बप्पा रावल: वो योद्धा जिसने तीन शताब्दियों तक विदेशी आक्रान्ताओं को भारत की भूमि से दूर रखा

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बप्पा रावल

“मन करे सो प्राण दे,जो मन करे सो प्राण ले,

वही तो एक सर्वशक्तिमान है।।।।।।

विश्व की पुकार है, ये भागवत का सार है,

कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है,

कौरोवों की भीड़ हो या पांडवों का नीड़ हो,

जो लड़ सका है वो ही तो महान है”

पीयूष मिश्रा द्वारा रचित ‘आरंभ है प्रचंड’ के यह प्रसिद्द बोल आज भी भारतवर्ष के गौरवशाली इतिहास का संक्षेप में विवरण करने के लिए पर्याप्त है। वामपंथी, कट्टरपंथी इस्लामी और ईसाई मिशनरी के संयुक्त गठजोड़ ने हमें वर्षों तक हमारे वास्तविक इतिहास और संस्कृति से विमुख रखा। हमें बड़े चाव से बताया जाता है कि 712 ईस्वी में हमारे भारतवर्ष पर मुहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण किया था, और फिर बताया जाता है कि 1025 में कैसे तुर्की आक्रान्ता, गज़नवी सुल्तान महमूद ने भारत को रक्तरंजित करते हुए सोमनाथ मंदिर को खंड-खंड कर दिया। पर क्या कभी हमने ये पूछने का साहस किया कि बीच के तीन शताब्दियों में ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण कोई विदेशी आक्रान्ता हम पर आक्रमण नहीं कर पाया? क्या कभी हमने ये पूछने का साहस किया कि आखिर किस कारण से किसी आक्रान्ता के अन्दर इतना साहस नहीं था कि वह हमारी भारत भूमि की ओर आँख उठाकर देख सके।

द ताशकंद फाइल्स में एक संवाद बड़ा ही महत्वपूर्ण है, और वह ऐतिहासिक नायकों पर भी लागू होता है, “हारे हुए लोग देश की तकदीर नहीं बदलते!”, यानी पराजित व्यक्ति राष्ट्रनिर्माण के योग्य नहीं हो सकता। यदि हम अपने वास्तविक इतिहास से तनिक भी परिचित होते, तो हमें आभास होता कि कैसे हमारे देश में ऐसे शूरवीर भी जन्मे थे, जिन्होंने न केवल भारत की अखंडता को अक्षुण्ण रखा, अपितु शत्रुओं से ऐसे भारत की रक्षा की, कि वे फिर भारत की ओर आँख उठाकर नहीं देख पाए। ऐसे ही एक महावीर थे बप्पा रावल, जिनके पराक्रम ने विदेशी आक्रान्ताओं को तीन शताब्दी तक भारत से दूर रहने पर विवश किया।

परन्तु यह बप्पा रावल थे कौन? मेवाड़ का नाम सुना है? यदि हाँ, तो महारावल रतन सिंह, महाराणा हम्मीर सिंह, महाराणा कुम्भ, महाराणा प्रताप, महाराणा राज सिंह जैसे परम प्रतापी शूरवीरों का नाम भी अवश्य सुना ही होगा! जिस मेवाड़ का गौरव की चर्चा आज भी भारत में होती है, जिस मेवाड़ का नाम आज भी सम्मान से लिया जाता है, उसी मेवाड़ के संस्कृति की नींव इस महावीर योद्धा ने रखी थी।

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मेवाड़ प्रांत और चित्तौड़ नगर की स्थापना में बप्पा रावल का उल्लेख किया गया है। आज भी कई लोग अनभिज्ञ है कि बप्पा रावल का वास्तविक नाम क्या था? कई इतिहासकारों का मानना था कि कालभोज ही बप्पा रावल थे, लेकिन इतिहासकार आरवी सोमानी का मानना है कि बप्पा रावल का वास्तविक नाम एक रहस्य ही है। परन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं कि वे गुहिल वंश के जनक थे और उन्होंने ही 8वीं शताब्दी में मेवाड़ की स्थापना की थी। कुम्भलगढ़, डूंगरपुर इत्यादि के शिलालेखों में ये बात स्पष्ट रूप से अंकित हैं कि बप्पा रावल ने चित्रकूट नामक नगर की स्थापना की, जो आगे चल चित्तौड़ के नाम से प्रसिद्द हुआ।

परन्तु बप्पा रावल का अरब आक्रान्ताओं से कैसे सामना हुआ? 712 ई में जब अरब आक्रान्ता मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण किया, तो उसके पश्चात अरबों की क्षुधा तृप्त नहीं हुई। शेर के मुंह रक्त लग चुका था और उन्होंने उत्तर-पश्चिमी भारत की ओर अपनी दृष्टि घुमाई। वामपंथियों की विचारधारा के ठीक विरुद्ध हर आक्रान्ता भारत के वैभव और शौर्य की ओर ऐसा आकर्षित था कि वह इसे किसी भी स्थिति में अपना बनाना चाहता था। आप स्वयं सोचिये, जीवन भर रेगिस्तान में बिताने वाले को स्वर्ग सामान राज्य दिखे, तो वो उसे प्राप्त करने के लिए क्यों कोई प्रयास नहीं करेगा?

