3 कृषि कानून खत्म नहीं हो रहे हैं, उनका सिर्फ स्वरुप बदल रहा है

असली खेल तो अभी बाकी है बंधु!

मोदी सरकार कृषि कानून

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पीएम नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानून को वापस लेने के ऐलान के बाद, एक प्रश्न अभी भी मोदी विरोधियों और समर्थकों को खाये जा रही है, वो यह है कि “क्या पीएम मोदी सच में झुक जाएंगे?’’ देश नहीं झुकने देने की सौगंध खानेवाला क्या सचमुच में देश को झुकने देगा? उत्तर है ना। वो कहते है न कि जब शेर दो कदम पीछे ले, तो इसका मतलब शेर का प्रचंडतम प्रहार शिकार के समक्ष आनेवाला है। वैसे भी मोदी सरकार देश के लिए झुक सकती है, पर देश को कभी नहीं झुकने दे सकती।

शायद, इसीलिए मोदी सरकार ने कानून वापसी के कारण में कृषि-कानून को दोष ना देते हुए किसानों को ना समझा पाने को मुख्य कारण बताया। पर अब मोदी सरकार ने किसानों को समझाने का एक नया रास्ता निकाला है और वो रास्ता है, उदाहरण स्थापित करते हुए राष्ट्र को नेतृत्व प्रदान करना। आखिरकार यही तो एक राष्ट्र नायक करता है! दरअसल, केंद्र सरकार ने कानून तो वापस लेने की घोषणा कर दी, लेकिन कृषि कानून रुका नहीं है। केंद्र सरकार अब राज्य सरकारों के माध्यम से कृषि कानून को लागू करेगी!

किसान नेताओं को पसंद नहीं आया छोटे किसानों का उत्थान

आपको बता दें कि किसान आंदोलन के दौरान केंद्र सरकार द्वारा कृषि कानून के निर्माण को ही राज्य शक्ति पर अतिक्रमण बताया गया था। हालांकि, कृषि पर राज्य सरकार का एकाधिकार है, इस तर्क को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक प्रावधानों का उल्लेख करते हुए नकार दिया था। कृषि राज्य का विषय है, पर संसद समवर्ती सूची में प्रविष्टि-33 से कानून बनाने की अपनी क्षमता प्राप्त करती है। यह केंद्र सरकार को किसी उद्योग में किसी भी उत्पाद के व्यापार, वाणिज्य, उत्पादन, आपूर्ति, वितरण से संबंधित कानून पारित करने की अनुमति देता है और कृषि कानून इन्हीं विषयों और कृषकों के स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर निर्मित किया गया। आखिर जब देश के अन्य व्यापारी व्यवसाय के स्वतंत्रता के आधार पर समग्र राष्ट्र में कहीं भी अपना माल बेच सकता है, तो किसान मंडी पर आश्रित क्यों रहे? यहीं प्रश्न सामंतों, जमींदारों, आढ़तियों, किसान नेताओं और बिचौलियों को अच्छी नहीं लगी, क्योंकि इससे ना सिर्फ मंडी व्यवस्था टूटती, बल्कि सामंतवाद और किसान-शोषण दोनों समाप्त हो जाते।

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जिसके कारण इन लोगों द्वारा भ्रम फैलाया गया, किसानों के जमीन अधिग्रहण की बात प्रचारित की गई और MSP का लालच दिया गया। मोदी सरकार को डर है कि कहीं सामंतवाद और खालिस्तान के अंत में आम किसान ना पिस जाए, इसीलिए अब राज्य सरकार केंद्र के कृषि कानून का संवाहक बनेंगी। अर्थात् केंद्र की मोदी सरकार अब राज्य सरकारों के माध्यम से कृषि कानून को लागू करेगी। गैर-भाजपा शासित राज्य भले इसे नकार देंगे पर भाजपा शासित राज्य इसे अवश्य अपनाएंगे। हो सकता है कि इसके आशातीत परिणाम प्राप्त होने में थोड़ा वक़्त लगे, पर निश्चित रूप से यह “देश के वास्तविक किसानों” का उद्धार करेगा। फिर जब जीएसटी की तरह इसके लाभ मिलने लग जाएंगे, तब अन्य राज्य भी इसे अपनाएंगे और अगर नहीं अपनाया तो जनता द्वारा खारिज कर दिये जाएंगे!

इन राज्यों के किसानों ने उठाया है MSP का फायदा

उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट से पता चला है कि मध्यप्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ के किसानों ने पंजाब और हरियाणा से अधिक MSP का फायदा उठाया है। मतलब साफ है कि मंडी व्यवस्था की वजह से न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ हरियाणा और पंजाब के कुछ सामंतों और जमींदारों के हाथों में केन्द्रित हो कर रह गया है। स्वयं सोचिए, देश के बहुत सारे राज्यों में मंडी व्यवस्था है ही नहीं और फिर भी वहां के किसान नित नए सफलता के आयाम गढ़ रहें है, जबकि पंजाब इस क्रम में खिसक कर पांचवे पायदान पर आ चुका है।

सदैव स्मरण रखिए, कृषि कानून के तहत तीन बिल पास हुए थे, जो सिर्फ किसानों को अपना समान बेचने और अपने व्यवसाय में स्वतंत्रता प्रदान करते थे। कृषि कानून ने किसी भी पुरानी व्यवस्था जैसी मंडी व्यवस्था को खत्म नहीं किया, बल्कि किसानों को बेहतर विकल्प और आज़ादी दी। यह कानून स्वतंत्र सामंतवादी वर्चस्व और शोषण के अंत की संवाहक बनती, इसीलिए इसे रोका गया वरना MSP तो 100 प्रतिशत किसानों की कभी नहीं मिली और ना ही ऐसी काल्पनिक मांग को लेकर कोई आंदोलन हुआ है। सामंतवादी शक्तियों ने अन्नदाताओं के उत्थान में विलंब तो अवश्य पैदा कर दिया, परंतु एक राष्ट्रवादी सरकार के पुनीत और शुचित कार्य को कदापि नहीं रोक पाएंगे।

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