कभी दक्षिणपंथी बौद्धिकता को धार देने वाले अरुण शौरी का पतन दयनीय है

जिन्होंने हिन्दू इकोसिस्टम को बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई थी, वही अब दक्षिणपंथ-विरोधी बन गए हैं!

अरुण शौरी दक्षिण पंथ

21 वीं सदी की शुरुआत में लोकप्रिय रूप से मुख्य हिंदू राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों में शामिल अरुण शौरी को एक ऐसे लेखक और पत्रकार के रूप में जाना जाता है जिन्होंने हिन्दू इकोसिस्टम को बनाने में केंद्रीय भूमिका निभाई थी। उदाहरण के लिए, वामपंथी विचारकों पर उन्हीं के हथियार यानि बौद्धिकता से हमलों के अलावा इस्लाम और ईसाइयत पर आँखें खोल देने वाली किताब के साथ-साथ मिशनरियों के वास्तविक एजेंडे पर वह बहुत पहले किताब लिख चुके हैं। हालांकि, जिस अरुण शौरी से हम परिचित हैं, जिनके शब्दों ने वामपंथी बौद्धिकों में हाहाकार मचा दिया था, आज उनकी स्थिति भिन्न है। आज वो मोदी सरकार के इतने बड़े आलोचक बन चुके हैं कि उन्होंने प्रशांत भूषण जैसे वामपंथी से हाथ मिला लिया है। अगर अरुण शौरी चाहते तो आज वे भारतीय दक्षिण पंथ के Roger Scruton होते।

कौन हैं अरुण शौरी?

2 नवम्बर 1941 में जन्मे अरुण शौरी ने Syracuse University से अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल की। उसके कुछ ही समय बाद शौरी साल 1967 में एक अर्थशास्त्री के रूप में विश्व बैंक में शामिल हो गए, जहाँ उन्होंने 10 से अधिक वर्षों तक काम किया। साथ ही, साल 1972-74 के बीच, वे भारतीय योजना आयोग के सलाहकार भी रहे और इसी समय के आसपास उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए एक पत्रकार के रूप में लेख लिखना शुरू किया था। ठीक यहीं से अरुण शौरी के कलम की शौर्य यात्रा आरम्भ हुई थी ।

वर्ष 1975 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान,अरुण शौरी ने नागरिक स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखे जाने के विरोध में इंडियन एक्सप्रेस के लिए लिखना शुरू किया। तब रामनाथ गोयनका के स्वामित्व वाले अखबार ने इंदिरा गांधी की नाक में दम कर रखा था और वो सरकार विरोधी आंदोलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु बना हुआ था।

हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन के सबसे प्रमुख विचारकों में से एक हैं अरुण शौरी

जनवरी 1979 में, गोयनका ने शौरी को अखबार के कार्यकारी संपादक के रूप में नियुक्त किया और उन्हें खुली छूट दी कि वो चाहे जो लिख सकते हैं। उन्होंने एक प्रखर और निडर लेखक तथा संपादक के रूप में अपनी धाक जमाई। उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया, भ्रष्टाचार को उजागर किया और नागरिक स्वतंत्रता का बचाव किया। यह उनकी कलम का शौर्य ही था कि शौरी को वर्ष 1982 में पत्रकारिता में एशिया का नोबेल कहे जाने वाले रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से नवाजा गया।

शौरी उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 पर आपत्ति जताई थी, जिसे राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा सांप्रदायिक हिंसा को कम करने और मुस्लिम वोट बैंक के लिए लाया था।  इसी दौरान राम जन्मभूमि आंदोलन भी आरंभ हो चुका था तथा भारतीय जनसंघ अस्तित्व में आ चुकी थी।

1990 के दशक के अंत में जब भाजपा सत्ता में आई तब भी प्रमुख पत्रकारों और दक्षिण पंथ के बुद्धिजीवियों जैसे स्वपन दासगुप्ता, कंचन गुप्ता और अशोक मलिक के साथ-साथ अरुण शौरी ने पहले से स्थापित वामपंथी बौद्धिक जगत में वैकल्पिक(राष्ट्रवादी) आवाजों का नेतृत्व किया।

अरुण शौरी हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन के सबसे प्रमुख विचारकों में से एक रहे हैं। एक बात जो उन्हें साहसी बनाती है, वह यह है कि उन्होंने पत्रकारिता में पूरी तरह से अलग रुख अपनाया। कौन सोच सकता था कि कोई ऐसा संपादक होगा जो इंडियन एक्सप्रेस में लेखों की एक श्रृंखला के रूप में Hindu Temples – What Happened to Them जैसी पूरी किताब प्रकाशित करने का साहस करेगा, वह भी उस जमाने में?

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अपनी लेखनी से कई वामपंथी बुद्धिजीवियों को एक्सपोज किया

अपने प्रखर पत्रकारिता के दिनों से ही अरुण शौरी ने किताबें लिखनी शुरू कर दी थी जो आज दक्षिण पंथ के लिए आरंभिक पुस्तकें बन चुकी हैं। उनकी किताबों में वो धार थी जिससे उन्होंने वामपंथी ब्रिगेड के अंत को उनके ही हथियार से ढूंढ निकाला था। अपनी किताब Eminent Historians: Their Technology, Their Line, Their Fraud में शौरी ने भारत के प्रसिद्ध, वामपंथी झुकाव वाले प्रख्यात इतिहासकारों की धोखाधड़ी का पर्दाफाश कर उन्हें तार-तार किया है। इस किताब में उन्होंने न केवल वित्तीय धोखाधड़ी बल्कि उन इतिहासकारों के नैतिक धोखाधड़ी पर भी प्रकाश डाला है। यही नहीं इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू आबादी पर इस्लामी आक्रमणकारियों के अत्याचारों को कम करके दिखाने और AIT के खिलाफ पुख्ता सबूत के बावजूद आर्य आक्रमण सिद्धांत को जारी रखने के लिए भी वामपंथी इतिहासकारों को जम कर लताड़ा है।

