मिलिए देश के ‘सबसे घटिया’ वित्त मंत्रियों से

किसी ने घोटाले किए, तो किसी के कारण महंगाई ने सभी रिकॉर्ड तोड़े!

वित्त मंत्री

आचार्य चाणक्य ने स्पष्ट लिखा था, “सर्वाश्च सम्पद: सर्वोपाये परिग्रहेत्”, अर्थात एक कुशल राजा का दायित्व है कि वह सभी प्रकार से अर्थात अपनी बुद्धिकौशल से सभी प्रकार की संपत्तियां प्रजा हेतु ग्रहण करे। ऐसे ही नीतियों के बल पर राजनीति और शासन पर विश्व के सबसे अनुपम रचनाओं में से एक, ‘अर्थशास्त्र’ की रचना हुई थी, परन्तु विश्व को अर्थशास्त्र सिखाने वाले इसी देश को स्वतंत्रता के पश्चात् संसाधन और अवसर होते हुए भी कुछ ऐसे वित्त मंत्री मिले, जिन्होंने हमें 1991 आते-आते अपना स्वर्ण भण्डार गिरवी रखने पर विवश कर दिया।

कभी सोने की चिड़िया बोले जाने वाला भारत 1947 तक आते-आते काफी पिछड़ चुका था। परन्तु इसके बाद भी कुछ नहीं बिगड़ा, क्योंकि भारत को जो इंफ्रास्ट्रक्चर मिला था, वह ऐसा था कि उसके बल पर वह अपने समकालीन देशों, विशेषकर चीन, कोरिया, जापान, यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया इत्यादि को भी मीलों पीछे छोड़ सकता था। तो आखिर क्या कारण था कि जो भारत निर्धन होते हुए भी कई मायनों में स्वतंत्रता के समय अनेक देशों से आगे था, वह 1991 आते-आते दिवालियेपन के क्षितिज पर आ खड़ा हुआ। इसका प्रमुख कारण है कुछ वित्त मंत्री, जिन्होंने देश को ऐसा लूटा, जिसका कोई हिसाब नहीं। आइये देखते हैं इन अवसरवादी व्यक्तियो को, जिन्होंने देश से पहले पार्टी और अपने हित को प्राथमिकता दी –

5) जॉन मथाई  –

जब आरम्भ किया ही है, तो बात भी उन्ही की करते हैं, जिन्होंने इस पूरे प्रकरण की नींव रखी है – जॉन मथाई। ये वही व्यक्ति हैं, जिनके भांजे, वर्गीज़ कुरियन ने दुग्ध क्रांति का श्रेय बटोरा था। देश के प्रथम रेलवे मंत्री होने के अलावा ये देश के प्रथम वित्त मंत्री भी थे।

पंच वर्षीय योजना का क्रियान्वयन, समाजवाद पर अत्यधिक ध्यान देना, एवं एक सशक्त इंफ्रास्ट्रक्चर के होते हुए भी भारत को अवनति के गर्त में धकेलने की नींव रखने वाले यही व्यक्ति थे। ये केवल दो वर्ष के लिए वित्त मंत्री थे, परन्तु उन दो वर्षों में उन्होंने ऐसा रायता फैलाया कि उसका दुष्परिणाम अगले  41 वर्ष भारत को भुगतना पडा। जॉन मथाई को इसलिए नहीं त्यागपत्र देना पड़ा क्योंकि उनकी अलग प्राथमिकताएं थी, अपितु इसलिए क्योंकि वे अपना पद किसी और को नहीं देना चाहते थे।

4) विश्वनाथ प्रताप सिंह–

जो दिखता है, वो होता नहीं, और जो होता, वो आवश्यक नहीं कि आपको दिखाया ही जाए। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लोग बोफोर्स घोटाला उजागर करने के लिए बहुत प्रशंसित करते हैं, और एक वित्त मंत्री के रूप में उनकी काफी प्रशंसा करते हैं। उनके बारे में चुनाव के समय एक नारा भी लगता था, “राजा नहीं फ़कीर है, देस की तकदीर है।”

परन्तु जितने मासूम वे दिखते थे, उससे कहीं अधिक कुटिल थे विश्वनाथ प्रताप सिंह। समाजवाद घोल के पीने वाले इस व्यक्ति ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई के नाम पर उद्योगपतियों का जीना हराम कर दिया था, और भारत के उदारीकरण में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक थे विश्वनाथ प्रताप सिंह। अपने आप को एक ‘कुशल वित्त मंत्री’ सिद्ध करने की जिद्द में इन्होने धीरुभाई अम्बानी तक को नहीं छोड़ा, और आखिरकार 1987 में वित्त मंत्रालय से अपने आप को हटवाकर ही माने।

