कांग्रेस के नेताओं का एक ही गुरुवाक्य है, ‘प्राण जाए पर चाटुकारिता न जाए’, और जयराम रमेश उन्हीं में से एक है। जल्द ही देश के सबसे ऐतिहासिक विजयों में से एक, 1971 के भारत-पाक युद्ध के स्वर्णिम वर्षगांठ यानी 50 वर्ष पूरे होने वाले हैं। इसी बीच केंद्र सरकार में पूर्व पर्यावरण मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक पुस्तक में ये कहकर विवाद खड़ा कर दिया कि यदि 1971 युद्ध के विजयश्री का कोई वास्तव में अधिकारी है, तो वह वास्तव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी है, और सेनाध्यक्ष सैम मानेकशॉ की भूमिका सीमित थी।
अपनी पुस्तक ‘Intertwined Lives: P N Haksar And Indira Gandhi` में उन्होंने इस बात को रेखांकित करने का प्रयास किया कि कैसे इंदिरा गांधी के प्रयासों से ही भारत को 1971 में विजय मिली। लेकिन वे अकेले नहीं थे। राजनयिक चंद्रशेखर दासगुप्ता भी अपनी पुस्तक ‘India and the Bangladesh Liberation War : The Definitive Story में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का उपहास उड़ाने का प्रयास किया है, जिनका प्रत्युत्तर प्रख्यात सैन्य इतिहासकार, पूर्व वायुसेना अफसर अर्जुन सुब्रह्मण्यम ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए लिखे लेख में बेहतरीन तरीके से दिया है। उन्होंने बताया कि “जयराम रमेश और चंद्रशेखर दासगुप्ता ने जिन दो लोगों की मदद से सैम मानेकशॉ की भूमिका सीमित करने की कोशिश की गई उन्हें अर्जुन सुब्रह्मण्यम ने इंदिरा गांधी के ‘स्पिन डॉक्टर’ यानी क्रेडिट चोर की संज्ञा तक दे डाली!”
वास्तव में 1971 के युद्ध में क्या थी इंदिरा गांधी की भूमिका?
“अगर अब भी आप चाहती हैं कि हम ईस्ट पाकिस्तान में दाखिल हों, तो मैं आपको शत प्रतिशत गारंटी देता हूं हार की!”
ये शब्द थे तत्कालीन भारतीय थलसेना के अध्यक्ष, जनरल सैम मानेकशॉ के, जिन्होंने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की चिंता का सैन्य समाधान निकालने के विषय पर अपने विचार स्पष्ट रखे थे। जनरल मानेकशॉ ने तब त्यागपत्र देने का प्रस्ताव रखा तो इंदिरा गांधी ने उन्हें शांत कराकर उनसे वास्तविकता पूछी। जनरल सैम ने स्पष्ट कहा, “मेरा काम है जीतने के लिए लड़ना, हारने के लिए नहीं। अगर लड़ाई के लिए उचित समय दिया गया, तो विजय हमारी ही होगी!”
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इस लड़ाई में जनरल मानेकशॉ अकेले नहीं थे। उनकी योजना को धरातल पर लागू करने का बीड़ा उठाया लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह राठौड़ ने। जनरल सगत सिंह राठौड़ ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में अगरतला सेक्टर की तरफ से हमला बोला था और अपनी सेना को लेकर आगे बढ़ते रहे। जनरल अरोड़ा ने उन्हें मेघना नदी पार नहीं करने का आदेश दिया, लेकिन हेलिकॉप्टरों की मदद से चार किलोमीटर चौड़ी मेघना नदी को पार कर उन्होंने पूरी ब्रिगेड उतार दी और आगे बढ़ गए। जनरल सगत सिंह ने अपने मित्र जो कि बाद में एयर वाइस मार्शल बने, चंदन सिंह राठौड़ की मदद से इस असंभव लगने वाले काम को अंजाम दिया था।
स्वयं पीएम इंदिरा गांधी हैरत में पड़ गयी थीं कि भारतीय सेना इतनी जल्दी ढाका कैसे पहुंच गई। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सेना के ढाका में प्रवेश करने की प्लानिंग सेना और सरकार के स्तर पर बनी ही नहीं थी, जबकि सगत सिंह ने उसे अंजाम भी दे दिया। जनरल सगत के नेतृत्व में भारतीय सेना ने ढाका को घेर लिया और जनरल नियाजी को आत्मसमर्पण का संदेश भेजा। इसके बाद 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण और बांग्लादेश का उदय अपने आप में इतिहास बन गया।
सैन्य इतिहासकर मानते हैं सैम मानेकशॉ और JFR जैकब की भूमिका
अधिकांश सैन्य इतिहास 1971 की जीत में सैम मानेकशॉ और JFR जैकब (पूर्वी कमान के प्रमुख) द्वारा निभाई गई प्रमुख भूमिका को मानते हैं और कांग्रेस के इतिहासकारों द्वारा उनकी बहादुरी और योगदान को कम करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी की भूमिका राजनीतिक समर्थन तक सीमित थी।
हालांकि, इसमें भी जनरल सगत को कोई श्रेय नहीं मिला, चूँकि जिस पी एन हक्सर और पी एन धर के हवाले से जयराम रमेश जनरल मानेकशॉ के योगदान को कमतर आंकने का प्रयास कर रहे थे, उन्हीं की कृपा से इंदिरा गांधी को अनुचित क्रेडिट दिया गया, जैसे कुछ लोग हैदराबाद और गोवा की स्वतंत्रता हेतु जवाहरलाल नेहरु को देना चाहते थे, जबकि वास्तव में इसके लिए भारतीय सेना को एड़ी चोटी का जोर लगाना पडा था। एक समय जैसे कांग्रेस के ‘स्पिन डॉक्टर’ अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में ये असत्य फैलाने में सफल रहे थे कि उन्होंने इंदिरा गांधी को दुर्गा का दर्जा दिया था, वैसे ही अब वे इंदिरा गांधी को 1971 की विजय का श्रेय देना चाहते हैं, लेकिन उनकी भूमिका 1971 के विजय में उतनी ही है, जितना 1983 के विश्व कप विजय में सुनील गावस्कर की और नीरज चोपड़ा के ओलम्पिक स्वर्ण पदक में जवाहरलाल नेहरू की।