एक प्रसिद्ध कहावत है- “With great power comes the great responsibility“ अर्थात महान शक्ति के साथ बड़ा उत्तरदायित्व भी आता है। यह कथन सज्जन लोगो के लिए है। दुष्ट प्रवृति के लोगों के संदर्भ में दूसरा कथन है- “Power tends to corrupt, and absolute power corrupts absolutely” अर्थात “शक्ति भ्रष्ट करती है और पूर्ण शक्ति पूर्णतः भ्रष्ट करती है।“ प्रथम कथन भारत के संदर्भ में है वहीं दूसरा ब्रिटेन के।
चीन के संदर्भ में अगर इन दोनों कथनों का अवलोकन किया जाए तो एक ओर भारत जहां चीन जैसी निरंकुश शक्ति को नियंत्रित और संतुलित कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर ब्रिटेन अपनी शक्ति का उपयोग इस संतुलन को ध्वस्त और भ्रष्ट करने के लिए कर रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण देखिये। Dailymail में प्रकाशित एक लेख के अनुसार ब्रिटिश सरकार एक डॉक्टरेट थीसिस को प्रायोजित करेगी जिसमें बीजिंग द्वारा मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ अभियान चलाने वाले सांसदों की आलोचना की जाएगी। कितने शर्म की बात है पर यही नहीं ब्रिटेन का बर्मिंघम विश्वविद्यालय चीनी शोधकर्ता रोंग वेई को अपने करदाताओं के पैसे से 80,000 पाउंड का भरी अनुदान देगा ताकि वो चीन के समर्थन में उन ब्रिटिश सांसदों की आलोचना कर सके, या यूं कहें कि उनका मनोबल गिरा सकें, जिन्होंने चीन की निरंकुशता और नृशंसता के खिलाफ आवाज़ उठाई है। रोंग वेई के अनुसार ब्रिटिश सांसद चीन के नाम पर नैतिक भय अर्थात “moralpanic” फैलाते हैं। ये सभी संसद मुख्य रूप से चीन अनुसंधान समूह (China Research Group) और चीन पर अंतर-संसदीय गठबंधन (Inter parliamentary committee on China) से जुड़े हैं।
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CRG का नेतृत्व टोरी के सांसद टॉम तुगेंदत कर रहे हैं। CRG एक ऐसा समूह है जिसे 2020 में कोविड महामारी पर कई विवादों के बावजूद चीनी भूमिका को स्थापित किया था। तुगेंदत और डंकन स्मिथ दोनों को चीनी सरकार के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है। इस मुद्दे पर कुल 9 ब्रिटिश नागरिक और 4 संगठन चीन से प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं।
शोधकर्ता रोंग वेई को तथाकथित शोध कार्य के लिए अगले चार वर्षों तक सालाना 20,892 पाउंड और मुद्रास्फीति राशि भी प्रदान की जाएगी। रोंग वेई और उनका समूह चीन के काले करतूतों का अंतर-राष्ट्रीय whitewash करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने इस आलोचना को नैतिक भय अर्थात “Moralpanic” का नाम दिया है।
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आप सभी जानते हैं कि चीन में लोकतंत्र नहीं है। अब तो वहाँ साम्यवाद भी नहीं है। जिनपिंग ने स्वयं के अहंकारवश साम्यवादी शासन की भ्रष्ट और निरंकुश तानाशाही में परिवर्तित कर दिया। शिंजियांग के उईघर हों, तिब्बत के बौद्ध या फिर कोई खिलाड़ी-व्यापारी, जो कोई भी जिनपिंग के आगे नहीं झुकता, चीन उसका दम घोट देगा। अतः मानवाधिकारों के लिए आवाज़ चीन से तो कतई नहीं उठ सकती। परंतु, मानवता समर्थ राष्ट्रों से ये अपेक्ष अवश्य रखती है की वो उनकी आवाज़ बनेंगे। अंतरराष्ट्रीय समाज भी ब्रिटेन से यही अपेक्षा करेगा कि ब्रिटेन जैसा राष्ट्र आभाव, दबाव, स्वार्थ और भय के कारण न झुके । अगर ब्रिटेन चाहे तो अपने मित्र भारत से इस संदर्भ में सीख लेते हुए ये अनुदान रद्द करेगा।