महादजी शिंदे : पानीपत के राख से निकले वो शूरवीर जिन्होंने महाराष्ट्र का भाग्य बदल दिया

एक ऐसा शासक जिसने टीपू सुल्तान के वर्चस्व की हवा निकाल दी थी!

महादजी शिंदे

महादजी शिंदे – 14 जनवरी 1761, यह वो दिन था जब अखंड भारत को उसका सबसे भीषण आघात लगा। यह वो दिवस था जब हिंदवी स्वराज्य को आर्यावर्त के प्राचीन सीमाओं तक ले जाने के प्रयास असफल हुए और अफ़गान, रूहेल एवं अवध की संयुक्त सेना के हाथों हिंदवी स्वराज्य की पराजय हुई। सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में लगभग 65000 मराठा योद्धाओं ने 63000 विदेशी आक्रान्ताओं का सामना किया, जिनका नेतृत्व अफगानी आक्रांता अहमद शाह दुर्रानी कर रहा था। इस युद्ध में वह विजयी हुआ, उसकी सेना ने साथ में आए कई निर्दोष तीर्थयात्रियों का नरसंहार किया और कई को बंदी बनाया परंतु मराठा योद्धाओं का शौर्य ऐसा था कि कोई भी आक्रांता अपने मूल उद्देश्य में सफल नहीं हो सका।

पराजित होकर भी मराठा योद्धा हिंदवी साम्राज्य एवं भारतवर्ष के आत्मसम्मान की रक्षा करने में सफल रहे थे  परंतु उन्होंने इसका बहुत भारी मूल्य भी चुकाया था। इसी पराजय से कुछ ऐसे योद्धाओं का सृजन हुआ, जो अखंड भारत को असीमित शिखर तक ले जा सकते थे, जितनी हानि भारत को मराठा साम्राज्य के पराजय से नहीं हुई, उससे अधिक इन शूरवीरों के असामयिक मृत्यु से हुई। ये इस राष्ट्र का दुर्भाग्य था कि इस परमवीर योद्धा की मृत्यु ऐसे समय हुई, जब इनकी आवश्यकता सबसे अधिक थी, अन्यथा यह योद्धा अपने आप में ब्रिटिश साम्राज्य समेत संसार की हर शक्ति का सर्वनाश करने के लिए उद्यत था।

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महान मराठा महादजी शिंदे

हम बात कर रहें है मराठा साम्राज्य के ‘संकटमोचक’, श्रीमंत सरदार शिंदे बहादुर महादजी शिंदे, जिनका न केवल पानीपत के युद्ध में नवोदय हुआ, अपितु उन्होंने भारतवर्ष के खोए गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। 3 दिसंबर 1730 को राणोजी शिंदे के घर महादजी शिंदे ने जन्म लिया था। वे उन चन्द योद्धाओं में सम्मिलित थे, जो पानीपत के तृतीय युद्ध में जीवित बच सके थे। तदनंतर, सात वर्ष उसके उत्तराधिकार संघर्ष में बीते (१७६१-६८)। स्वाधिकार स्थापन के पश्चात् महादजी का अभूतपूर्व उत्कर्ष आरंभ हुआ (१७६८)।  जब युवा पेशवा माधवराव ने शासन संभाला, तो उनके शत्रु जितने उनके साम्राज्य के बाहर थे, उतने ही भीतर भी।

माधवराव अपने पूर्वज पेशवा बाजीराव बल्लाड़ की भांति परिपक्व एवं कुशल नेतृत्व से परिपूर्ण थे। वे भली-भांति परिचित थे कि योग्य नेतृत्व ही हिंदवी स्वराज्य को उसका खोया हुआ सम्मान पुनः दिला सकता है। उनके नेतृत्व में सर्वप्रथम ये अधिनियम स्थापित किया गया कि जो भी अपने कार्यों में भ्रष्ट सिद्ध हुआ या जिसने भी राष्ट्रद्रोह किया, उसे सार्वजनिक दंड दिया जाएगा, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली और शक्तिशाली क्यों न हो। इसका उदाहरण उन्होंने अपने ही परिवार के माध्यम से दिया जब उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर अपने ही काका रघुनाथ राव को कारावास में डालने का निर्णय लिया था।

पेशवा माधवराव भट्ट के नेतृत्व में नाना फड़नवीस जैसे कूटनीतिज्ञ, राम शास्त्री प्रभुने जैसे न्यायाधीश एवं महादजी शिंदे जैसे सेनापति को खूब शक्तियां दी गई, जिनके कारण कुछ ही वर्षों में मराठाओं ने फिर से अपना परचम लहराया। जितनी भूमि मराठा साम्राज्य ने खोई थी, पेशवा माधवराव भट्ट के शासनकाल में उन्होंने उससे ज्यादा भूमि पुन: प्राप्त कर ली।

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महादजी शिंदे ने टीपू सुल्तान के वर्चस्व की हवा निकाल दी थी

पेशवा माधवराव ब्रिटिश साम्राज्य के खतरे से भी परिचित थे और वे उन्हें इस्लामी आक्रान्ताओं जितना ही खतरनाक समझते थे। जब मैसूर के सुल्तान हैदर अली पर उन्होंने आक्रमण किया, तो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें सहायता का प्रस्ताव दिया। जिसे पेशवा माधवराव ने अस्वीकार कर दिया क्योंकि सांप से मित्रता करना अर्थात अपने ही साम्राज्य का विध्वंस करने के समान था। जब तक वे जीवित थे, तब तक ब्रिटिश साम्राज्य बंगाल से आगे अपने फन नहीं फैला पाया।

