प्रिय बैंक कर्मचारियों, अपनी हड़ताल जारी रखें, PSB का निजीकरण होकर रहेगा

“लंच के बाद आना”, "अभी सर नहीं हैं, कल आना" ये सब अब नहीं चलेगा!

सरकारी बैंक

सरकारी बैंकों के निजीकरण के फैसले के खिलाफ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारी दो दिवसीय हड़ताल पर चले गए हैं। मोदी सरकार ने संसद के सत्र के दौरान बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 पेश करने की योजना बनाई है। हालांकि, सरकारी स्कूल के शिक्षकों के बाद करदाताओं के पैसे पर दूसरा सबसे बड़ा बोझ डालने वाले बैंक कर्मचारी ही इस कदम का विरोध कर रहे हैं। SBI के महासचिव सीएच वेंकटचलम ने कहा, “हमने अपना रुख बरकरार रखा है कि अगर सरकार आश्वस्त करेगी कि बैंक निजीकरण विधेयक (बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक, 2021) संसद के इस सत्र के दौरान पेश नहीं किया जाएगा, तो हम हड़ताल पर पुनर्विचार करेंगे। लेकिन सरकार हमें ऐसा कोई आश्वासन नहीं दे सकी।”

लालफ़ीताशाही, लेटलतीफी, प्रशासनिक अक्षमता, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार, डूबते उधार और हानी ये सभी समस्याएँ हमारे सरकारी बैंकों की परिचायक बन गई हैं। आम आदमी सरकारी बैंक से उधार लेकर चुकाने के बजाए लोन माफी की उम्मीद करता है। पूंजीपति इसे अपना पिग्गी बैंक समझते है जबकि सरकार इसे मनचले युवक का क्रेडिट कार्ड। राष्ट्र के आर्थिक स्तम्भ को ध्वस्त होते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की योजना की घोषणा की। इसे बैंकिंग क्षेत्रों में निजीकरन का पहला चरण माना जा रहा है।

मोदी सरकार के सार्थक कदम और विरोध

बिकवाली के लिए चिह्नित बैंकों के नाम आधिकारिक तौर पर जारी नहीं किए गए हैं। लेकिन रिपोर्टों से पता चलता है कि पंजाब एंड सिंध बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र इस सूची में अग्रणी हैं।

भारत सरकार ने पहले ही सरकारी बैंकों का विलय कर दिया है, जिससे उनकी संख्या 2017 में 27 से घटकर 12 हो गई है। राज्य-नियंत्रित वाणिज्यिक बैंक जिनमें सरकार की हिस्सेदारी है वो बकाया ऋणों के दो-तिहाई हिस्से को समेकित करते हैं।

एक के बाद एक सरकारों ने सरकारी बैंको को सुदृढ़ करने के लिए खूब संघर्ष किया। लेकिन, कभी-कभी सरकार और जनता का स्वार्थ भी इन वित्तीय संस्थानों पर चुनाव के समय हावी हो जाता है। पिछले 12 वर्षों में, 3.8 ट्रिलियन रुपये (52 बिलियन डॉलर) से अधिक करदाताओं का पैसा इन स्वार्थों की पूर्ति में चला गया। तमाल बंद्योपाध्याय नेपंडोनियम: द ग्रेट इंडियन बैंकिंग ट्रेजेडी में लिखा है कि बैंक करदाताओं के धन को सोखने का स्रोत बन गए है।

कर्मचारी संघ ने सरकार के इस कदम का विरोध करना शुरू कर दिया हैं। ये अवश्य है कि भारत के सरकारी बैंकों ने छोटे और मध्यम उद्यमों के वित्तपोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परंतु, उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि कितने उद्यमों ने इस राष्ट्र की संपन्नता में सार्थक भूमिका निभाई है?

