हाल ही में, टीपू सुल्तान के जन्मदिवस के अवसर पर सोशल मीडिया पर बवाल मच गया, जब एक कांग्रेस नेता ने उसकी एक फोटो सोशल मीडिया पर शेयर की। क्रांतिकारी सुल्तान फ़तेह अली खान उर्फ़ टीपू सुल्तान की ये फोटो इसलिए भी विवादित थी क्योंकि वह फोटोशॉप का प्रत्यक्ष प्रमाण थी, जबकि वास्तव में मूल रूप से फोटो प्रख्यात योद्धा एवं हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक, छत्रपति शिवाजी राजे महाराज की थी।
परन्तु क्या मैसूर का सुल्तान फ़तेह अली खान उर्फ़ टीपू सुल्तान वास्तव में उतना वीर और क्रांतिकारी है, जितना क्रांतिकारी उसे बताया जाता है? क्या टीपू वास्तव में ‘शाह ए शहीदां’ यानी हुतात्मा शिरोमणि कहलाने योग्य है, जैसा इनके अनन्य चाटुकार कहते आए हैं? इसके लिए हमें इतिहास की गहराइयों में जाना होगा और आपको पहले बता दें कि सत्य कभी भी चाशनी में डूबा हुआ गुलाब जामुन नहीं रहा है।
अनेक बार टीपू सुल्तान ने मुंह की खाई थी
टीपू सुल्तान मैसूर के इस्लामिक शासन के संस्थापक हैदर अली का पुत्र था। इसका वास्तविक नाम था सुल्तान फ़तेह अली खान। निस्संदेह, आर्टिलरी के क्षेत्र में इन्होंने कुछ नवीन प्रयोग किए थे, परन्तु इनका योगदान देश के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भारत के तकनीकी विकास में राजीव गाँधी का है।
अब जब बात मराठा की उठी ही है, तो टीपू सुल्तान की वास्तविकता भी उजागर करते हैं। वामपंथी इतिहासकारों के दावों के ठीक विपरीत टीपू सुल्तान एक भीरु और भगोड़ा सैनिक था, जो दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रखकर अपने आप को बड़ा योद्धा समझते था। लेकिन इसकी हवा प्रारंभ में ही एक ऐसे योद्धा ने निकाल दी थी, जो एक नहीं, सैकड़ों मोर्चों पर जूझ रहे थे। जिसके सर पर अखंड भारत की पुनर्स्थापना का भार था। जिसपर अपने ही बागी काका से युद्ध करने का धर्मसंकट खड़ा था। जिसे भारत को रूहिल्ला, अफगान, निज़ाम शाही [मुग़ल] और अंग्रेजों के चौतरफा संकट से बचाना था और जो स्वयं क्षय रोग से पीड़ित था, उस पेशवा माधवराव से एक नहीं, अपितु अनेक बार टीपू सुल्तान ने मुंह की खाई थी।
युद्धभूमि से भाग जाता था टीपू सुल्तान
चाणक्य नीति में ये भी लिखा गया है कि “आवश्यकता पड़ने पर शत्रु को भी मित्र बनाना चाहिए।“ पेशवा माधवराव भट्ट ने सभी को चकित करते हुए हैदराबाद के निज़ाम की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया परंतु उसके पीछे की मंशा स्पष्ट थी। वे न तो मैसूर के विष को अत्यधिक बढ़ने देना चाहते थे और ना ही ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव को बढ़ने देना चाहते थे।
जब मैसूर पर उन्होंने आक्रमण किया था, तो उनका सामना हैदर के आक्रामक पुत्र फतेह अली से भी हुआ, जिसे आज वामपंथी इतिहासकार सुल्तान फ़तेह अली खान के नाम से महिमामंडित करते हैं। जिस टीपू सुल्तान का इतना महिमामंडन किया जाता है, वह तो मराठा सेना के समक्ष टिक ही नहीं पाया एवं कायरों की भांति पीठ दिखाकर युद्धभूमि से भाग गया था। तीन बार मैसूर और हिंदवी स्वराज्य की सेनाओं की भिड़ंत हुई और तीनों बार हिंदवी स्वराज्य की विजय हुई।
टीपू सुल्तान केवल बातों का शेर था
लेकिन पेशवा माधवराव की असामयिक मृत्यु के पश्चात भी यह कारनामा ख़त्म नहीं हुआ। हिन्दवी स्वराज्य के अंतिम प्रभावशाली योद्धा महादजी शिंदे के नेतृत्व में मराठा सेना ने मैसूर सल्तनत के लड़ाकों को गजेंद्रगढ़ के युद्ध में पटक-पटक कर पीटा। सन 1787 में हुए, गजेन्द्रगढ़ के समझौते के अंतर्गत टीपू को मराठा योद्धाओं को 48 लाख रुपये का हर्जाना, प्रतिवर्ष 12 लाख रुपये का न्योता, और हैदर अली द्वारा नियंत्रण में लिए गए समस्त क्षेत्रों को स्वतंत्र करने पर बाध्य होना पडा। टीपू को बस बदले में नवाब फ़तेह अली खान की मानद उपाधि मिलेगी।
सोचिए, जो व्यक्ति केवल एक संगठित समुदाय से इतना भयभीत होता हो, उसकी अन्य योद्धाओं के समक्ष क्या स्थिति होती होगी? हमने अभी मालाबार के सनातनियों के विद्रोह के बारे में भी चर्चा भी नहीं की है, जिसे इतिहास में ‘क्रूरता का कलंकित अध्याय’ कहा जाता है। ऐसे में, ये कहना गलत नहीं होगा कि सुल्तान फ़तेह अली खान उर्फ़ टीपू सुल्तान केवल बातों का शेर था, वह वास्तविक चुनौती मिलने पर उसी तरह भागता था, जैसे जहाज़ डूबने पर चूहे भागते हैं!