मार्मिक कथा ‘बुनियाद’ के साथ प्रस्तुत हुए। ये मास्टर हवेलीराम के जीवन के इर्दगिर्द घूमती थी, जिन्हें विभाजन के चलते अपना सब कुछ छोड़कर नए भारत में शरण लेना पड़ा था। इस सीरीज़ को रमेश सिप्पी ने निर्देशित किया था, और ये भी अपने समय के श्रेष्ठतम सीरियलों में गिनी जाती है।
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रामायण ने बदली TV सीरियल की रूपरेखा
फिर दूरदर्शन ने इतिहास रच दिया, जब रामानन्द सागर ने ‘रामायण’ महाकाव्य को टीवी पर चित्रित करने का निर्णय लिया। ये कार्य बहुत कठिन था, और फिल्मों के जरिए भी इसे पूरी तरह न्याय दिला पाना इतना सरल नहीं रहा था। इसके अलावा सही रोल के लिए सही व्यक्ति ढूँढना, जैसे घास के ढेर में सुई ढूँढने के समान था। उसके ऊपर से दूरदर्शन के कुटिल प्रशासक भास्कर घोष जैसे लोग भी थे, जो चाहते ही नहीं थे कि रामायण प्रसारित हो, क्योंकि वह देश के ‘सेक्युलरिज़्म’ के विरुद्ध जाता। परंतु इन सभी चुनौतियों को पार पाते हुए न केवल रामायण प्रसारित हुई, बल्कि वह इतनी लोकप्रिय हुई कि लोग इसे देखने के लिए अपने सभी कार्यों को छोड़ कर टीवी के समक्ष प्रस्तुत हो जाते थे।
एकता कपूर का आगमन और TV सीरियल की दुर्दशा आरंभ
तो फिर ऐसा क्या हुआ, कि जिस देश में ‘हम लोग’, ‘बुनियाद’, ‘रामायण’ जैसे बनते थे, वहाँ कन्टेन्ट का अचानक से अकाल आ गया? इसका एक उदाहरण ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ बेहतर समझा सकता है, परंतु उसके बारे में बाद में। केबल टीवी के प्रादुर्भाव से दूरदर्शन के अलावा भी चैनल आने लगे, परंतु प्रयोग कम नहीं हुए। ‘रामायण’ के अलावा ‘महाभारत’, ‘द ग्रेट मराठा’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘कैंपस’, ‘स्वाभिमान’, ‘अ माउथफुल ऑफ स्काई’, ‘इन्द्रधनुष’ इत्यादि जैसे सीरियल भी आने लगे। 21वीं सदी के प्रारंभ तक भी ‘अल्पविराम’ जैसे सीरियल बनते थे, जो आज भी समय से कहीं आगे थे, और जिन्हें बनाने में आज के कथित ‘Woke’ पीढ़ी के पसीने छूट जाएंगे। परंतु, फिर पदार्पण हुआ एकता रवि कपूर का।
स्टार प्लस नामक चैनल पर एकता कपूर 2000 में लेकर आई दो सीरियल, ‘कहानी घर-घर की’ और ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’। दोनों ही सीरियल ‘हम लोग’ की शैली से प्रेरित थे, परंतु इसने नींव रखी एक कुत्सित प्रथा की – सास बहू सीरियल्स और निकृष्टता यानि mediocrity की। ये सीरियल ऊटपटाँग प्लॉट, अजीबोगरीब कुरीतियों को बढ़ावा देने के कारण लोगों को आकर्षित करती थी। भले ही स्वीडिश यूट्यूबर PewDiePie ने टी सीरीज़ से अनावश्यक लड़ाई मोल लेकर अपनी भद्द पिटवाई, परंतु जब उसने अपना प्रथम वीडियो डाला ‘Yo India You Lose’, तो उसका निशाना प्रमुख तौर से एकता कपूर के यही सीरियल थे, जिनके कारण फिर ‘ससुराल सिमर का’ और ‘साथ निभाना साथिया’ जैसे सीरियल को बढ़ावा मिला। इनके बारे में जितनी निन्दा की जाए उतनी कम।
क्या चल रहा है और क्यों चल रहा है, किसी को कुछ नहीं पता
‘ससुराल सिमर का’ कहने को एक आम सास बहू सीरियल के रूप में शुरू हुआ, परंतु जल्द ही ये एक ऐसे शो में परिवर्तित हुआ, जहां क्या चल रहा है और क्यों चल रहा है, किसी को कुछ नहीं पता। एक थप्पड़ खाने पर एक रुष्ट लड़की परदे से गला घोंटने का प्रयास करती है, एक साधु के श्राप से मुख्य कलाकार मक्खी बन जाती है, और न जाने क्या-क्या इस सीरियल में देखने को मिला है। ये सीरियल पिछले 10 साल से चल रहा है, जिसका दूसरा सीजन अभी प्रारंभ भी हो चुका है। यह निकृष्टता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
अब बात करते हैं ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की, जो भारतीय टीवी के पतन का सबसे प्रत्यक्ष और जीवट प्रतीक है। ये शो पिछले 13 वर्षों से निरंतर चला आ रहा है। जब 2008 में भारतीय टीवी अपने निम्नतम स्तर पर था, तब सब टीवी पर ये शो प्रसारित हुआ था, और लोगों के लिए ये किसी ताजी हवा के झोंके से कम नहीं था। आज भी इसके प्रथम पाँच वर्ष के एपिसोड लोग धड़ल्ले से शेयर करते हैं, क्योंकि वे न सिर्फ चुटीले हैं, अपितु कहीं न कहीं एक महत्वपूर्ण संदेश देते हैं।
परंतु वो कहते हैं, किसी भी चीज की एक समयसीमा होती है, और उससे अधिक उसे खींचने पर उसका विनाश निश्चित है। तारक मेहता के साथ भी यही हुआ है, और आज स्थिति यह है कि लोग उसके वर्तमान एपिसोड के प्रति उतना आकर्षित नहीं है, जितना पहले हुआ करते थे। स्वयं इस शो से जुड़े कुछ पुराने कलाकार मानते हैं कि जरूरत से अधिक खींचना इस शो के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ है।
फ़ेम और पैसा कमाने की अंधी दौड़ में कला और रचना को हम लोगों ने कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है। यही एक कारण है कि जो देश अपनी कला के दम पर कभी भी किसी भी फिल्म या टीवी फेस्टिवल से एक झटके में सैकड़ों पुरस्कार अपनी योग्यता के बल पर प्राप्त कर सकता है, चाहे वह एमी हो या ऑस्कर, परंतु वह इसलिए चूक जाता है क्योंकि हमारे लिए पैसा अधिक मायने रखता है, न कि दमदार व्यक्तित्व एवं आकर्षक किरदार। यदि हम केवल अपने वास्तविक इतिहास को ही परदे पर उतारना शुरू कर दे, तो संसार का कोई भी टीवी फेस्टिवल किसी और को पुरस्कृत करने से पहले सौ बार सोचेगा। भारत के टीवी कॉन्टेन्ट का डंका पूरे विश्व में बजेगा, बस प्रयास करने की देर है।