भारत एक संघीय देश होने के साथ-साथ एक लोकतान्त्रिक देश भी है। संघीय व्यवस्था का अर्थ है शक्ति और सत्ता का विकेन्द्रीकरण। यही विकेन्द्रीकरण निरंकुशता और एकाधिकार को रोकता है। हमारे पुरखों ने इस लोकतान्त्रिक शक्ति को तीन स्तरों पर विकेंद्रीकृत किया- प्रथम, विधायिका अर्थात संसद और जनप्रतिनिधि, द्वितीय कार्यपालिका अर्थात पुलिस-प्रशासन और तृतीय न्यायपालिका अर्थात देश की विधि व्यवस्था। राष्ट्र के सुगम संचालन हेतु कार्यपालिका को विधायिका के अधीन किया गया।
ज़रा सोचिए अगर ये जन प्रतिनिधि पुलिस प्रशासन के अलावा न्यायपालिका पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लेते तो इनके अत्याचारों के खिलाफ न्याय के लिए आमजन कहां जाते? इसलिए हमारे पुरखों ने न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और सर्वोच्चता सुनश्चित की। पर, अब यही न्यायपालिका इस संवैधानिक सर्वोच्चता की आड़ में यदा-कदा अनर्गल प्रलाप करती है और असहमत होने वाले लोगों को अवमानना के कानूनी पाश में बांध दंडित करती है।
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जातीय विशेषाधिकार वाले बयान में घिरे न्यायमूर्ति चंद्रचूड़
इस अनर्गल प्रलाप का एक उदाहरण देखिये। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने मंगलवार को कहा कि “योग्यता की संकीर्ण अवधारणा” उच्च जाति के व्यक्तियों को उनके “स्पष्ट” जाति विशेषाधिकार को छिपाने की अनुमति देती है।” यहां शब्दों की जटितला आपके समझ को प्रभावित कर सकती है, अतः इस कथन का सरलीकरण आवश्यक हो जाता है। माननीय न्यायाधीश का कहना है कि “उच्च जाति के लोगों ने अपने जाति के आधार पर योग्यता और विशेषाधिकार प्राप्त किया है और आज के युग में जाति आधारित योग्यता और विशेषाधिकार जैसे आरक्षण को खत्म करने की उनकी मांग “योग्यता की संकीर्ण अवधारणा” को प्रदर्शित करती है।” न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने दिल्ली स्थित Indian Institute of Dalit Studies और Rosa Luxemburg Foundation द्वारा आयोजित 13वें बीआर अंबेडकर मेमोरियल लेक्चर को संबोधित करते हुए यह बयान दिया।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ के संबोधन की तीन अहम बातें
न्यायविद माइकल जे सैंडल की पुस्तक ‘The Tyranny of Merit: What’s Become of the Common Good’ का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि “उच्च वर्ग के व्यक्ति अपनी सफलता को अपनी योग्यता के माध्यम से अर्जित बताते हैं जबकि यह “जातीय विशेषाधिकार” का परिणाम हैं। अतः आज के समय में जो जातीय विशेषाधिकार निम्न वर्ग को मिले हुए हैं, वो नितांत आवश्यक हैं। उच्च वर्ग जाति बंधन से मुक्त हो सकता है लेकिन निम्न वर्ग को जातीय विशेषाधिकारों से वंचित करना उनके साथ छलावा होगा।”
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आगे कहा, “जाति के आधार पर भेद दलितों और उच्च जातियों के बीच की खाई को दर्शाता है, जहां दलित समुदाय के सदस्यों को अपमानित किया जाता है और उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है।” उन्होंने यह भी कहा कि इस अपमान के लिए दो लोग जिम्मेदार है संस्था और समाज। कुल मिलाकर अगर उनके सम्बोधन को सारगर्भित और सारांशित किया जाए तो तीन बातें निकलकर सामने आती है। वो तीन बाते हैं : 1.) उच्च वर्ग की सफलता उनके जाति के कारण है, 2.) निम्न वर्ग के स्थिति उच्च वर्ग के शोषण के कारण है, 3.) निम्न वर्ग के जातीय विशेषाधिकार बने रहने चाहिए।
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विधि न्याय का साधन है और न्याय सर्वोच्च विधि। न्यायाधीश का कथन इसी सर्वोच्च विधि का सृजन करता है, अतः उसमे संतुलन नितांत अनिवार्य है। माननीय न्यायमूर्ति का ये कथन कहीं न कहीं न्याय के समानता के उद्घोष पर प्रतिघात करता है और असमानता को वैधानिकता प्रदान करता है। कालांतर में हुए जातीय भेदभाव ने निम्न वर्ग को किंचित कुछ अधिकारों से वंचित रखा हो परंतु भेद की इस खाई को पाटने के बजाए उनके ‘जातीय विशेषाधिकार’ को मूलभूत अधिकार में परवर्तित कर देना कहीं से न्यायोचित नहीं है।
ऐसे कथनों से बचने की है जरुरत
आपकों बता दें कि स्वयं न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ के सुपुत्र हैं। हालांकि, इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया हेतु Collegium System पारदर्शी क्यों नहीं है? वहीं, 4 करोड़ लंबित मामले का उत्तरदायित्व कौन लेगा? ऐसे में, प्रश्न यह भी है कि न्याय प्रणाली की शिथिल गति और उनको मिलनेवाले विशेषाधिकार को उनकी योग्यता से जोड़ा जाए या विशेषाधिकार से। कम से कम जनप्रतिनिधियों को तो हम चुनते हैं पर न्यायाधीश अपनी वैधानिकता तो संवैधानिक मूल्यों से प्राप्त करते हैं। अतः ऐसे कथनों से बचना चाहिए और न्यायालय की भूमिका को अधिक पारदर्शी बनाने की कोशिश करनी चाहिए।