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पेशवा माधवराव भट्ट– भारतवर्ष का आधुनिक स्कंदगुप्त जिसने मराठा साम्राज्य को खंडित होने से बचाने का प्रयास किया

तीन बार टीपू सुल्तान की मैसूर और हिंदवी स्वराज्य की सेनाओं की भिड़ंत हुई और तीनों बार हिंदवी स्वराज्य की विजय हुई।

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
29 September 2021
in इतिहास
पेशवा माधवराव भट्ट का फोटो

Source- Google

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पेशवा माधवराव भट्ट : 14 जनवरी 1761– यह वो दिवस था जब अखंड भारत को उसका तीसरा सबसे भीषण आघात लगा। जितना बड़ा आघात महमूद गज़नवी सोमनाथ मंदिर के विध्वंस या खनवा में महाराणा संग्राम सिंह की पराजय से भारतवर्ष को नहीं हुआ, उससे बड़ा आघात भारत को पानीपत के युद्ध में हुआ। जब हिंदवी स्वराज्य को आर्यावर्त के प्राचीन सीमाओं तक ले जाने के प्रयास असफल हुए और अफ़गान, रूहेल एवं अवध की संयुक्त सेना के हाथों हिंदवी स्वराज्य की पराजय हुई। सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में लगभग 65000 मराठा योद्धाओं ने 63000 विदेशी आक्रान्ताओं का सामना किया, जिनका नेतृत्व अफगानी आक्रांता अहमद शाह दुर्रानी कर रहा था। इस युद्ध में वह विजयी हुआ, उसकी सेना ने साथ में आए कई निर्दोष तीर्थयात्रियों का नरसंहार किया और कई को बंदी बनाया, परंतु मराठा योद्धाओं का शौर्य ऐसा था कि कोई भी आक्रांता अपने मूल उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।

पराजित होकर भी मराठा योद्धा हिंदवी साम्राज्य एवं भारतवर्ष के आत्मसम्मान की रक्षा करने में सफल रहे थे, परंतु उन्होंने इसका बहुत भारी मूल्य भी चुकाया था। इसी पराजय से एक ऐसे योद्धा का सृजन हुआ, जो अखंड भारत को असीमित शिखर तक ले जा सकता था। ये इस राष्ट्र का दुर्भाग्य था कि इस परमवीर योद्धा की मृत्यु अल्पायु में हुई, अन्यथा यह योद्धा अपने आप में ब्रिटिश साम्राज्य समेत संसार की हर शक्ति का सर्वनाश करने के लिए उद्यत था। जैसे परमवीर योद्धा स्कंदगुप्त ने प्राचीन भारत की रक्षा हूणों से की थी, वैसे ही रूहेलों, अफगानों, एवं अंग्रेज़ों से भारतवर्ष की रक्षा इस आधुनिक स्कंदगुप्त ने भी की थी, जिसे अपने राष्ट्र की रक्षा हेतु अपने परिवार के विरुद्ध भी शस्त्र उठाने पड़े। हम बात कर रहें है पेशवा माधवराव भट्ट (Peshwa Madhavrao Bhatt) की, जिन्होंने मात्र 27 वर्ष की अल्पायु में भारतवर्ष के खोए गौरव को पुनर्स्थापित भी किया और अपने जीवनकाल में ब्रिटिश साम्राज्य को बंगाल से बाहर निकलने नहीं दिया।

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पेशवा माधवराव भट्ट ने 16 वर्ष की उम्र में संभाला था बागडोर