बैंको की पुरानी समस्या और गलत अनुमान

केंद्र सरकार हर साल करदाताओं के हजारों करोड़ रुपये पुनर्पूंजीकरण के लिए बैंकों में डालती है। सरकार ने 1980 के दशक से लगभग हर साल एक निश्चित राशि का निवेश किया है। राष्ट्रीयकरण के कारण भारत में बैंकिंग क्षेत्र कई वर्षों तक छोटा और सीमित रहा। PSB में निवेशकों का विश्वास इतना कम है कि सभी PSB का बाजार पूंजीकरण HDFC की तुलना में कम है।

एक निजी क्षेत्र के बैंक को देश के सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है। वास्तव में, AU स्मॉल फाइनेंस बैंक नाम का एक छोटा निजी बैंक हैं जिसका बाजार पूंजीकरण 35,083 करोड़ रुपये है, जो कि पंजाब नेशनल बैंक (PNB) से अधिक है। आपको बता दें कि PNB सार्वजनिक क्षेत्र का दूसरा सबसे बड़ा बैंक- जिसकी कीमत 29,948 करोड़ रुपये है।

बंधन बैंक, 2015 में स्थापित एक और छोटा निजी क्षेत्र का बैंक हैं, जिसका मूल्य 64,473 करोड़ रुपये है, जो पंजाब नेशनल बैंक के दोगुने से अधिक है। PNB, देश के सबसे बड़े और सबसे पुराने बैंकों में से एक होने के नाते, एयू स्मॉल फाइनेंस बैंक जैसे छोटे अज्ञात बैंकों से कम मूल्यवान है। ऐसा इसलिए है क्योंकि निवेशकों का सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर कोई भरोसा नहीं है, जो अधिकतर खराब प्रदर्शन करते हैं।

राष्ट्रीयकरण ने बैंकों को राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार बना दिया, खासकर जब राजनेताओं ने उन्हें गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जो उन्हें वोट जीतने में मदद कर सकते हैं। आम धारणा के विपरीत, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के वित्तीय संकट भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का परिणाम हैं।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय रिजर्व बैंक ने नियमों को कड़ा कर दिया है, जिसके कारण बैंकों को अब ऋण से संभावित नुकसान की भरपाई के लिए अपनी एक निश्चित पूंजी अलग रखने की आवश्यकता होती है। यह मूल रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के वित्तीय विवरणों को बाधित करता है।

2000 के दशक के मध्य में, भारत का सकल घरेलू उत्पाद दोहरे अंकों में बढ़ रहा था और व्यवसायियों को उम्मीद थी कि आर्थिक विस्तार आने वाले दशकों तक बना रहेगा जैसा कि चीन के मामले में देखा गया है। इस आउटलुक से उत्साहित कंपनियों ने प्लांट और मशीनरी में निवेश किया जो आशातीत लाभ नहीं दे पाये। उन्होंने भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और विदेशों से बहुत अधिक कर्ज ले लिया है जिसे वें चुकाने में असमर्थ हैं।

ऋण का एक बड़ा हिस्सा बिजली संयंत्रों और स्टील मिलों जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के वित्तपोषण में चला गया। आर्थिक मंदी के बीच वैश्विक कमोडिटी कीमतों में गिरावट से कंपनी के राजस्व पर असर पड़ा और उनके लिए अब कर्ज चुकाना मुश्किल हो गया है।

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उच्च मुद्रास्फीति के कारण ब्याज दरों में वृद्धि हुई और परिणामस्वरूप ऋण की लागत बढ़ गई। रुपये के मूल्यह्रास ने उन कंपनियों पर और बोझ डाल दिया है, जिन्होंने विदेशी मुद्रा में उधार लिया था। इन सभी कारकों ने बैंकों को भी एक हानिकारक सार्वजनिक उद्यमों में भी परिवर्तित कर दिया है। इसमे काम करनेवाले कर्मचारी इसी व्यवस्था को बनाए रखना चाहते है ताकि वो “सरकारी नौकरी” का फायदा उठा सकें। पर, मोदी सरकार उनकी सुविधा के बजाए राष्ट्र उत्थान के मूड में लग रही है।

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