3) मोरारजी रणछोड़जी देसाई –

मोरारजी देसाई के बारे में जितना बोलें, उतना ही कम पड़ेगा। ये भारतीय राजनीति के वो अनमोल रत्न हैं जिन्होंने पार्षद से लेकर प्रधानमंत्री तक हर जगह भारत की नाक कटवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारत की प्रगति और इनमें हमेशा छत्तीस का आंकडा रहा है।

वो कैसे? जब ये प्रथम बार वित्त मंत्री बने, तो भारत किसी तरह ले देके आर्थिक प्रगति की राह पर चल रहा था, परन्तु बॉम्बे में शराबबंदी का गोबर फैलाने के बाद इन्होने भारतीय अर्थव्यवस्था में भी रायता फैलाया और 1963 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में महज़ 2 प्रतिशत की वृद्धि होने लगी। तब न कोई कोरोना न था, न कोई हिंदुत्व, और न ही कोई मोदी, अब किसे दोष दोगे वामपंथियों?

इसके अलावा जब 1977 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, तो स्थिति को सुधारने के बजाये भारत को समाजवाद की आओर धकेलने में इस महोदय का योगदान अतुलनीय है। यदि भारत को 1991 में अपना स्वर्ण भण्डार गिरवी रखने पर विवश होना पड़ा, तो इसमें एक बड़ा हाथ मोरारजी देसाई का भी हाथ है, और ये तो अभी प्रारंभ है।

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2) पलानीअप्पन चिदंबरम –

पलानीअप्पन चिदंबरम इस देश पर निस्संदेह एक बहुत बड़ा कलंक थे, परन्तु एक वित्त मंत्री के रूप में भी उतने ही बड़े कलंक थे। एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की खिचड़ी सरकार में बतौर वित्त मंत्री इन्होने इस ज़िम्मेदारी को संभाला था। परन्तु इनके असली रंग तब सामने आये, जब इन्होने 2012 में पुनः वित्त मंत्रालय संभाला। तब तक प्रणब मुखर्जी ने एक बनी बनाई अर्थव्यवस्था को पुनः गर्त में गिरा दिया था।

पी चिदंबरम को कांग्रेस सरकार का ‘संकटमोचक’ बताया जाता था, परन्तु उन्होंने स्थिति को संभालने के बजाये और बिगाड़ दिया। सब्सिडी होने के बावजूद गैस सिलिंडर के दाम आसमान छूने लगे, डॉलर के मुकाबले रुपये गर्त में गिरने लगा, और पेट्रोल एवं डीज़ल की तो बात ही मत पूछिए। जब जनता इस चौतरफा महंगाई का विरोध करने लगी, तो चिदंबरम ने मानो जले पर नमक रगड़ते हुए कहा, “इनके पास मिनरल वाटर और आइसक्रीम के लिए पैसे हैं, परन्तु आटा और तेल के लिए नहीं”

1) प्रणब मुखर्जी –

यदि आपने एक काम अच्छा किया हो, तो इसका अर्थ यह नहीं कि आपके बाकी सारे कार्यों पर पर्दा पड़ जायेगा, और प्रणब मुखर्जी का जीवन इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है। चाहे इंदिरा गाँधी हो या मनमोहन सिंह, अपने निजी हित के पीछे इन्होने राष्ट्रीय हित को सदैव ताक पर रखा। भले ही इन्होने राष्ट्रपति के रूप में प्रायश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, पर एक वित्त मंत्री के रूप में प्रणब मुखर्जी इस देश पर बहुत बड़े कलंक थे।

जब आपको एक फलती-फूलती अर्थव्यवस्था उपहार में मिले, तो आपकी ज़िम्मेदारी होती है कि आप उसे शिखर तक ले जाएँ। पी चिदम्बरम ने यदि अपने प्रथम कार्यकाल में कोई बड़ा वित्तीय सुधार नहीं किया, तो कम से कम आर्थिक गतिविधियों में खलल भी नहीं डाली। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने इन दोनों ही क्षेत्रों में खूब रायता फैलाया। कभी 10 प्रतिशत के पार जाने वाली आर्थिक वृद्धि इन्ही की कृपा से 4.6 प्रतिशत तक गिर गयी। Policy Paralysis इन्ही की देन थी।

ऐसे अनेक नेता हैं, जिन्होंने विभिन्न मंत्रालयों के सहारे हमारे देश को लज्जित किया है। इन्होने हमारे देश को लज्जित करने और लूटने खसोटने में कोई कसर नहीं छोड़ी, परन्तु अब समय आ चुका है कि इनके असली चेहरों और इनकी काली करतूतों को सबके समक्ष उजागर करने का, जिसके बिना हमारे देश की प्रगति कठिन है!

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