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सिपाही विद्रोह क्या था? उत्पत्ति, प्रभाव, केंद्र और असफलता के कारण

महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पाण्डेय की जयंती स्पेशल!

TFI Desk द्वारा TFI Desk
16 December 2021
in इतिहास
सिपाही विद्रोह
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सिपाही विद्रोह क्या है?

1857 के विद्रोह को सिपाही विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है. बिहार के मंगल पाण्डेय ने बैरकपुर छावनी में अंग्रेज अफसरों पर गोली दाग कर इस विद्रोह को शुरु किया. 1857 का विद्रोह देश का सबसे बड़ा विद्रोह था तो जल्द ही देश के कोने कोने में फैल गया. इस विद्रोह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति दी.

सिपाही विद्रोह 1857, जिसे 1857 के भारतीय विद्रोह के रूप में भी जाना जाता है, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ ब्रिटिश उपनिवेशित भारत के मूल पैदल सैनिकों का विद्रोह था. इसे ब्रिटश शासकों के खिलाफ पहला आंदोलन माना जाता है जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति दी.

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सिपाही विद्रोह की उत्पत्ति

अंग्रेजों के भारत पर नियंत्रण के बाद यहां के लोगों में निरंतर स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न होने लगी थी. कोलकाता में 1857 के मार्च से बहुत पहले शुरू हुई सिपाही विद्रोह को ब्रिटिशों के खिलाफ स्वतंत्रता के लिए पहला युद्ध कहा जाता है. सिपाही विद्रोह हालांकि एक व्यापक आंदोलन था, लेकिन अंततः असफल रहा और 1858 में इसका पाठ्यक्रम समाप्त हो गया. यह मेरठ से शुरू हुआ और अंततः दिल्ली, आगरा, कानपुर और लखनऊ में फैलने लगा.

सिपाही विद्रोह के क्षेत्र

1857 का सिपाही विद्रोह मेरठ के शहर में 10 मई 1857 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के सैनिकों या सैनिकों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ. और देखते ही देखते यह पूरे देश में फैल गया.यह विद्रोह पटना से लेकर राजस्थान की सीमाओं तक फैला हुआ था. विद्रोह के मुख्य केंद्रों में कानपुर, लखनऊ, बरेली, झाँसी, ग्वालियर और बिहार के आरा ज़िले शामिल थे. सिपाही विद्रोह के विद्रोहियों ने दिल्ली सहित उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध के बड़े हिस्सों पर तेजी से कब्जा कर लिया.

विद्रोह के केंद्र

लखनऊ

यह अवध की राजधानी थी. अवध के पूर्व राजा की बेगमों में से एक बेगम हज़रत महल ने विद्रोह का नेतृत्व किया. वहीं ब्रिटिश रेजीडेंसी को घेर कर सर हेनरी की हत्या कर दी गई. लड़ाई साल के अंत तक जारी रही और अंततः 1857 के नवंबर में विद्रोहियों को हराया गया. मार्च 1858 में तीन सप्ताह की भयंकर लड़ाई के बाद शहर को अंग्रेजों ने फिर से कब्जा कर लिया.

कानपुर

सिपाहियों ने 5 जून 1857 को कानपुर पर कब्जा कर लिया. इस विद्रोह का नेतृत्व पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने किया था. नाना साहिब और टांटिया टोपे ने नवंबर 1857 में कानपुर पर कब्जा कर लिया, लेकिन वे इसे लंबे समय तक रोक नहीं पाए क्योंकि 6 दिसंबर 1857 को जनरल कैंपबेल द्वारा इसे फिर से स्थापित किया गया था.

झाँसी

युद्ध छिड़ने पर झांसी विद्रोह का केंद्र बन गया. वहीं 22 वर्षीय रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया. क्योंकि उनके पति की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने उनके दत्तक पुत्र को झाँसी के सिंहासन पर बैठाने से इनकार कर दिया. ब्रिटिश सेना ने झांसी को घेर लिया. हालांकि, मजबूत नेतृत्व की कमी और उचित समन्वय के कारण विद्रोह विफल रहा.

