भारतीय राजनीति के तीन रोग- जातिवाद, वंशवाद और मूर्ख लोग। अब जनता मूर्ख है या धूर्त, इस बात पर थोड़ा संदेह इसलिए भी है क्योंकि जातिवाद और वंशवाद को बढ़ावा देने का कार्य सिर्फ इन्हीं दो प्रजाति के लोग ही कर सकते हैं। परंतु, इन्हीं दोनों में से ही कोई है, यह निश्चित है। दासत्व और निजी स्वार्थ में यह जनता इतनी लिप्त है कि लोकतंत्र उसे राजतंत्र और जनसेवक उसे राजकुमार लगते हैं। प्रजातंत्र गया तेल लेने और विचार गई राजनीति के गटर में। समाजवाद अब महंगी गाड़ियों से उतरता है। महंगा काफिला लेकर चलता है। जातिवाद के समीकरण बनाता है। जनता को बोतल दिलाता है, छल और बल से मत पाता है। लोकतंत्र रौंदा जाता है।
फरवरी-मार्च 2022 में उत्तर प्रदेश की आगामी विधानसभा चुनाव होंगे। सभी दल अपनी-अपनी जातियों को साधने में जुट गए हैं। जनता किस कुल और वंश के राजकुमार के दासत्व को स्वीकार करेगी, यह चुनाव उसका भी परीक्षण है।
जनता भाग्य विधता नहीं, दलों की दासी
वैसे दासत्व स्वीकार करने के मामले में जनता का हृदय अत्यंत उदार रहा है। जनता ने इसे तब स्वीकार किया जब अभियांत्रिकी की पढ़ाई पूरी कर एक राजकुमार उत्तर प्रदेश पहुंचा। उत्तरप्रदेश के सिंहासन पर बैठने की हठ कर बैठा। प्रौढता, समझ और अनुभव की कमी के बावजूद भी उसे देश के सबसे बड़े राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया गया। कुछ समय पश्चात उसने निशकंटक और निरंकुश राज हेतु अपने “अब्बाजान” का तख्ता पलट दिया। सब कुछ बिल्कुल पुराने जमाने के राजशाही की तरह चल रहा था। जनता के मत, नियत, आदर्श, अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का कोई मोल नहीं था। चाचा जान को भतीजे का यह तख्तापलट पसंद नहीं आया। अतः उन्होंने जनता को मूर्ख बनाते हुए प्रगतिशील समाजवादी पार्टी नाम से अपना एक अलग दल बना लिया।
चाचा जान को भतीजे के इस कुकृत्य से कोई परेशानी नहीं थी। उनका तो बस एक छोटा-सा सपना था। सपना उत्तर प्रदेश की जनता के भविष्य और विकास का नहीं बल्कि अपने बेटे आदित्य के उज्जवल भविष्य और राजनीतिक हिस्सेदारी का। अतः, दल और राजनीति को अपनी जागीर समझने वाले इन सत्ताधीशों ने दल का पारिवारिक बंटवारा कर दिया। वैसे ही जैसे एक मध्यम वर्गीय परिवार में, घर का होता है।
जातीय समीकरण और चाचाजान से गठबंधन
इस बंटवारे से मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश और शिवपाल सिंह यादव के सुपुत्र आदित्य का भविष्य सुनिश्चित हो गया। अब दोनों समाजवादी पार्टी में बराबर की हिस्सेदारी के योग्य हो गए। परंतु, हिस्सेदारी प्राप्त करने का अवसर तो तभी मिलेगा, जब वो सत्ता पर काबिज होंगे। यह सारे छुटपुटिया दल सेवा और विकास को राजनीतिक जीत का आधार नहीं मानते। उनका ध्यान विकास केंद्रित कम ही रहता है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी चुनाव से पूर्व गठबंधन कर जातीय समीकरण बनाने में जुट गई है। इसी कड़ी में पिछड़े वर्ग को अपने साथ लाने के लिए उन्होंने ओम प्रकाश राजभर के साथ मऊ जनसभा में गठबंधन की घोषणा की। मल्लाहों की भारत माता पार्टी और किसान आंदोलन को भुनाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल को भी मिला लिया गया है।
