भाषा का सांस्कृतिक और प्रशासनिक महत्व है। यह आपको सांस्कृतिक और पारंपरिक रूप से समृद्ध तथा प्रशासनिक कार्यों को सुगम व सरल बनाता है। भारत में जितनी भाषाएँ बोली जाती है उतनी अन्यत्र कहीं नहीं बोली जाती। भारत में कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। हालांकि, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343(1) में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि “संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी।“ आधिकारिक भाषाओं के अलावा संविधान 22 क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता देता है, जिनमें अनुसूचित भाषाओं के रूप में हिंदी शामिल है लेकिन अंग्रेजी नहीं। परंतु अब राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस दौर में संस्कृत को राष्ट्रभाषा और क्षेत्रीय भाषाओं को आधिकारिक राजभाषा का दर्जा देने की ज़रूरत है।
सभी भाषाओं की जननी है संस्कृत
संस्कृत को ‘देवभाषा’ कहा जाता है। सप्तर्षियों ने भगवान शिव से इस देवभाषा का सार देने के लिए कहा, शिव की ‘डमरू’ से कुछ दिव्य ध्वनि निकली, जिसे ‘महेश्वर सुत्रणी’ कहा गया। भगवान द्वारा दिए गए ये 14 सूत्र पाणिनि द्वारा रचित व्याकरण का आधार बने। पाणिनि ने 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में ‘अष्टाध्यायी’ लिखा। कात्यायन ने चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में अपने ‘वर्तिकास’ में पाणिनि के काम का विस्तार किया। पतंजलि ने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में पाणिनि और कात्यायन के कार्यों पर अपनी प्रसिद्ध टिप्पणी लिखी, जिसे ‘महाभाष्य’ के नाम से जाना जाता है। भले ही आधुनिकता के अंधी दौड़ में युवा पीढ़ी संस्कृत की सांस्कृतिक विरासत को भूल गयी है, पर आज भी पाणिनि का ‘अष्टाध्यायी’ विश्व का सबसे प्राचीन व्यवस्थित व्याकरण है। सामग्री की व्यापकता के साथ रूप की संक्षिप्तता में पाणिनी के काम का कोई समानांतर नहीं है।
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शत प्रतिशत शुद्ध यह भारतीय भाषा विश्व की सबसे प्रामाणिक और वैज्ञानिक भाषा होने के साथ-साथ सभी भाषाओं की जननी भी है। नासा के कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार संस्कृत सूचना, प्रसारण और कंप्यूटर कोडिंग के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है। हालांकि, इस्लामी आक्रमण और अंग्रेजी धर्मांतरण ने हमें इस भाषा से दूर कर दिया। हमने एक समाज के तौर पर इसका दंश भी झेला, हम भारत के गौरवशाली अतीत और धर्मग्रंथों को भूलकर दूसरी सभ्यता के पिछलग्गू बनते गए। लेकिन अब ज़रूरत है अपनी इस ऐतिहासिक भूल को सुधारते हुए संस्कृत को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की।
सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई है याचिका
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे ने एक बार कहा था कि बी आर अंबेडकर ने संस्कृत को भारत की “आधिकारिक राष्ट्रीय भाषा” के रूप में प्रस्तावित किया था, क्योंकि वह राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को अच्छी तरह से समझते थे और जानते थे कि लोग क्या चाहते हैं। प्राचीन भारतीय ग्रंथ, अरस्तू के “न्यायशास्त्र” और फ़ारसी के तर्क प्रणाली से उच्च कोटि का है और ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम अपने पूर्वजों की प्रतिभाओं को त्यागे। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर हिंदी को राजभाषा के रूप में जारी रखते हुए संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में अधिसूचित करने की मांग की गई है।
यह जनहित याचिका गुजरात सरकार के पूर्व अतिरिक्त सचिव के.जी. वंजारा ने डाली है जो अब गुजरात हाई कोर्ट में वकील हैं। के. जी. वंजारा विवादास्पद आईपीएस अधिकारी डी.जी. वंजारा के भाई हैं, जो इशरत जहां मुठभेड़ मामले में जेल गए थे और जेल में सेवानिवृत्त हुए थे। याचिका में मांग की गई है कि सुप्रीम कोर्ट संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा के रुप में अधिसूचित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश दे।
हिंदी के तीन भाषाओं के फॉर्मूले का हिस्सा होने के विवाद के बीच राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष नंद कुमार साई ने मांग की है कि सरकार संस्कृत को आधिकारिक भाषा बनाए, क्योंकि इससे कई भारतीय भाषाएं निकलती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी के विपरीत दक्षिणी राज्यों को संस्कृत पर आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने कहा, “यह अच्छा है कि आप अंग्रेजी सीखना चाहते हैं लेकिन आपको अपनी भाषा भी सीखनी चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए जो कि संस्कृत है। संस्कृत एक पूर्ण भाषा है, जबकि अंग्रेजी में तर्क का अभाव है।” कांग्रेस नेता शशि थरूर ने कहा कि संस्कृत एक अद्भुत भाषा है लेकिन इसे राजभाषा बनाने की सलाह यथार्थवादी नहीं है।
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भारत के सांस्कृतिक विकास और पुनर्जागरण की धुरी बन सकती है संस्कृत
क्षेत्रीय भाषाओं को अस्मिता से जोड़ने की परंपरा आज़ादी के बाद प्रारम्भ हुई। इसकी शुरुआत आन्ध्र प्रदेश से हुई और धीरे-धीरे यह पूरे देश में फैलती गई। भाषा के आधार पर राज्यों का निर्माण नेहरू के क्षसंकाल की देन है। परंतु एक बात जो खास है वो यह है कि भाषायी अस्मिता का उदय हिन्दी के विरोध स्वरूप हुआ था, जबकि संस्कृत तो सभी भाषाओं की जननी है। इसको राष्ट्रभाषा का दर्जा देने पर दक्षिण के राज्यों को भी कोई परेशानी नहीं होगी। भाषा के नाम पर विखंडित हो चुका पाक और गृहयुद्ध झेल चुके श्रीलंका जैसे हालात भारत में बिलकुल पैदा नहीं होंगे, क्योंकि यहां संस्कृत की विराटता है। यह सभी भाषाओं का उदगम है और स्वयं में सभी को समाहित करने की सहिष्णुता और सामर्थ्य रखता है।
संस्कृत भाषा यद्यपि बहुत कम लोग ही बोलते है, मौजूदा समय में यह देवभाषा आम बोल चाल की भाषा भी नहीं रही। परंतु इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देना आमजन में इसके विरत विरासत के प्रति उत्सुकता और सम्मान जगाएगा। संभव है यह भारत के सांस्कृतिक विकास और पुनर्जागरण की धुरी बने। इसके साथ-साथ हमें अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को प्रशासनिक भाषा का दर्जा देते हुए उनके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए। अनेकता में एकता को इस तरह से संजोने का काम संस्कृत ही कर सकती है। इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने संस्कृत को राजभाषा का दर्जा दिया है। आवश्यकता है तो एक समग्र योजना और दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ संस्कृत को उसका गौरव लौटने की।