इस पुस्तक में उन्होंने इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर, बिपन चंद्रा और सतीश चंद्र जैसे बड़े वामपंथी बुद्धिजीवियों को बेहतरीन तरीके से एक्सपोज किया है। शौरी ने दरबारी इतिहासकारों के प्रोपेगेंडा को उजागर करते हुए बताया है कि कैसे हजारों हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया और काफिरों के साथ ऐसा करने के लिए इन इतिहासकारों ने औरंगजेब जैसे अक्रांताओं की प्रशंसा की है।

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वहीं Harvesting Our Souls: Missionaries, Their Designs, Their Claims किताब में शौरी ने बताया है कि कैसे मिशनरी केवल अपने धर्म को बढ़ाने में रुचि रखते हैं।  समानता और समतावाद का वादा इसी एकमात्र उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए केवल आवरण है। उनकी एक और किताब है Only Fatherland: Communists, Quit India And The Soviet Union जिसमें शौरी ने भारत में बैठे कम्युनिस्टों के बारे में बताया है। उन्होंने लिखा है कि भारत में कम्युनिस्ट कैसे सुविधाजनक वैचारिक स्थिति लेते हैं, राष्ट्रीय हित को कम करते हैं और फिर शब्द जाल के पीछे छिप जाते हैं।

कम्युनिस्ट अपने विरोधियों के खिलाफ “मौखिक आतंकवाद” का उपयोग करके बदनाम करते हैं, जो आज भी वामपंथियों का तौर-तरीका है।  इस पुस्तक के माध्यम से, शौरी हमें बताते हैं कि उनका मुकाबला कैसे किया जा सकता है, और साथ ही वह देश में एक बेहतर  और मुखर दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र की आवश्यकता के लिए प्रेरित करते हैं।

उन्होंने पुनरुत्थानवादी हिंदी आंदोलन का बचाव करते हुए हर उस तत्व की आलोचना की, जो मुख्य रूप से भारतीय धर्मनिरपेक्षों के लिए प्रिय था जैसे इस्लाम, मार्क्सवाद, ईसाई धर्म और अम्बेडकर।

कभी बीजेपी के साथ गहरे संबंध थे अब आलोचक बन गए हैं अरुण शौरी

 ऐसे में बीजेपी के साथ उनके संबंध में गहराई सामान्य बात थी। उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से राज्यसभा में लगातार दो कार्यकालों के लिए भाजपा प्रतिनिधि के रूप में नामित किया गया था। इस प्रकार वह वर्ष 1998-2004 और वर्ष 2004-2010 के लिए संसद सदस्य रहे। उन्होंने वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत सरकार में विनिवेश, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री का पद संभाला। विनिवेश मंत्री के रूप में, उन्होंने मारुति, वीएसएनएल, हिंदुस्तान जिंक की बिक्री का नेतृत्व किया। परंतु जैसे-जैसे समय बदलता गया और भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ, तब वे अपने आप को राजनीति में प्रासंगिक रखने का प्रयास करने लगे और इसी प्रयास में वे नरेंद्र मोदी के साथ-साथ भाजपा के आलोचक बन गए। वास्तव में, वह भाजपा के कठोर आलोचक रहें हैं और अक्सर राफेल सौदे में पीएम मोदी पर आरोप लगाते रहे हैं।

राफेल सौदे को लेकर मोदी सरकार को घेरने के अपने अथक प्रयासों में उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण से भी हाथ मिलाया था। सिन्हा और भूषण के साथ, अरुण शौरी ने शुरू से ही राफेल सौदे को लेकर पीएम मोदी पर निशाना साधा, बिना किसी सबूत के उन दावों का समर्थन किया। यह बात पुरे देश को पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को क्लीन चिट दे दी थी बावजूद इसके उन्होंने अपना राग अलापना नहीं छोड़ा।

दक्षिण पंथ आंदोलन के प्रमुख बुद्धिजीवी अरुण शौरी का पतन हो रहा है

वास्तव में उस नेता के लिए यह पतन ही था जिसने अतीत में दक्षिण पंथ आंदोलन के बौद्धिक अन्वेषण की शुरुआत की थी, जिसने द वर्ल्ड ऑफ फतवा: द शरिया इन एक्शन, Hindu Temples – What Happened to Them Vol.-I जैसी किताबें लिखी थीं। उनके बारे में सतीश वर्मा ने लिखा है कि, अरुण शौरी एक नायक थे लेकिन अपने जीवन में ही वे खलनायक बन चुके हैं। मैं अभी भी नहीं समझ सकता कि कैसे वह सार्वजनिक रूप से ममता बनर्जी कोबंगाल की शेरनीकह सकते। हालांकि, इंसान हमेशा एक रहस्य रहा है और अरुण शौरी इसका कोई अपवाद नहीं हैं।

उन्होंने जीवन भर जिन लोगों का विरोध किया, उनको एकजुटता के साथ खड़े देखना उस व्यक्ति के पतन का प्रमाण है।  उनकी कहानी अधिकांश लोगों के लिए एक सीखने का सबक बन चुकी है। 2014 से पहले लिखी गई उनकी किताबों को पढ़ने से मालूम होता है कि, उन्होंने इतिहासकारों, मिशनरियों और अन्य लोगों पर नियमित रूप से कटाक्ष किया है जो लोकप्रिय विषयों पर विपरीत विचार वाले मनमस्तिष्क को झकझोर देते हैं।

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