“सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुले हैं इसकी, ये गुलिस्ताँ हमारा,
सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा”
कभी सोच सकते हैं कि जो व्यक्ति अपने देश के लिए ऐसे मधुर बोल लिख सकता है, वही अपने ही देश को रक्तरंजित करने की नींव भी रखेगा? लेकिन भेड़ की खाल में छुपे ऐसे कई भेड़िये हमारे देश में निवास करते थे, जिनका स्वभाव ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ समान था। विश्वासघात उनका स्वभाव ही नहीं, उनकी पहचान भी थी, और ऐसे ही एक विश्वासघाती थे अल्लामा मुहम्मद इक़बाल, जिन्होंने भले ही ‘तराना ए हिन्द’ के नाते ‘सारे जहां से अच्छा’ जैसे गीत दिए हों, परंतु वास्तव में उन्होंने इस देश को खंडित करने के अलावा कभी कुछ और नहीं सोचा!
मुसलमान आक्रान्ताओं के कारण इस्लाम अपना लिया था
9 नवंबर 1877 को पंजाब के सियालकोट में अल्लामा मुहम्मद इक़बाल का जन्म एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ। परंतु इनका परिवार शुद्ध रूप से मुसलमान नहीं था। इनका परिवार पूर्व में कश्मीरी हिन्दू था, जिन्होंने मुसलमान आक्रान्ताओं के कारण इस्लाम अपना लिया था। जब सिख योद्धाओं ने डोगरा राजपूतों के साथ मिलकर कश्मीर को इन आक्रान्ताओं के चंगुल से मुक्त कराया, तब इनके पूर्वजों ने पंजाब में शरण ली थी। स्वयं अल्लामा मुहम्मद इक़बाल ने अपने विचारों में इस बात को स्वीकारा था कि उनके पूर्वज वास्तव में कश्मीरी हिन्दू थे।
पढ़ाई में अल्लामा मुहम्मद इक़बाल की विशेष रुचि थी। मदरसे से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने सन् 1893 में सियालकोट के स्कॉच मिशन कॉलेज से मैट्रिकुलेशन उत्तीर्ण की, और 1899 तक पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक और परास्नातक दोनों में ही शीर्ष अंक प्राप्त किए। प्रारंभ में अल्लामा मुहम्मद इक़बाल की मित्रता स्वामी रामतीर्थ जैसे राष्ट्रवादियों से भी थी, जिनको वे रूमी की मसनावी पढ़ाते और बदले में स्वामी रामतीर्थ उन्हे संस्कृत का पाठ पढ़ाते थे। इसी समय मुहम्मद इक़बाल ने अपना चर्चित गीत संग्रह ‘तराना ए हिन्द’ रचा, जिसका एक गीत ‘सारे जहां से अच्छा’ भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक बन चुका था।
हिन्दू–मुस्लिम एकता के नाम पर निरंतर घृणा को बढ़ावा देने में लगे हुए थे
परंतु समय और लोगों को बदलते देर नहीं लगती, और मुहम्मद इकबाल के साथ भी यही हुआ। जिसके शब्दों पर लोग उनके प्रशंसक बने हुए थे, वो यूरोप यात्रा के बाद काफी बदल चुका था। प्रारंभ में वे ऑल इंडिया मुस्लिम लीग में रुचि नहीं रखते थे, परंतु जल्द ही उनके विचार भी बदलने लगे। इसकी नींव पड़ी खिलाफत आंदोलन से, जिसमें उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया, और जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना में इन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई थी। आज वही जामिया मिलिया इस्लामिया कट्टरपंथी इस्लाम का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है, जहां से CAA के विरोध में जमकर प्रदर्शन हुआ था।
लेकिन हमारे देश के तो तत्कालीन राष्ट्रवादी मानो आँखों पर पट्टी बांधकर इन भेड़ियों को बढ़ावा दे रहे थे। महात्मा गांधी ने तो अल्लामा मुहम्मद इक़बाल को जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रथम कुलपति बनने का भी प्रस्ताव दिया, लेकिन वो अलग बात थी कि इन्होंने वो प्रस्ताव ठुकरा दिया। एक तरफ विनायक दामोदर सावरकर जैसे नेता मुहम्मद इक़बाल जैसे भेड़ियों की प्रवृत्ति के प्रति जनमानस को जागरूक करने में लगे हुए थे, तो दूसरी ओर गांधी और नेहरू जैसे नेता ऐसे लोगों को हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर निरंतर बढ़ावा देने में लगे हुए थे।
भारत को विभाजन का वो घाव दिया, जो आज भी नहीं भर सका है
इस सबके बाद आखिरकार अल्लामा मुहम्मद इक़बाल ने अपने रंग दिखा ही दिए। पंजाब मुस्लिम लीग की अध्यक्षता करते समय उन्होंने एक अधिवेशन में कहा, “अब हमारे पास एक ही रास्ता बचता है। हमें [मुस्लिमों को] जिन्ना के हाथ मजबूत करने होंगे। हमें मुस्लिम लीग के साथ जुड़ना होगा। हिंदुस्तान का मसला, हमारी कौमी एकता से सुलझाया जा सकता है, जिसके सामने न अंग्रेज टिक सकेंगे, और न ही हिन्दू। इसके बिना न हमारी मांगें पूरी होंगी। लोग कहते हैं कि हम सियासत और मजहब की बातें करते हैं। ये सरासर झूठ है। हमारी मांगें हमारे अस्तित्व को लेकर है। मुस्लिम लीग ही हमें इस मुसीबत से बाहर निकाल सकती है। बिना जिन्ना के मुस्लिम लीग एक पग नहीं आगे बढ़ सकती। अब जिन्ना ही मुसलमानों का नेतृत्व कर सकते हैं!”
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इस बयान ने मानो वर्षों के रक्तपात और घृणा की राजनीति की नींव रख दी। गले की बीमारी के कारण भले ही अल्लामा मुहम्मद इक़बाल ने 21 अप्रैल 1938 को इस दुनिया को छोड़ दिया, परंतु उसके फैलाए विष ने 9 वर्ष बाद भारत को विभाजन का वो घाव दिया, जो आज भी नहीं भर सका है।