ग्वालियर

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और नाना साहेब के सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर उन्होंने ग्वालियर तक मार्च किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया.वह ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ मजबूती से लड़ी, लेकिन अंतत: अंग्रेज़ों से हार गई.वहीं ग्वालियर पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था.

बिहार

विद्रोह का नेतृत्व वीर कुंवर सिंह जी ने किया, जो जगदीशपुर, बिहार के एक शाही घराने से थे.

दिल्ली

12 मई 1857 को सिपाहियों द्वारा दिल्ली को जब्त कर लिया गया था. वहीं महल और शहर पर भी कब्जा कर लिया गया था. सिपाहियों के कड़े प्रतिरोध के बावजूद, अंग्रेजों ने 20 सितंबर को शहर पर कब्जा कर लिया.

सिपाही विद्रोह में ब्रिटिश भारतीय सेना का विद्रोह

एक अफवाह यह फैल गई कि नई ‘एनफिल्ड’ राइफलों के कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता है.सिपाहियों को इन राइफलों को लोड करने से पहले कारतूस को मुँह से खोलना पड़ता था. हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों ने उनका इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया. बैरकपुर में 34 वीं इन्फैंट्री के मंगल पांडे ने नए कारतूस के उपयोग के खिलाफ एक अधिकारी पर गोलीबारी करके विद्रोह कर दिया. जहां उन्हें गिरफ्तार कर 8 अप्रैल को फांसी पर लटका दिया गया. 9 मई, 1857 को मेरठ में 85 भारतीय सैनिकों ने नए राइफल का प्रयोग करने से इनकार कर दिया तथा विरोध करने वाले सैनिकों को दस-दस वर्ष की सज़ा दी गई.

सिपाही विद्रोह के प्रभाव

इस विद्रोह ने हर भारतीय को प्रभावित किया था. जिसमें इंग्लैंड में रहने वाले ब्रिटिश भी शामिल थे. कई ब्रिटिश और विरोधी ब्रिटिश के समूहों आपस में विभाजित हो गए. हजारों देशी सेना-पुरुषों की हत्या कर दी गई थी. हालाँकि, लंदन में ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रेस में इन हत्याओं को बहुत उचित ठहराया था.

और पढ़े: नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना कब हुई? 1950, 1991 या 2008

विद्रोह की असफलता के कारण

सीमित प्रभाव: हालाँकि विद्रोह काफी व्यापक था, लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा इससे अप्रभावित रहा. वहीं विद्रोह मुख्य रूप से दोआब क्षेत्र तक ही सीमित था जैसे- सिंध, राजपूताना, कश्मीर और पंजाब के अधिकांश भाग. बड़ी रियासतें, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर और कश्मीर के लोग भी विद्रोह में शामिल नहीं हुए. दक्षिणी प्रांतों ने भी इसमें भाग नहीं लिया.

प्रभावी नेतृत्व की कमी : विद्रोहियों में एक प्रभावी नेता का अभाव था. हालाँकि नाना साहेब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई आदि बहादुर नेता थे, लड़ाई कई मोर्चो पर लड़ी जा रही थी और इसी कारण से वे समग्र रूप से आंदोलन को प्रभावी नेतृत्व प्रदान नहीं कर सके.

सीमित संसाधन: सत्ताधारी होने के कारण रेल, डाक, तार एवं परिवहन तथा संचार के अन्य सभी साधन अंग्रेज़ों के अधीन थे. इसलिये विद्रोहियों के पास हथियारों और धन की कमी थी. मध्य वर्ग की भागीदारी नहीं अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मध्यम वर्ग, बंगाल के अमीर व्यापारियों और ज़मींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की मदद की.

आशा करते है कि सिपाही विद्रोह से जुड़ा यह लेख आपको पसंद आया होगा और ऐसे ही रोचक जानकारी, इतिहास और न्यूज़ के लिए हमें सब्सक्राईब करना ना भूले.

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