रामायण भारतीय व्यक्तित्व का संविधान है और महर्षि वाल्मीकि इसके रचयिता। रामरत हो रामचरित के चित्रण ने एक पतित को पावन में परिवर्तित कर दिया। उन्हें समाज का प्रणेता बना दिया। भारतीय संस्कृति का पुरोधा बना दिया। उनका जीवन आज भी पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत और समाज के लिए प्रासंगिक है। समाज उनके अवतरण दिवस को वाल्मीकि जयंती के रूप में मनाता है। इस दिन को प्रगति दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, वाल्मीकि जयंती अश्विन महीने में पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। इस बार वाल्मीकि जयंती 20 अक्टूबर को है।
महर्षि वाल्मीकि का जीवन एक डकैत से ऋषि और ऋषि से ब्रह्मर्षि बनने की गाथा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, वाल्मीकि एक बार नारद मुनि से मिले थे। यह मुलाकात उनके लिए जीवन बदलने वाली घटना थी। उन्होंने भगवान राम की पूजा करने का फैसला किया और वर्षों तक ध्यान में बैठे रहे। उनकी भक्ति इतनी अडिग थी कि उनके ऊपर चींटियों का बिम्ब बन गया। इसलिए, उनका नाम वाल्मीकि पड़ा जिसका संस्कृत में अर्थ है “चींटियों का बिम्ब”। ऐसा माना जाता है कि प्रबोधन पश्चात उन्हें ब्रह्मर्षि के नाम से जाना जाने लगा। उन्हें भगवान ब्रह्मा द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई जिसके पश्चात उन्होंने रामायण लिखी।
परंतु, क्या हो अगर इस महाकाव्य के प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाए? जिस प्रकार संविधान का मूलभूत ढांचा नहीं बदला जा सकता उसी प्रकार हमारे व्यक्तित्व के इस संविधान से भी कोई छेड़छाड़ नहीं हो सकता। जैसे संविधान का रक्षक उच्चतम न्यायालय है वैसे हमारे व्यक्तित्व के इस संविधान के रक्षक हम स्वयं है और इस संविधान का सबसे प्रामाणिक स्रोत है- वाल्मीकि रामायण।
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विविधता हमारे संस्कारों में है। अतः हमारी संस्कृति और धर्मग्रंथों में भी परिलक्षित होती है। रामायण भी उससे अछूता नहीं है। रामायण के कई संस्करण, प्रकार और विधाएँ है। उदाहरणार्थ- अकबर के बेटे दारा शिकोह ने भी फारसी भाषा में रामायण का अनुवाद कराया था जिसे हम Nazam Khushtar के नाम से भी जानते है।
रामानुजन द्वारा “तीन सौ रामायण” नामक एक विद्वतापूर्ण निबंध लिखा गया जो 2,500 वर्षों या उससे अधिक की अवधि में रामायण के इतिहास तथा भारत और एशिया में इसके प्रसार का सारांश देता है। यह तथ्यात्मक रूप से प्रदर्शित करने का प्रयास करता है कि विभिन्न भाषाओं, समाजों, भौगोलिक क्षेत्रों, धर्मों और ऐतिहासिक कालखंडों में प्रसारित होने के दौरान राम की कहानी में कई बदलाव हुए हैं।
यह निबंध इतिहास के स्नातकों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल था। परंतु, 9 अक्टूबर, 2011 को विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद ने अपने अगले शैक्षणिक चक्र के लिए बीए पाठ्यक्रम से निबंध को हटाने का निर्णय लिया। आखिर क्यों? ऐसा इसलिए ताकि संस्कृति के इस संवाहक की सुचिता सुनिश्चित की जा सके। अरविन्द घोष के शब्दों में कहें तो कालिदास के काव्य, वेदव्यास का महाभारत और वाल्मीकि का रामायण सनातन को सर्वदा शाश्वत रखने की शक्ति रखते हैं, और किसी भी प्रकार के अस्तित्व संकट में संजीवनी तो अवश्य बनेंगे।
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वाल्मीकि रामायण ही प्रामाणिक रामायण है। इसकी सत्यता पर संदेह और इसके ऊपर किसी और संस्करण को मान्यता देना निरर्थक और निंदनीय है। यह तो हमारे सनातन संस्कृति की सहिष्णुता है जो ऐसे मतभेदों को भी ससम्मान अपनी संस्कृति में स्थान देती है अन्यथा अन्य शामी (Abrahamic) परंपरा वाले धर्म तो ऐसे विभेद में जीवन तक को स्थान नहीं देते। ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा द्वारा दी गई दिव्यदृष्टि के माध्यम से स्वयं राम कहानी देखी और अनेकानेक देवों और संतों के मार्गदर्शन में उसकी रचना की। वो स्वयं उस काल खंड से आते थे बाकी रामायण तो उसका अनुवाद या निजी चित्रण अथवा निजी दृष्टिकोण है। परंतु, राम जीवन का वास्तविक, प्रामाणिक और सत्य उल्लेख तो वाल्मीकि रामायण ही है, ऐसा तथ्य सुनिश्चित करते हैं।
महर्षि वाल्मीकि ने अपना पूरा जीवन राम जीवन के चित्रण में अर्पण कर दिया। उनका स्वयं का जीवन प्रेरणास्रोत है, परंतु उन्होंने राम जीवन को प्रेरणा का आधार चुना और पीढ़ियों की सीख के लिए, बिना किसी मिलावट और पारंपरिक परिवर्तन के उसे संकलित किया । अगर हम इसकी पवित्रता को नष्ट करेंगे तो इससे हमें नायक चुनने और सीख लेने में समस्या होगी जैसे आज के परिदृश्य में कुछ लोग रावण के चरित्र का महिमामंडन करने लगे हैं, तो कुछ माँ सीता के जीवन को उस समय के पितृसत्तात्मक सोच से जोड़ते हैं। यह सब सिर्फ हमारे धर्म द्वारा दी गयी परिवर्तन और विविधता की स्वतन्त्रता के कारण संभव हो सका है। तुसली राम कहानी के अपने दृष्टिकोण रामचरितमानस में इसका उल्लेख करते हुए लिखते है- “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।“ बस इसका धायन रखें की भावना गंदी और असत्य ना हो क्योंकि राम हमारे व्यक्तित्व के संविधान है।