बीजिंग 2022 ओलंपिक बर्लिन के 1936 ओलंपिक से अलग नहीं होगा, और अमेरिका मूक-बधिर हो सब होने दे रहा है

आज भी कुछ बदला नहीं है, सिर्फ जर्मनी का स्थान चीन ने ले लिया है और यहूदियों के बजाये उइगर मुसलमानों पर अत्याचार होते हैं

बीजिंग शीतकालीन ओलम्पिक

कभी-कभी बुराई के विजयी होने के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्या होता है? जब अच्छाई, या समाज में सही लोग  अन्याय पर कुछ न कहें, और कुछ ऐसा ही हमें अभी देखने को मिल रहा है। जिस देश के कारण लगभग सम्पूर्ण संसार को एक वर्ष तक लॉकडाउन में बिताना पडा, जिस देश के कारण अनेक देशों को आन्तरिक सुरक्षा से लेकर आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा, उसी चीन की सेवा सुश्रुषा करने के लिए अभी भी कई वैश्विक शक्तियां तैयार है, जिनमें से एक दुर्भाग्यवश है USA – यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका। अभी हाल ही में अमेरिका ने बीजिंग में प्रस्तावित शीतकालीन ओलम्पिक का बहिष्कार करने का निर्णय किया था। परंतु इससे पहले कि आप जो बाइडन के इस निर्णय पर अभिभूत हों, पूरी खबर पढ़ लीजिये!

वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, कयास लग रहे हैं कि बीजिंग के शीतकालीन ओलम्पिक का केवल कूटनीतिक बहिष्कार होगा, यानि राजनीतिज्ञ और अन्य प्रशासक नहीं जायेंगे, परन्तु खिलाडी इसमें हिस्सा लेंगे!

ऐसे में एक बार फिर जो बाइडन के नेतृत्व में अमेरिकी प्रशासन ने सिद्ध कर दिया कि वह केवल बातों का शेर है, असल में वह कितना अकर्मण्य और कायर है, इसके लिए किसी विशेष शोध की आवश्यकता नहीं। लेकिन कहीं न कहीं अपनी इस नीति से अमेरिका बीजिंग 2022 को बर्लिन 1936 बनाने की राह पर है, जहाँ साम्राज्यवाद और तानाशाही की जयजयकार हुई थी और लोकतान्त्रिक देशों ने अपनी कायरता से सबको लज्जित किया था।

वो कैसे? बर्लिन ओलम्पिक 1936 अपने आप में एक अद्भुत दृश्य था। पहली बार ओलम्पिक खेलों का सजीव प्रसारण हुआ। ओलम्पिक मशाल को एथेंस से लेकर बर्लिन तक भव्य समारोह में पहुँचाया गया, जिससे ओलम्पिक रिले की नींव भी पड़ी। लेकिन वास्तव में ये ओलम्पिक जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर और उसके तानाशाही शासन के लिए शक्ति प्रदर्शन का मंच था, जिसका उसने बखूबी उपयोग किया।

कहने को अमेरिका और यूरोपीय देशों ने इन खेलों के बहिष्कार का निर्णय किया, लेकिन इन्ही देशों ने गाजे-बाजे के साथ अपना दल भी भेजा। अमेरिका तो जर्मनी की जी हुजूरी में ऐसा जुट गया कि उसने 4*100 मीटर रिले के दो धावकों, मार्टी ग्लिकमैन और सैम स्टॉलर को अंतिम समय पर भाग लेने से सिर्फ इसलिए रोक दिया, क्योंकि वे दोनों यहूदी थे, और हिटलर के नाज़ी पार्टी प्रशासन को यहूदियों से सख्त घृणा थी। उन्होंने तो अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी से यहूदियों पर प्रतिबन्ध लगवाने की याचिका तक दायर कर दी थी।

उन दोनों के स्थान पर प्रसिद्द धावक जेसी ओवेन्स और राल्फ मेटकाफ को दौड़ाया गया। रोचक बात यह थी कि अमेरिकी ओलम्पिक कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष एवरी ब्रन्डेज थे, जिन्होंने 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में इजराएल के एथलीटों के अपहरण और उनकी जघन्य हत्या के बाद भी निंदा तो दूर, शोक सभा तक आयोजित नहीं होने दी और इसी कारण से उन्हें ओलम्पिक के बाद अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र भी देना पड़ा

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तो इन सबका वर्तमान परिस्थितियों से क्या नाता है? आज भी कुछ बदला नहीं है, सिवाय इसके कि अब जर्मनी का स्थान चीन ने ले लिया है और यहूदियों के बजाये उइगर मुसलमानों पर अत्याचार होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को लेकर जापान और भारत से उसका विवाद सर्वविदित है। लेकिन अमेरिका की स्थिति जस की तस है। वह तब भी उतना ही भीरु था, और आज भी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

ऐसे में जिस प्रकार से बाइडन प्रशासन के नेतृत्व में अमेरिका ने सिद्ध किया है कि वह केवल बीजिंग के विंटर ओलम्पिक का कूटनीतिक बहिष्कार करेगा, वह अपने आप में इसे प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि कैसे अमेरिका वास्तव में अब वो महाशक्ति नहीं है, जिसके नाम पर वह आज तक दंभ भरता रहा है। वह केवल ऊँची ऊँची हांकने वाला देश है, जो धरातल पर कार्य करने से जी चुराता है।

 

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