श्रीमंत पेशवा माधवराव भट्ट (Peshwa Madhavrao Bhatt) का जन्म 15 फरवरी 1745 को सवनूर में हुआ, जो आज आधुनिक कर्नाटक राज्य का भाग है। वे हिंदवी स्वराज्य के शासक श्रीमंत बालाजी बाजीराव पेशवा के द्वितीय पुत्र थे। पेशवा माधवराव भट्ट अपने ज्येष्ठ भ्राता विश्वासराव जितने बलशाली तो नहीं थे और न ही उन्हें राजपाट से अधिक प्रेम था। परंतु वे बेहद धार्मिक थे और वेद पुराणों में उनका अटूट विश्वास था। अपने पिता एवं अन्य शासकों के ठीक विपरीत माधवराव एकात्म विवाह में विश्वास रखते थे, यानी एक स्त्री के अतिरिक्त वे किसी और स्त्री से विवाह नहीं करेंगे और आयुपर्यंत उन्होंने उसी वचन का पालन भी किया। नाम भले ही माधव था, परंतु जीवन उन्होंने मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम की शैली में बिताई और उनकी धर्मपत्नी रमाबाई भी सिया के समान थी, जो सुख दुख में उनके साथ सदैव एक साये की भांति रहती थी।

परंतु इस सुखी जीवन को पानीपत के युद्ध से ग्रहण लग गया। युद्ध में माधवराव के ज्येष्ठ भ्राता विश्वास राव एवं उनके काका सदाशिव राव भाऊ वीरगति को प्राप्त हुए, जबकि नाना फड़नवीस एवं महड़जी शिंदे जैसे योद्धा घायल हो गए। युद्ध में पराजय और पुत्रवियोग में पेशवा बालाजी बाजीराव का भी कुछ ही महीनों में निधन हो गया, जिसके कारण हिंदवी स्वराज्य का पदभार अब किशोर माधवराव के कंधों पर आ गया। जब उन्हें यह दायित्व सौंपा गया तब उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष थी।

और पढ़े- मोपला हिंदू विरोधी नरसंहार: जिहादी जल्लादों ने उसकी बहन को उठाना चाहा तब हाथ में हंसिया ले अकेले कूद पड़ी नारायणी

युवा माधवराव के शत्रु जितने उनके साम्राज्य के बाहर थे, उतने ही भीतर भी। साम्राज्य के बाहर अवसरवादी रूहेल, हैदराबाद के निजाम एवं मैसूर का हैदर अली उनके विभिन्न प्रांतों पर नियंत्रण स्थापित करने को आतुर थे, तो वहीं भीतर से उनके साम्राज्य पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए उनके काका रघुनाथ राव आतुर थे। ये वही रघुनाथ राव थे, जिनके शौर्य से हिंदवी स्वराज्य की सीमा कटक से अटक तक स्थापित हुई थी। लेकिन आंतरिक मतभेद के कारण उन्हें मराठा सेना का पानीपत में नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिला। यही घाव रघुनाथ राव के मस्तिष्क में विष बन गया और वे शकुनि की भांति अपनी ही मातृभूमि के विध्वंस का षड्यन्त्र रचने लगे।

पेशवा माधवराव भट्ट ने अंग्रेजों के प्रस्ताव को किया था अस्वीकार

माधवराव अपने पूर्वज पेशवा बाजीराव बल्लाड़ की भांति परिपक्व एवं कुशल नेतृत्व से परिपूर्ण थे। वे भली-भांति परिचित थे कि योग्य नेतृत्व ही हिंदवी स्वराज्य को उसका खोया हुआ सम्मान पुनः दिला सकता है। उनके नेतृत्व में सर्वप्रथम ये अधिनियम स्थापित किया गया कि जो भी अपने कार्यों में भ्रष्ट सिद्ध हुआ या जिसने भी राष्ट्रद्रोह किया, उसे सार्वजनिक दंड दिया जाएगा, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली और शक्तिशाली क्यों न हो। इसका उदाहरण उन्होंने अपने ही परिवार के माध्यम से दिया जब उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर अपने ही काका रघुनाथ राव को कारावास में डालने का निर्णय भी किया।