आरवी सोमानी और रमेश चन्द्र मजूमदार के ऐतिहासिक संस्मरणों के अनुसार, अरबों ने जब उत्तर पश्चिमी भारत में शासन कर रहे मोरी यानि मौर्य शासकों को पराजित किया, तो वर्षों से सुप्त भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उसे ज्ञात हुआ कि यह वह शत्रु नहीं, जिसे युद्ध के आचरण या शत्रु के संस्कृति का सम्मान करना आता हो। ये वो यवन (यूनानी) भी नहीं, जिनके लिए युद्धनीति के भी अपने शास्त्र हों।

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किसी ने सत्य ही कहा है, ‘पशु को मारने के लिए स्वयं पशु होना पड़ता है!’ अरब आक्रान्ताओं के क्रूर और असभ्य संस्कृति को देखते हुए भारतीय शासक एकत्रित हुए और उन्होंने संकल्प लिया – ‘राष्ट्रधर्म से बढ़कर कुछ नहीं।’ इस संकल्प के तीन स्तम्भ के रूप में तीन महावीर योद्धा उभरकर सबके समक्ष आये – प्रतिहार वंश के नागभट्ट, कार्कोट के प्रख्यात सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ एवं मेवाड़ राज बप्पा रावल। बप्पा रावल इस त्रिमूर्ति के सबसे मजबूत स्तंभों में से एक थे। वे स्पष्ट जानते थे – आत्मरक्षा में आक्रामकता ही अंतिम विकल्प है, अन्यथा शत्रुओं को उनके भारतभूमि को क्षत-विक्षत करने में तनिक भी समय नहीं लगेगा।

प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार की ऐतिहासिक पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ [Ancient India] के अनुसार ललितादित्य यशोवर्मन को परास्त करने के पश्चात विंध्याचल की तरफ निकल पड़े, जहां उन्हें कर्णात वंश की महारानी रत्ता मिली। रत्ता की समस्या को समझते हुये कर्णात वंश की ललितादित्य ने न केवल विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षा की, अपितु उनके समक्ष मित्रता का हाथ भी बढ़ाया। कई लोगों के अनुसार रत्ता कोई और नहीं वरन राष्ट्रकूट वंश की रानी भवांगना ही थी, और इसी बीच उनकी मित्रता मेवाड़ के वीर योद्धा बप्पा रावल ललितादित्य के परम-मित्र हुआ करते थे और दोनों ने साथ मिलकर दोनों ने कई विदेशी आक्रांताओं को धूल भी चटाई थी।

परन्तु चित्रकूट यानी चित्तौड़ को स्वतंत्र कराना कोई सरल कार्य नहीं था। सम्राट नागभट्ट प्रथम ने अरबों को पश्चिमी राजस्थान और मालवे से मार भगाया। बप्पा रावल ने यही कार्य मेवाड़ और उसके आसपास के प्रदेश के लिए किया। जो मोरी करने में असमर्थ थे , वो बप्पा ने सफलतापूर्वक सिद्ध किया और साथ ही चित्तौड़ पर भी अधिकार कर लिया। सम्राट नागभट्ट, सम्राट बप्पा और सम्राट ललितादित्य के संयुक्त नेतृत्व ने अरबी सेना पर जो त्राहिमाम किया, उसके कारण अगली तीन शताब्दियों तक अरब छोडिये, किसी आक्रान्ता के अन्दर साहस नहीं हुआ कि वह तीन शताब्दियों तक भारत की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखे।

बप्पा रावल और महाराणा हम्मीर में एक समान बात जानते हैं क्या है? दोनों ही भगवान् शिव के बहुत अनन्य उपासक थे, और दोनों ही भगवान शिव को भारतवर्ष का प्रतिबिम्ब मानते थे। जब वर्षों बाद महाराणा हम्मीर ने मेवाड़ के गौरव को पुनर्स्थापित किया, तो उन्होंने मेवाड़ का सिंहासन अपने लिए ग्रहण करने के स्थान पर भगवान शिव, यानी एकलिंग महाराज को मेवाड़ और समस्त राजपूताना का अधिपति माना और उन्होंने उनके नेतृत्व में म्लेच्छों यानी तुर्कों से लड़ने का आवाहन करते हुए राणा यानि मेवाड़ का प्रथम सेवक होने का निर्णय लिया!

ऐसे ही बप्पा रावल ने अपने विशेष सिक्के जारी किए थे। इस सिक्के में सामने की ओर ऊपर के हिस्से में माला के नीचे श्री बोप्प लेख है। बाईं ओर त्रिशूल है और उसकी दाहिनी तरफ वेदी पर शिवलिंग बना है। इसके दाहिनी ओर नंदी शिवलिंग की ओर मुख किए बैठा है। शिवलिंग और नंदी के नीचे दंडवत् करते हुए एक पुरुष की आकृति है। पीछे की तरफ सूर्य और छत्र के चिह्न हैं। इन सबके नीचे दाहिनी ओर मुख किए एक गौ खड़ी है और उसी के पास दूध पीता हुआ बछड़ा है (शायद इसी कारण इन्हे कालभोज ग्वाल कहा गया है )। ये सब चिह्न बपा रावल की शिवभक्ति और उसके जीवन की कुछ घटनाओं से संबद्ध हैं। धन्य है ये भूमि, जहाँ बप्पा रावल जैसे वीर जन्मे। धन्य है वो भारतवर्ष, जहाँ ऐसे वीर जन्मे, धन्य है वो भारतवर्ष, जहाँ ऐसे योद्धाओं के शौर्य का डंका बजा।

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