लेकिन पेशवा माधवराव की असामयिक मृत्यु के बाद भी श्रीमंत शिंदे ने पेशवा माधवराव के स्वप्न को अक्षुण्ण रखा। पेशवा के शक्तिसंवर्धन के साथ, उसने अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। पेशवा की ओर से दिल्ली पर अधिकार स्थापित कर (१० फरवरी, १७७१), उसने शाह आलम को मुगल सिंहासन पर बैठाया। इस प्रकार, पानीपत में खोये, उत्तरी भारत पर मराठा प्रभुत्व का उसने गौरवान्वित किया। माधवराव की मृत्यु से उत्पन्न अव्यवस्था तथा उससे उत्पन्न प्रथम एंग्लो मराठा युद्ध में उसने रघुनाथराव (राघोबा) तथा अंग्रेजों के विरुद्ध नाना फड़नवीस और शिशु पेशवा का पक्ष ग्रहण किया।

ये महादजी शिंदे ही थे, जिन्होंने टीपू सुल्तान के कथित वर्चस्व की हवा निकाल दी थी। मैसूर के इस्लामिक शासन के संस्थापक हैदर अली के पुत्र थे और इनका वास्तविक नाम था सुल्तान फ़तेह अली खान। निस्संदेह आर्टिलरी के क्षेत्र में इन्होने कुछ नवीन उपयोग किये परन्तु उनका योगदान देश के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जिनका भारत के तकनीकी विकास में राजीव गांधी का था।

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सेनाओं की भिड़ंत में जीत हिंदवी स्वराज्य की हुई 

अब जब बात मराठा की उठी ही है, तो टीपू सुल्तान की वास्तविकता भी उजागर करते हैं। वामपंथी इतिहासकारों के दावों के ठीक उलट टीपू सुल्तान एक भीरु, भगोड़ा सैनिक था, जो दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रखकर अपने आप को बड़ा योद्धा समझते थे परन्तु हिन्दवी स्वराज्य के अंतिम प्रभावशाली योद्धा महादजी शिंदे के नेतृत्व में मराठा सेना ने मैसूर सल्तनत के लड़ाकों को गजेंद्रगढ़ के युद्ध में पटक-पटक कर पीटा। 1787 में गजेन्द्रगढ़ के समझौते के अंतर्गत टीपू को मराठा योद्धाओं को 48 लाख रुपये का हर्जाना, प्रतिवर्ष 12 लाख रुपये का न्योता, और हैदर अली द्वारा नियंत्रण में लिए गए समस्त क्षेत्रों को स्वतंत्र करने पर बाध्य होना पडा। टीपू को बस बदले में नवाब फ़तेह अली खान की मानद उपाधि मिलेगी।

पेशवा माधवराव भट्ट ने सभी को चकित करते हुए हैदराबाद के निज़ाम की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया परंतु उसके पीछे की मंशा स्पष्ट थी– वे न तो मैसूर के विष को अत्यधिक बढ़ने देना चाहते थे और ना ही ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव को बढ़ने देना चाहते थे। जब मैसूर पर उन्होंने आक्रमण किया था, तो उनका सामना हैदर के आक्रामक पुत्र फतेह अली से भी हुआ, जिसे आज वामपंथी इतिहासकार टीपू सुल्तान के नाम से महिमामंडित करते हैं। जिस टीपू सुल्तान का इतना महिमामंडन किया जाता है, वह तो मराठा सेना के समक्ष टिक ही नहीं पाया एवं कायरों की भांति पीठ दिखाकर युद्धभूमि से भाग लिया। तीन बार मैसूर और हिंदवी स्वराज्य की सेनाओं की भिड़ंत हुई और तीनों बार हिंदवी स्वराज्य की विजय हुई।

ये कथा है धर्म के एक निश्छल सेवक और वीर योद्धा की

कुशाग्रबुद्धि महादजी व्यक्तिगत जीवन में सरल, तथा स्वभाव से सहिष्णु, धैर्यशील और उदार था। उसमें नेतृत्व शक्ति और सैनिक प्रतिभा तो थी ही, राजनीतिज्ञता भी असाधारण थी। महादजी के मुख्य सल्लागार और सरसेनापती शेणवी (रेगे,केरकर,लाड परीवार से थे। उसके महान् कार्य, विषम परिस्थितियों तथा आंतरिक वैमनस्य – नाना फड़निस के द्वेषी स्वभाव और तुकोजी होल्कर के शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बावजूद केवल स्वावलंबन के बल पर संपन्न हुए। ये महादजी शिंदे ही थे, जिनके नेतृत्व में लाहौर को अफगान आक्रन्ताओं के चंगुल से मुक्त कराया गया।

परंतु देश का दुर्भाग्य देखिए। जैसे अल्पायु में पेशवा माधवराव का निधन हुआ। वैसे ही 12 फरवरी 1794 को अपने शिखर पर महादजी शिंदे की असामयिक मृत्यु हो गई। यदि ये कुछ वर्ष और जीवित रहते, तो शायद भारत कभी परतंत्र नहीं होता। यदि वे तनिक और जीवित रहते तो हमारे भारत का मानचित्र कुछ और ही होता। ये कथा है, अखंड भारत के एक वीर योद्धा के सेवा की, ये कथा है धर्म के एक निश्छल सेवक की।

स्रोत : The Great Maratha Mahadaji Scindia

 

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