हट BC, भोसड़ी के, मादरचोद! अरे घबड़ाइये नहीं, हम आपको गाली नहीं दे रहे हैं बल्कि यह बता रहे हैं कि अगर आपने हाल ही की कुछ फिल्मों और वेबसीरिज को देखा है तो आपने देखा होगा कि यह सारे शब्द धीरे-धीरे न्यू नार्मल होते जा रहे हैं।
एक समय में हमारी फिल्मों में गालियों के लिए स्थान लगभाग ना के बराबर होता था। बहुत ही कम गालियाँ सुनाई पड़ती थी लेकिन आज फिल्म हो या OTT, हर जगह मादरचोद, बहनचोद जैसी गालियां भर-भर के दी जा रही है। इनके बिना तो किसी प्रोजेक्ट का बनाना लगभग असंभव है!
इस नए कलात्मक अभिरुचि के पीछे क्या कारण है? यह किसी को नहीं पता है किंतु यह कहा जा सकता है कि सीधे-सीधे हॉलीवुड को कॉपी करने के चक्कर में ऐसा लगातार हो रहा है और इसे बढ़ावा मिल रहा है। हॉलीवुड हो या कोई भी सिनेमा हो, वो अपनी संस्कृति से प्रभावित होता है। मार्टिन स्कोरसेसे, अल पचीनो, रोबर्ट दी नीरो मूलतः इटली के हैं और आप उनके फिल्मों में वहां का प्रभाव देख रहे हैं।
खुद भारत के दक्षिणी भाग के सिनेमा को ले लीजिए। शिवाजी गणेशन, मोहनलाल, रजनीकांत या कोई भी बड़ा साउथ का अभिनेता हो, वह अपने लोक संस्कृति से प्रभावित होकर फिल्में बनाते हैं लेकिन बॉलीवुड ऐसा नहीं करता है।
चूंकि बॉलीवुड के पास बढ़िया पटकथा लेखक, कहानियां नहीं है तो यहां अश्लीलता को हर फिल्म का USP बनाकर बेचा जाता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण लोगों का ध्यान आकर्षित करना है। खुद अभिनेता मनोज वाजपेयी इस चीज को गलत मानते हैं।
अभिनेता मनोज बाजपेयी ने हाल ही में IANS से कहा, “वेबस्पेस आपको बहुत अधिक स्वतंत्रता देता है और इसलिए स्वतंत्रता के प्रति बहुत जिम्मेदार होने की जरूरत है। सिर्फ आंखों को आकर्षित करने के लिए सेक्स और हिंसा का इस्तेमाल करना एक ऐसी चीज है जिससे मैं सहमत नहीं हूं, जबकि इसकी जरूरत भी नहीं है।”
अमेज़ॅन प्राइम के “4 मोर शॉट्स प्लीज” अपने आकर्षक नाम, खराब परिभाषित पात्रों और नकली उच्चारण वाले पात्रों के साथ “उड़ा दे टट्टे पे लात” और “पुरुषों और कंडोम के बीच का अंतर यह है कि कंडोम बदल गए हैं अब वह मोटे और असंवेदनशील नहीं” जैसे संवाद के कारण ही प्रसिद्ध हुई।
शो ऐसे संवादों का उपयोग करके दर्शकों को आकर्षित करने की कोशिश करता है, जो अनावश्यक हैं। यौन मुक्ति नारीवाद का एक हिस्सा है लेकिन नारीवाद इससे कहीं अधिक है।
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अगर आपको लगता है कि इसका प्रभाव नहीं पड़ता तो जाकर किसी 12 साल के बच्चों से सेक्रेड गेम्स और डेली बेल्ली का डायलॉग सुनिए। वो एक अलग जोश के साथ डायलॉग बोलता है। खुद मेरी बात सुनिए, जिंदगी का एक वक्त था कि फिल्मों में, टीवी पर अगर लोग चूम लेते थे तो मैं शरमा जाता था लेकिन अब मैं इन सब के प्रति असंवेदनशील हूँ। हिंसा और खून के प्रति लोगों की सहनशीलता खतरनाक रूप से बढ़ी है। वास्तविक जीवन के प्रभावों में लोगों का दूसरों के दर्द और पीड़ा के प्रति अधिक आक्रामक और असंगत होना शामिल हो सकता है।
IIM अहमदाबाद के प्रोफेसर धीरज शर्मा और उनकी टीम द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 150 से अधिक स्कूलों में, 94% छात्रों का मानना है कि बॉलीवुड का रूढ़िबद्ध प्रतिनिधित्व प्रामाणिक है। वे 94% युवा दिमाग मानते हैं कि बॉलीवुड जो कुछ भी दिखाता है वह सच है और हमारे इतिहास का हिस्सा था।
बॉलीवुड सच दिखाने के बजाय एक वैकल्पिक वास्तविकता बनाने की कोशिश कर रहा है। प्रोफेसर धीरज शर्मा द्वारा किए गए शोध में, जहां उन्होंने 1950 से 2010 के शो में फिल्मों को शामिल किया- 74% फिल्मों में, सिख को हंसने वाला पात्र बताया गया था। 58% फिल्मों में, भ्रष्ट राजनेता हिंदू ब्राह्मण उपनाम साझा करता हैं। 62% भ्रष्ट व्यापारियों में वैश्य उपनाम वाले लोग है । इसके विपरीत, 84% फिल्में दिखाती हैं कि मुसलमान गहरे धार्मिक और ईमानदार लोग हैं।
सिनेमा के रास्ते ‘डेली बेली’ ने और OTT में ‘सेक्रेड गेम्स’ ने इस ट्रेंड को बढ़ावा दिया था। अब हर जग केवल गालियां सुनाई देती है। ये चीज हमारे घर के बच्चों से लेकर बूढों तक पर प्रभाव डालती है। जब हम असहज हो जाते हैं तो वो तो फिर भी बच्चे हैं। कब ये चीजें भारतीय सिनेमा में न्यू नार्मल हो गई! ये तो नहीं पता लेकिन अगर इन्हें ना रोका गया तो यह चीज बर्बाद करने के काफी हैं।