7 अक्तूबर को आर्यन खान को ड्रग्स मामले में गिरफ्तार किया गया थाl गिरफ़्तारी के लगभग 4 हफ़्तों बाद देश के अटॉर्नी जनरल रह चुके और इस केस में आर्यन की पैरवी कर रहे मुकुल रोहतगी और उनके वकीलों की टीम की कोशिशों के कारण आर्यन की ज़मानत याचिका स्वीकार कर ली गई l ऐसे में जहाँ एक ओर कुछ लोगों के मन में ये सवाल है कि ‘ड्रग्स’ केस में, जहाँ कानून अन्य ज़मानती अपराधों से अधिक सख्त हैं, वहां आर्यन की ज़मानत याचिका केवल 25 दिनों के भीतर ही कैसे मंजूर कर ली गई जबकि कुछ अन्य लोगों का मानना है कि पुलिस द्वारा आर्यन को 25 दिन तक जेल में रखना क़ानूनी तौर पर गलत थाl ऐसे में एक पक्ष उन कैदियों का भी रखना आवश्यक है, जो वर्षों से भारत की जेलों में बंद है l अपराधी या निर्दोष , कोई नहीं जनता l
NCRB की रिपोर्ट के अनुसार भारत की जेलों में कैद 70% आरोपी अभियोगाधीन हैं, अर्थात उनका मामला अदालत में लंबित है और अब तक उन्हें आरोपी सिद्ध नहीं किया गया है l इनमें ऐसे कैदी भी हैं जिन्हें छोटे-मोटे अपराधों के लिए जेल में रखा गया हैं l कारावास की सज़ा वैसे तो अपराधियों के लिए होती है लेकिन कई बार उपयुक्त जमानत की कमी या नकद जमानत का भुगतान करने की असमर्थता के कारण आरोपी वर्षों तक जेल में ही बंद रहते हैंl
एक वर्ष या उससे अधिक समय से जेलों में बंद अभियोगाधीन कैदियों की संख्या समय के साथ बढ़ी ही है क्योंकि अदालतों के समक्ष लंबित मामलों का प्रतिशत भी तेजी से बढ़ा है। 2019 के अंत में, 3.28 लाख जेल कैदियों पर मुकदमा चल रहा था, जिनमें से 1.42 लाख दोषी पाए गएl ऐसे में यह माना जा सकता है कि जेल में सालों साल बंद रहने वालों का एक बड़ा प्रतिशत किसी अपराध का दोषी नहीं।
प्रश्न सरल है , क्या भारत के अभियोगाधीन कैदियों के लिए लम्बी कानूनी प्रक्रिया अपने आप में ही एक सजा नहीं ? प्रश्न तो ये भी है कि जब देश के प्रधानमंत्री से लेकर एक आम दिहाड़ी मजदूर तक, भारतीय संविधान सबके अधिकारों की समान प्रकार से रक्षा करता है तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ लोग न्यायिक प्रक्रिया के लिए VIP क्यों ?
आर्यन दोषी है या निर्दोष यह अदालत तय करे, लेकिन उसे 25 दिन बाद ज़मानत पर रिहा तो कर ही दिया गया l इसी देश की न्याय व्यवस्था सलमान खान को गिरफ़्तारी के केवल 4 घंटों के भीतर ज़मानत दे देती है l वहीँ, आतंकवादी याकूब मेनन के लिए तो आधी रात को देश का सर्वोच्च न्यायलय तक खुलवा दिया जाता है, लेकिन निरपराध विष्णु तिवारी को बलात्कार और SC/ST केस में निर्दोष साबित होने से पहले 20 साल तक जेल में कैद रखा जाता है l उन 20 वर्षों में, विष्णु को एक बार भी जमानत नहीं दी जाती। इसे उनका भाग्य कहें या कुछ और, विष्णु को पैरोल पर तक रिहा नहीं किया गया, यहां तक कि कई लोग जो उनसे पहले या उनके साथ ही जेल में बंद थे उनको तक कोरोनोवायरस महामारी के दौरान कुछ समय के लिए रिहा कर दिया गया ताकि जेलों में भीड़भाड़ कम हो सके। लेकिन विष्णु 20 वर्षों तक निरपराध होते हुए भी लड़ते रहे, कभी न्याय के लिए, कभी लंबी न्यायिक प्रक्रिया से l
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संविधान का अनुच्छेद 39 ए उन लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करता है जो इसे वहन नहीं कर सकते। हालांकि, वास्तविकता अनुच्छेद 39ए के आदर्शों से कोसों दूर है और इसमें कोई दो राय नहीं l कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में कानूनी सेवाओं, विशेष रूप से मुफ्त कानूनी सहायता की गुणवत्ता, काफी खराब है। भारत की लगभग 80% आबादी कानूनी सहायता के लिए योग्य है, लेकिन 1995 से कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत स्थापित कानूनी सेवा संस्थानों द्वारा केवल 1 करोड़ से कुछ अधिक लोगों को ही कानूनी सेवाएं और सलाह प्रदान की गई है। दिल्ली उच्च न्यायलय के अनुसार, “भारतीय संविधान के तहत ‘डिफ़ॉल्ट’ जमानत लेने का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक अपरिहार्य हिस्सा है जिसे महामारी की स्थिति के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।” कितने मामलों में इसे लागु किया जाता है ये सोचने वाली बात है l