‘फास्ट फैशन’ भारतीयों को अनावश्यक कपड़े खरीदने पर विवश करने के साथ-साथ पारंपरिक कपड़ा उद्योग को खत्म कर रहा है

ये खेल जटिल ही नहीं, अनैतिक भी है!

फास्ट फैशन

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क्या आपने कभी यह महसूस किया है कि आपको हर साल नए कपड़े खरीदने पड़ते हैं, जो 1 साल में कुछ ही दिन इस्तेमाल करने के बाद पुराने हो जाते हैं। कपड़ा खरीदना भी स्टेटस सिंबल बन चुका है और हम सभी इस अंधी दौड़ का हिस्सा हैं। फैशन हर फिल्म के साथ बदल जाता है, धुलने के बाद कपड़ों की चमक गायब हो जाती है, नए कपड़े एक मजबूरी बन जाते हैं। अपने घर में ही पता करें तो पिताजी और दादा जी के पास ऐसे कपड़े होंगे, जिसका उन्होंने 2-4 साल नहीं बल्कि 10 साल तक प्रयोग किया होगा। लेकिन क्या हम आज यह कल्पना कर सकते हैं कि हम एक ही कपड़े का प्रयोग 2 साल से अधिक करेंगे। संभवतः नहीं! लेकिन हमारे फैशनसेंस में हुए इन बदलावों का कारण क्या है? फास्ट फैशन और स्लो फैशन, फैशन की दुनिया के दो ट्रेंड हैं।

फास्ट फैशन मॉडल जहां बड़े पैमाने पर उत्पादन और लाभ की मंशा से कार्य करता है, वही स्लो फैशन मॉडल इसके विपरीत परंपरागत हस्तशिल्प को संरक्षित रखने के उद्देश्य से कार्य करता है। फास्ट फैशन मॉडल पूरी तरह से बाजारवाद से प्रभावित है, जिसके अंतर्गत प्रचार से लेकर उत्पादन सब कुछ बाजार को देखकर होता है, जबकि स्लो फैशन मॉडल सांस्कृतिक संरक्षण को बढ़ावा देता है।

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भारत में कमजोर पड़ता जा रहा है हस्तशिल्प

आज भारत में टेक्सटाइल इंडस्ट्री तेजी से आगे बढ़ रही है। भारत में एलेन सॉली, पीटर इंग्लैंड, फैब इंडिया आदि कई बड़े ब्रांड काम कर रहे हैं। मान्यवर जैसी कंपनियां लोगों को भारत के परंपरागत पहनावे भी उपलब्ध करवा रही है, लेकिन जो बिजनेस मॉडल भारत में कार्य कर रहा है वह छोटे दर्जियों, बुनकरों के लिए समस्या बन चुका है। भारत का बिजनेस मॉडल फास्ट फैशन मॉडल है, जिसमें फिल्म स्टार, खिलाड़ी आदि प्रसिद्ध लोग रैंप वॉक तथा टेलीविजन प्रचार ‛टीवी एड’ के माध्यम से फैशन ट्रेंड चलाते हैं। फिर कंपनियां बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है और हम उनकी खरीदारी करते हैं, जबकि कुछ वर्षों पहले तक लोग कपड़े सिलवाने के लिए दर्जी के पास जाते थे।

कपड़ा पहनने के मामले में हस्तशिल्प को बढ़ावा देने का भारत का पुराना इतिहास रहा है। वस्तुतः अंग्रेजों के आने तथा उनके द्वारा भारतीय बाजार पर कब्जा किए जाने के पूर्व भारत में हस्तशिल्प का ही चलन था। कपड़ों पर सोने-चांदी की कलाकारी होती थी, मोती तथा जड़ाऊं रत्न होते थे। लोग हाथों से बने चमड़े के जूते पहनते थे, जिन्हें हर व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार बनाया जाता था। अंग्रेजों ने अंग्रेजी पहनावे को भारतीय अभिजात्य वर्ग की पहचान बना दी। पैंट-शर्ट आधुनिकता की प्रतीक हो गई और धीरे-धीरे भारतीय हस्तशिल्प कमजोर पड़ने लगा। हालांकि, भारत की वस्त्र संस्कृति मिट गई, किंतु भारत के लाखों दर्जियों ने अब भी बाजार में अपनी जगह बनाए रखी थी।

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हानिकारक गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है फास्ट फैशन मॉडल 

साल 1990 के बाद हुए आर्थिक सुधारों ने देश को टेलीविजन प्रदान किया। देसी-विदेशी कंपनियों द्वारा टेलीविजन बनाया जाने लगा। टेलीविजन ने बड़ी कंपनियों को घर-घर प्रचार की सुविधा उपलब्ध कराई और उन्होंने भारतीय दर्जियों को बाजार से बाहर खदेड़ दिया। फास्ट फैशन मॉडल ने पॉलिस्टर और नायलॉन जैसे धागों का प्रयोग बढ़ाया है। वृहद स्तर पर हो रहे उत्पादन ने कपड़ों की गुणवत्ता समाप्त की है। इन कपड़ों के निर्माण से लेकर प्रयोग तक, हर स्तर पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है।

एक शोध के अनुसार फास्ट फैशन मॉडल दुनिया में 10% हानिकारक गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। इन कपड़ों को धोने पर छोटे-छोटे फाइबर पानी के साथ जल स्त्रोतों में मिल जाते हैं, क्योंकि इन कपड़ों का निर्माण पेट्रोलियम व केमिकल पदार्थों के मध्य होता है, इसलिए यह फाइबर जल प्रदूषण का कारण बनते हैं। वहीं, दूसरी ओर स्लो फैशन मॉडल में प्रयोग होने वाले कपड़े प्राकृतिक विधि से बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए रेशम और सूत का निर्माण प्राकृतिक संसाधनों से होता है, इसलिए स्लो फ़ैशन मॉडल इकोफ्रेंडली है।

सरकार को तैयार करनी चाहिए मार्केट स्ट्रेटजी

ऐसे में भारत यदि अपने फास्ट फैशन मॉडल को छोड़कर स्लो फैशन मॉडल की ओर बढ़ता है, तो हम तेजी से विकसित हो रही टेक्सटाइल इंडस्ट्री में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करा सकेंगे। ऐसा नहीं है कि टेक्सटाइल इंडस्ट्री केंद्रीय विनिर्माण की मोहताज है। भारत बड़ी कंपनियों के साथ ही, छोटे किंतु पारंगत हस्त कारीगरों को भी बढ़ावा दे सकता है।

आवश्यकता दो समानांतर फैशनट्रेंड विकसित करने की है। हम अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए बड़ी कंपनियों के उत्पाद पर निर्भर रहे तो भी, विवाह एवं किसी भी उत्सव के अवसर पर पहनने वाले कपड़ों के लिए छोटे कारीगरों को विकल्प के रूप में चुन सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है मार्केटिंग स्ट्रेटजी की, क्योंकि छोटे कारीगर बड़ी कंपनियों के साथ मार्केटिंग के मामले में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। किंतु सरकार ने जिस प्रकार खादी को बढ़ावा दिया है, उसी प्रकार सरकारी स्तर पर प्रयास करके मार्केटिंग स्ट्रेटजी तैयार की जा सकती है और इस समाप्त होते धरोहर को बचाया जा सकता है।

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