विगत कुछ वर्षों में देश नें कई आंदोलन देखें तो सभी आंदोलनों का कारण मुख्यतः संसद से पारित हुए कानून ही रहे है। चाहे नागरिकता कानून हो या कृषि कानून सभी विधायी निर्देशों को लेकर समाज के एक वर्ग ने विरोध किया, परंतु उन्होंने विरोध को विद्रोह के स्तर तक और विद्रोह को देशद्रोह तक में परिवर्तित कर दिया। इस प्रक्रिया में उनका कवच बना संविधान प्रदत्त विरोध करने का अधिकार जो हमारे लोकतन्त्र का आधार है। उदाहरण देखिये, संविधान के अनुच्छेद 11 में स्पष्टतः उल्लेखित है कि नागरिकता मामले में संसद को विधि बनाने और संशोधित करने का विशेषाधिकार है। विधि बनाई भी गयी परदेश से आए शरणार्थियों के लिए परंतु, कुछ लोगों ने शाहीन बाग को बंद कर दिया। उनका कवच बना- विरोध करने का अधिकार।
हालिया किसान आंदोलन और लखीमपुरी हिंसा को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को संज्ञान में लेते हुए विरोध करने का अधिकार की संवैधानिकता और सीमाओं की समीक्षा करने जा रहा है।
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परंतु, हालिया किसान आंदोलन और लखीमपुरी हिंसा को देखते हुए सर्वोच्चा न्यायालय नें मामले को संज्ञान में लिया है और अब कोर्ट विरोध के अधिकार के संवैधानिकता और सीमाओं की समीक्षा करने जा रहा है। आपको बता दें कि किसान महापंचायत ने सर्वोच्च न्यायालय से दरअसल, दिल्ली में आने और जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने की अनुमति मांगी। न्यायालय ने फटकार लगाते हुए कहा कि ‘आप लोगों नें दिल्ली का गला घोट दिया है। आपने न सिर्फ आम लोगों का बल्कि सैन्य परिवहन को भी बाधित कर रखा है। अब हम आपकों दिल्ली में आकार अराजकता नहीं फैलाने देंगे।’ सर्वोच्च न्यायालय ने मोनिका अग्रवाल द्वारा दायर एक याचिका को भी संज्ञान में लिया जिसमें उन्होंने कार्यालय जाने की असुविधा से कोर्ट को अवगत कराया था।
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जब तक सर्वोच्च न्यायालय की ये फटकार पुरानी पड़ती लखीमपुर खीरी हिंसा का मामला सामने आ गया। इस बार सर्वोच्च न्यायालय किसानों की अराजकता और उनके बेवजह विरोध से आग बबूला हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने तीनों विवादित कृषि कानूनों पर रोक लगाने के बावजूद अपना आंदोलन जारी रखने के लिए सोमवार को फिर से किसानों की खिंचाई की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “लागू करने के लिए कुछ भी नहीं है। किसान किस बारे में विरोध कर रहे हैं? अदालत के अलावा कोई भी कृषि कानूनों की वैधता का फैसला नहीं कर सकता है। जब किसान अदालत में कानूनों को चुनौती दे रहे हैं, तो सड़क पर विरोध क्यों?” जस्टिस खानविलकर ने कहा कि सरकार न्यायालय के समक्ष लिखित में कानून को न लागू करने का undertaking दे चुकी है। अतः विरोध का कोई औचित्य नहीं है और ना ही विरोध करने के लिए कुछ बचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने ना सिर्फ 42 किसान नेताओं को नोटिस भेजा, बल्कि वो प्रश्न भी तय कर लिया जिस पर निर्णय दिया जाएगा-“क्या कोई व्यक्ति या निकाय, अगर एक बार कानून की वैधता को चुनौती देने के लिए एक संवैधानिक अदालत में जाता है, तो फिर उसी मुद्दे के संबंध में सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर सकता है।”
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम एक नागरिक और लोकतान्त्रिक समाज के एक ऐसे स्तर पर पहुंच चुके हैं जहां हमारे अधिकारों के मूल्यांकन की आवश्यकता है। परंतु, अधिकार नियंत्रित न हो तो अराजक हो जाते है। साथ ही आप दूसरों के अधिकारों को खा जाते हैं। स्वतन्त्रता पश्चात सर्वोच्च न्यायालय सदा सर्वदा से आपके इस संवैधानिक अधिकार का संरक्षक रहा है। आपातकाल, बाबा रामदेव, रामलीला मैदान, शाहीन बाग, जंतर-मंतर, जवान, किसान सर्वोच्च न्यायालय ने सभी को, सभी जगह निर्बाध रूप से अपने विरोध करने का अधिकार को बनाए रखने की अनुमति दी। जब शासन ने ऐसे प्रदर्शनों का दमन करना चाहा तब न्यायालय ने रोका भी। धीरे धीरे न्यायालय, किसान और संविधान के संरक्षण का दुरुपयोग करके कुछ देश विरोधी ताकतों ने इस विरोध में जगह बना ली, चाहे लालकिले पर उत्पात मचाना हो या फिर लखीमपुर खीरी की हिंसा, सभी जगह उन राष्ट्रविरोधी, उग्र, राजनीतिक रूप से आरएसएस-भाजपा विरोधी और सामंतवादी लोगों के अंश दिख जाएंगे, जो छोटे किसानों के कंधों पर से बंदूक चला रहे हैं। नागरिकता और कृषि क़ानूनों में इस संवैधानिक कवच (विरोध करने का अधिकार) का प्रयोग लोकतन्त्र को मजबूत करने हेतु नहीं, बल्कि तोड़ने के लिए किया जा रहा है। संसद की जगह सड़क पर कानून बनाने और संशोधित करने की मानसिकता दिखने लगी है। विधायिका द्वारा इसका अंत विद्रोह को जन्म दे सकता है, ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को इसकी सीमा निर्धारित कर वैधानिकता प्रदान करनी चाहिए।
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