अब इसी कड़ी में अगला नाम चाचा जान शिवपाल का है। शिवपाल भी भतीजे के वियोग में मरे जा रहे हैं। दरअसल, यह वियोग नहीं बल्कि राजनीतिक परजीवी ऐसे उपायों का प्रयोग कर एक-दूसरे के साथ समन्वय स्थापित कर अपना अस्तित्व बचाए रखते हैं। जनता पुनः छली जाती है क्योंकि वह तो इसे भारत मिलाप समझती है।
चाचा जान ने कहा है कि अगर समाजवादी पार्टी में उनको उचित सम्मान मिले और उनके बच्चे का राजनीतिक भविष्य सुनिश्चित किया जाए तो वह न सिर्फ गठबंधन के लिए तैयार हैं बल्कि समाजवादी पार्टी में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का विलय भी कर देंगे।
कितना घृणित और लज्जाजनक है यह वाक्य। जो व्यक्ति या दल जनता की सेवा के नाम पर चुनाव लड़ता है, जनता की उम्मीदों को मत के रूप में प्राप्त करता है, उसके सपनों, महत्वकांक्षाओं और अपेक्षाओं में जनता के विकास की जगह पुत्र का भविष्य है। कयास है की समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव के जन्म दिवस के दिन चाचा-भतीजा एक हो जाएं।
मायावती भाजपा की ओर
अब प्रश्न यह है कि आखिर इस भरत मिलाप के बाद बुआ का क्या होगा? मायावती व्यथित हैं और इस समय दुखित और विचलित भी। 2019 में अखिलेश के साथ गठबंधन से उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। पार्टी निरंतर पतन उन्मुख होती चली गई। सामाजिक अभियांत्रिकी को अपनी राजनीतिक ताकत समझने वाली मायावती को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि अपने पार्टी के अंदर बगावत विरोध सामाजिक और जातीय समीकरण कैसे साधें? आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10% आरक्षण का अधिकार देने के कारण सारे भगवा पाले में चले गए हैं। अन्य पिछड़ा वर्गों के विस्तार और कल्याण के कारण उन्होंने भी भगवा दामन थाम लिया है। भारतीय गणराज्य और न्याय व्यवस्था के उच्चतम शिखर पर दलितों को आसीन करने के कारण कुछ हद तक वह भी भाजपा के पाले में है। जो थोड़े बहुत बचते हैं उसमें भी ओमप्रकाश राजभर, निषाद, अजय कुमार लल्लू और अन्य क्षत्रपों के बीच बड़ी कर्कश प्रतिस्पर्धा है।
मायावती ने अपने पार्टी के कार्यकारिणी दल के नेता को एक दो बार नहीं बल्कि 5 बार परिवर्तित कर चुकी है। इसी से आप उनके उधेड़बुन का अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे में भाजपा उन्हें स्वाभाविक सहयोगी लग रही है। वैसे भी गेस्ट हाउस कांड में समाजवादी गुंडों द्वारा उनके इज्जत को तार तार करना और एक संघी द्वारा उनका रक्षण किया जाना, उन्हें विस्तृत नहीं हुआ है।
आप भारत के भाग्य विधाता है। भविष्य निर्माता हैं। सर्वप्रथम आप भारत के हैं और भारत जी आपके लिए सर्वोच्च होना चाहिए। जाति कभी प्राथमिक नहीं हो सकती। परंतु, जाति के लिए दिया गया आपका मत इसे आज की राजनीति में प्रासंगिक कर देता है और इसके लिए आप ही उत्तरदाई हैं। लोकतंत्र का अर्थ जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए है न की एक कुल का जनता के द्वारा राजकुमार और उत्तराधिकार का चुना जाना है। निसंदेह मायावती अगर भाजपा से गठबंधन करेगी तो इससे भाजपा को राजनीतिक लाभ होगा। मुलायम परिवार को समाजवाद की हत्या और जातिवाद का विषबेल बोने का प्रतिफल प्राप्त होगा। भाजपा और भारतीय राजनीति यह दोनों के लिए सुखद है।