पेशवा माधवराव भट्ट के नेतृत्व में नाना फड़नवीस जैसे कूटनीतिज्ञ, राम शास्त्री प्रभुने जैसे न्यायाधीश एवं महड़जी शिंदे जैसे सेनापति को खूब शक्तियां दी गई, जिनके कारण कुछ ही वर्षों में माराठाओं ने फिर से अपना परचम लहराया। जितनी भूमि मराठा साम्राज्य ने खोई थी, पेशवा माधवराव भट्ट के शासनकाल में उन्होंने उससे ज्यादा पुन: प्राप्त कर ली। पेशवा माधवराव ब्रिटिश साम्राज्य के खतरे से भी परिचित थे और वे उन्हें इस्लामी आक्रान्ताओं जितना ही खतरनाक समझते थे। जब मैसूर के सुल्तान हैदर अली पर उन्होंने आक्रमण किया, तो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें सहायता का प्रस्ताव दिया। जिसे पेशवा माधवराव ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि सांप से मित्रता करना अर्थात अपने ही साम्राज्य का विध्वंस करने के समान था। जब तक वे जीवित थे, तब तक ब्रिटिश साम्राज्य बंगाल से आगे अपने फन नहीं फैला पाया।

पीठ दिखाकर भाग गया था टीपू सुल्तान

चाणक्य नीति में ये भी लिखा गया है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रु को भी मित्र बनाना चाहिए। पेशवा माधवराव भट्ट ने सभी को चकित करते हुए हैदराबाद के निज़ाम की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया परंतु उसके पीछे की मंशा स्पष्ट थी– वे न तो मैसूर के विष को अत्यधिक बढ़ने देना चाहते थे और ना ही ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव को बढ़ने देना चाहते थे। जब मैसूर पर उन्होंने आक्रमण किया था, तो उनका सामना हैदर के आक्रामक पुत्र फतेह अली से भी हुआ, जिसे आज वामपंथी इतिहासकार टीपू सुल्तान के नाम से महिमामंडित करते हैं। जिस टीपू सुल्तान का इतना महिमामंडन किया जाता है, वह तो मराठा सेना के समक्ष टिक ही नहीं पाया एवं कायरों की भांति पीठ दिखाकर युद्धभूमि से भाग लिया। तीन बार मैसूर और हिंदवी स्वराज्य की सेनाओं की भिड़ंत हुई और तीनों बार हिंदवी स्वराज्य की विजय हुई।

और पढ़े- चीन के प्रति नेहरू की निस्स्वार्थ सेवा के लिए उन्हें चीन का सर्वोच्च सम्मान “The Medal of the Republic” मिलना चाहिए

परंतु देश का दुर्भाग्य देखिए। जैसे अल्पायु में स्कंदगुप्त का निधन हुआ, वैसे ही क्षयरोग से पेशवा माधवराव भट्ट का भी निधन हो गया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन ठेऊर के गणेश चिंतामणी मंदिर में भगवान गणपति की स्तुति करते हुए बिताए और मात्र 27 वर्ष की आयु में 18 नवंबर 1772 को उनका स्वर्गवास हो गया। रमाबाई उनके वियोग को नहीं सह पाई और उन्ही के संग सती हो गई, जबकि मराठा समुदाय में ऐसा कोई रीति-रिवाज नहीं था। इससे ये भी सिद्ध होता है कि वामपंथियों के अनर्गल प्रलाप के ठीक विपरीत सती एक वैकल्पिक रीति थी, जो महिला की इच्छा पर निर्भर थी।

यदि पेशवा माधवराव भट्ट कुछ वर्ष और जीवित रहते, तो शायद भारत कभी परतंत्र नहीं होता। यदि वे तनिक और जीवित रहते, तो हमारे भारत का मानचित्र कुछ और ही होता। ये कथा है आधुनिक स्कंदगुप्त के शौर्य की, ये कथा है अखंड भारत के एक वीर योद्धा के सेवा की, ये कथा है धर्म के एक निश्छल सेवक की।

Tags: Peshwa Madhavrao BhatPeshwa Madhavrao Bhat lifeटीपू सुल्तानपेशवा माधवराव भट्ट
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