द्विराष्ट्र सिद्धांत के ‘जनक’ सैयद अहमद खान हैं

विभाजन के लिए जिन्ना जिम्मेदार तो था, लेकिन उससे भी बड़ा जिम्मेदार कोई था तो उसका नाम सैयद अहमद खान है....

भारत देश की मूल कल्पना सनातन धर्म के ग्रन्थों के हिसाब से बहुत पहले से है। मार्कण्डेय पुराण बताता है कि यहां लोग तबसे रह रहे हैं जब अन्य धर्मों का जन्म भी नहीं हुआ था। फिर समय के साथ यहां लोग आते गए, कुछ लोगों ने देश हित में अपना योगदान जोड़ा, तो बहुतों ने इसे तोड़ा। आज देश को तोड़ने वाले या फिर भारत-पाकिस्तान का विभाजन करने वाले व्यक्ति का जन्म हुआ था। उसका नाम सैयद अहमद खान था। दो राष्ट्र सिद्धांत के जनक सर सैयद अहमद खान थे, जिन्होंने 1876 में लिखा था, “मुझे विश्वास है कि हिंदू और मुसलमान कभी भी मिलकर एक राष्ट्र नहीं बना सकते क्योंकि उनका धर्म और जीवन जीने का तरीका एक दूसरे से काफी अलग है।”

आज भले वाद-विवाद, बहसों में सावरकर या जिन्नाह को 2 नेशन थ्योरी के लिए दोषी ठहराया जाता है, सावरकर की इसमें कितनी भूमिका थी यह शोध का विषय है, इसके विपरीत जिन्नाह जिम्मेदार तो था, लेकिन उससे भी बड़ा जिम्मेदार कोई था तो उसका नाम सैयद अहमद खान है। ये वही व्यक्ति है जिसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की नीवं रखी थी और जिसे हिन्दू मुसलमान का साथ रहना गवारा नहीं था। भारत में मरने के बाद जहां चरित्र साफ करने की बेबुनियाद कोशिश होती रहती है, वहीं वामपंथियों द्वारा बहुत हद तक सैयद अहमद खान के चरित्र को साफ किया गया। सैयद अहमद खान ने यह कहकर अपने आप को दार्शनिक बना दिया कि अगर हिन्दू-मुस्लिम साथ रहेंगे तो दंगे होंगे। ऐसे नफरती इंसान के नामपर आज भी देश भर में तमाम सभागार, पुस्तकालय मौजूद है।

यह सबको मालूम है कि टू नेशन थ्योरी की घटना मूल रूप से उपमहाद्वीप में इस्लाम के आगमन के साथ शुरू हुई। पाकिस्तान के निर्माण के बारे में यह भावना बहुत महत्वपूर्ण थी।

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टू नेशन थ्योरी के पीछे मूल अवधारणा ही यह थी कि मुस्लिम और हिंदू हर प्रकार से दो अलग राष्ट्र थे, इसलिए उप-महाद्वीप के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में मुसलमानों को अपनी मातृभूमि रखने का अधिकार दिया जाए, जहां वे धार्मिक पद्दति के अनुसार अपना जीवन जी सकें। इस्लाम की शिक्षाएँ और उसके प्रावधानों से मनुष्य जिए। यह अवधारणा ही दो अलग राजनीतिक सोच को जन्म देने के लिए पर्याप्त थी, जो उपमहाद्वीप के विभाजन के लिए जिम्मेदार हुई।

भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के आगमन के बाद दो राष्ट्रों (हिंदू और मुस्लिम) की अवधारणा बनी लेकिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद इसे एक सिद्धांत में बदल दिया गया। सर सैयद अहमद खान को दो राष्ट्र सिद्धांत के जनक के रूप में माना जाता है। पहली बार सैयद अहमद खान ने महसूस किया कि मुस्लिम और हिंदू एक साथ नहीं रह सकते हैं और मुसलमानों को एक अलग राष्ट्र के रूप में माना और एक अलग मातृभूमि की मांग की जहां मुसलमान इस्लाम के अनुसार अपने जीवन जीने के तरीके का अभ्यास कर सकें।

अल्लामा इकबाल ने सर सैयद के विचार को दार्शनिक स्पष्टीकरण प्रदान किया और कायद-ए-आज़म ने इस सिद्धांत का समर्थन किया और और इसे एक राजनीतिक वास्तविकता में बदल दिया।

सैयद अहमद खान ने सावरकर के जन्म से पहले से ही द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के लिए समर्थन दे दिया था। खान ने तर्क दिया कि मुसलमानों को अंग्रेजों से लड़ने के बजाय ब्रिटिश साम्राज्य के साथ सहयोग करना चाहिए। उन्होंने मुसलमानों को इंपीरियल सिविल सर्विसेज (आईसीएस) की सेवा के लिए तैयार करने के लिए मुहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है) की स्थापना की, जहाँ के छात्रों को जिन्ना ने भारत के विरुद्ध पाकिस्तान का हथियार कहा।

शुरुआत में सर सैयद भारतीय राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे लेकिन बाद में हिंदी-उर्दू विवाद के कारण अखंड भारत से सैयद का विश्वास हिल गया और उसने दो राष्ट्र सिद्धांत की वकालत करना शुरू कर दिया। उसने मुसलमानों को एहसास कराया कि वे अलग हैं, उनका धर्म बहुत शक्तिशाली है।

सर सैयद अहमद खान पहले मुस्लिम नेता थे जिन्होंने मुसलमानों के लिए “नेशन” शब्द का इस्तेमाल किया था। सर सैयद के अनुसार भारत में दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान। वे एक साथ नहीं रह सकते थे और जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा उनके बीच दुश्मनी होगी। सैयद का विचार था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं क्योंकि उनके धर्म, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता एक दूसरे से भिन्न थे।

सर सैयद के राजनीतिक विचारों को इस संक्षेप में प्रस्तुत किया जा सकता है:-

1. भारत एक महाद्वीप था, देश नहीं।
2. यह विभिन्न जातियों और विभिन्न पंथों की एक विशाल आबादी द्वारा बसा हुआ था।
3. इनमें हिंदू और मुस्लिम, राष्ट्रीयता, धर्म, रीति-रिवाजों, संस्कृतियों, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं के आधार पर दो प्रमुख राष्ट्र थे।
4. अंग्रेजों के जाने के बाद, वे राजनीतिक शक्ति को समान रूप से साझा नहीं कर सकते।
5. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं थी।
6. मुसलमान पश्चिमी प्रकार के लोकतांत्रिक ढांचे को स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि जनसंख्या के 1/4 अनुपात में, उन्हें हिंदुओं द्वारा गुलाम बनाया जा सकता था।

7. यदि कांग्रेस अपनी लड़ाई में सफल हो भी गई तो एक विनाशकारी गृहयुद्ध होगा।

ऐसे में यह जान लेना अवश्यक है कि दो अलग देशों की सोच के पीछे हाथ सैयद अहमद खान का ही था।

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