विमानन और उड्डयन का क्षेत्र विविधताओं और जटिलताओं से भरा पड़ा है। इस क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए अपार अनुभव के साथ-साथ अर्थ की भी आवश्यकता पड़ती है। एक-एक कदम और रणनीति अगर सोच समझ कर नहीं बनाई गयी तो उद्यम का यह क्षेत्र कई उद्यमियों के लिए कब्रगाह साबित हुआ है। विजय माल्या और नरेश गोयल इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। अतः टाटा समूह द्वारा एयर इंडिया के अधिग्रहण ने कुछ ऐसे ही संदेहों का सृजन किया है। हम पहले पूर्व के दो उद्योगपतियों के प्रभाव को समझते हुए टाटा के अधिग्रहण की विवेचना करेंगे।
विजय माल्या का पराभव
विजय विट्ठल माल्या (वीएम) का जन्म 1955 में उद्योगपति और बिजनेस टायकून विट्ठल माल्या के घर हुआ था। उन्होंने 1983 में 28 साल की छोटी उम्र में अपने पिता का व्यवसाय यूबी ग्रुप को संभाला। वह हमेशा अपने पिता के व्यवसाय के विस्तार के अवसरों की तलाश में रहते थे। परिणामस्वरूप उन्होंने 2005 में किंगफ़िशर एयरलाइन्स की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने 2007 में इस हेतु कैप्टन गोपीनाथ के एयर डेक्कन एयरलाइन्स का अधिग्रहण किया।
2009 में एयरलाइन का समेकित ऋण 5,665 करोड़ रुपये तक पहुंच गया जो बढ़कर 7,000 करोड़ रुपये हो गया। आईडीबीआई बैंक ने एयरलाइन को 900 करोड़ रुपये का ऋण जारी किया। 2014 में आई रिपोर्ट के मुताबिक किंगफिशर एयरलाइंस ने 31 दिसंबर, 2013 को समाप्त तीसरी तिमाही में 822.42 करोड़ रु का शुद्ध घाटा दर्ज किया। यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया ने माल्या और किंगफिशर एयरलाइंस के तीन निदेशकों को विलफुल डिफॉल्टर घोषित किया और 2016 में बैंकों ने माल्या की विदेश यात्रा पर प्रतिबंध लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया परंतु उससे पहले माल्या ने 2 मार्च को भारत छोड़ दिया।
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नरेश गोयल का पराभव
विजय माल्या का अंत जहां विमान और उड्डयन जैसे जटिल क्षेत्र में गलत और अत्यधिक निवेश के कारण हुआ। वहीं नरेश गोयल (जेट एयरवेज़) का अंत गलाकाट प्रतिस्पर्धा और सरकार की बदली नीतियों की वजह से। जेट एयरवेज़ में विदेशी कंपनियों का भी निवेश था। ऐसी किसी भी गलत परिपाटी को रोकने के लिए घरेलू विमानन में किसी भी प्रकार के बाहरी निवेश को प्रतिबंधित कर दिया। अतः, सभी निवेशकों ने अपनी हिस्सेदारी औने-पौने दामों में बेच दी। ऊपर से उनके समकालीन प्रतिद्वंदियों जैसे माल्या ने कम दाम में उन्नत सुविधा देकर उन्हें प्रतिस्पर्धा से ही बाहर कर दिया। एक कारण तेल के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी भी थी।
खैर, सरकरी एयरलाइन्स एयर इंडिया की दुर्गति से तो आप वाकिफ है ही। 18,000 करोड़ में टाटा समूह द्वारा खरीदे जाने पर चर्चाओं का बाज़ार गर्म है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या टाटा इस उद्यम का उद्धार कर देंगे या अपने पूर्ववर्तियों के तरह एयरलाइन्स का उद्योग उन्हें भी डूबा देगा?
टाटा से आशा
जेआरडी टाटा द्वारा भारत की विमानन सेवा की नींव रखी गयी। राष्ट्रीयकरण की नीतियों के तहत सरकार द्वारा इसे अधिग्रहित कर लिया गया था। अपने अधिग्रहण के पश्चात से ही एयर इंडिया सतत सेवा और मूल्य के मामले में पिछड़ती गयी। समेकित घाटा में अप्रत्याशित वृद्धि ने इसके विक्रय के मार्ग भी बंद कर दिये। तब देश की घरेलू और इसकी पूर्ववर्ती कंपनी संकटमोचक बनकर सामने आई। वैसे अमेज़न और सरकार को यह विश्वास है कि टाटा का यह अधिग्रहण एयर इंडिया के लिए संजीवनी का काम करेगा। टाटा के पास ऐसी डूबती कंपनी को मुनाफे का केंद्र बनाने में महरथ हासिल है। आप Landrover और Jaguar के मामलें में इसका मानद उदाहरण देख सकते हैं। दूसरी ओर टाटा एक वृहद और विस्तृत कंपनी है। इसका अनुभव और संसाधन अत्यंत अधिक है। टाटा ने एक बार सिंगापुर एयरलाइन्स में निवेश कर अपने विमानन क्षेत्र के सपनों को उड़ान देने की कोशिश की थी। परंतु, घरेलू विमानन में किसी भी विदेशी निवेश के प्रतिबंध के कारण ऐसा नहीं कर पायी। हालांकि, इस संबंध में टाटा को अनुभव है और इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। तीसरी और आखिरी बात जो टाटा को इस क्षेत्र का महारथी बनाती है वो है, इसके राष्ट्रावादी सिद्धान्त, विस्तृत साम्राज्य और अनंत अर्थ।
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अतः कोई भी छोटा मोटा उद्यम टाटा से अर्थ और अनुभव के आधार पर प्रतिस्पर्धा तो कदापि नहीं कर सकता और अगर कुछ अनहोनी हुई भी तो टाटा के सर पर सरकार का वरदस्त है। सरकार की कई परियोजनाओं में टाटा शामिल है। सरकार और देश के मिजाज के करीब होने के कारण सरकार टाटा को गिरने नहीं देगी। यही सारे गुण और मजबूती इस तर्क को आधार देते हैं कि टाटा के नियंत्रण में एयर इंडिया का भाग्योदय तय है।