मीराबाई के पद और सम्पूर्ण जीवन परिचय

मीराबाई के पद

मीराबाई के पद

(1) मीराबाई के पद

मन रे परसी हरी के चरण
सुभाग शीतल कमल कोमल
त्रिविध ज्वालाहरण
जिन चरण ध्रुव अटल किन्ही रख अपनी शरण,
जिन चरण ब्रह्माण भेद्यो
नख शिखा सिर धरण,
जिन चरण प्रभु परसी लीन्हे करी गौतम करण,
जिन चरण फनी नाग
नाथ्यो गोप लीला करण,
जिन चरण गोबर्धन धर्यो गर्व माधव हरण
दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण
मीरा मगन भाई
लिसतें तो मीरा मगनभाई

(2) मीराबाई के पद

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो. पायो जी मैंने
जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो. पायो जी मैंने
खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो. पायो जी मैंने
सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो. पायो जी मैंने
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो. पायो जी मैंने

(3) मीराबाई के पद दोहे

मेरे तो गिरधर दूसरों न कोई
जोके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई.

(4) मीराबाई के पद

जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहूँ न पायों चैन।।
सबद सुनत मेरी छतियाँ काँपे मीठे-मीठे बैन।

(5) मीराबाई के पद

बिरह कथा कांसुं कहूँ सजनी, बह गईं करवत ऐन।
कल परत पल हरि मग जोंवत भई छमासी रेण।।

(6) मीराबाई के पद

दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण।
मीरा मगन भाई लिसतें तो मीरा मगनभाई।।

मीराबाई के पद रचना

मीरांबाई की पदावली, राग सोरठ के पद, राग गोविंद, गीत गोविंद टीका, नरसी का मायरा

मीराबाई का जीवन परिचय

मीरा बाई को भगवान श्रीकृष्ण की सबसे बड़ी भक्त माना जाता है. मीरा बाई ने जीवनभर भगवान कृष्ण की भक्ति की और कहा जाता है कि उनकी मृत्यु भी भगवान की मूर्ति में समा कर हुई थी. कृष्ण भक्ति में लीन रहने वाली मीरा बाई के जीवन में भक्ति के अलावा किसी को स्थान प्राप्त नहीं था. मीरा के जीवन का एक मात्र लक्ष्य था, अपने कृष्ण को याद करना, उन्हें प्रेम करना, उन्ही से सुख दुःख कहना. अपना सर्वस्व उन्होंने श्री कृष्ण को ही मान लिया था.

मीराबाई का जन्म 1498 के लगभग हुआ था.मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेवाड़ राजकुल की राजकुमारी थीं. मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं. मीरा जब केवल दो वर्ष की थीं, उनकी माता की मृत्यु हो गई. जिसके बाद इनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए. मीरा का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के गंभीर उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे और साधु-संतों का आना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था. इस प्रकार मीरा बचपन से ही साधु-संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं.

मीरा बाई की जयंती पर कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड तो नहीं हैं. आश्विन की पूर्णिमा के दिन मीरा बाई का जन्म माना जाता हैं. वहीं इस दिन शरद पूर्णिमा महा रास दिवस के रुप में भी मनाया जाता है. मीराबाई के जीवन से जुड़ी कई बातों के को आज भी रहस्य माना जाता है. गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तक भक्त-चरितांक के अनुसार मीराबाई के जीवन, पद और मृत्यु से जुड़ी कुछ बातें बताई गई हैं.

विवाह

मीरा बाई का विवाह राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोज राज के साथ सन 1516 में संपन्न हुआ. उनके पति भोज राज दिल्ली सल्तनत के शाशकों के साथ एक संघर्ष में सन 1518 में घायल हो गए और इसी कारण सन 1521 में उनकी मृत्यु हो गयी. उनके पति के मृत्यु के कुछ वर्षों के अन्दर ही उनके पिता और श्वसुर भी मुग़ल आक्रांता बाबर के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए. ऐसा कहा जाता है कि पति की मृत्यु के पश्चात धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं.

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कृष्ण भक्ति

मीरा बाई श्री कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थी. पति की मृत्यु के बाद इनकी भक्ती बढ़ती चली गई. वह अक्सर मंदिर जाती थी. मंदिर जाकर वह कृष्णभक्तों के सामने व कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती रहती थीं. मीराबाई की कृष्णभक्ति और इस प्रकार से नाचना और गाना उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा जिसके वजह से कई बार उन्हें विष देकर मारने की कोशिश की गई.

समाज में मीराबाई को एक विद्रोही माना गया क्योंकि उस समय के धार्मिक क्रिया-कलाप में किसी राजकुमारी और विधवा को उस समय की परंपरागत नियमों के अनुकूल रहकर ही कार्य करने होते थे.पर मीरा बाई का कृष्ण भजन में लीन रहना, उनका नाचना गाना यह लोगों को पसंद नहीं था. वह अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु-संतों व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं.

ऐसा कहा जाता है कि सन्‌ 1533 के आसपास मीरा को ‘राव बीरमदेव’ ने मेड़ता बुला लिया. सन्‌ 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया. जिसके बाद बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ले ली और मीरा बाई ब्रज की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं. सन्‌ 1539 में मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं. वृंदावन में कुछ साल निवास करने के बाद मीराबाई सन्‌ 1546 के आस-पास द्वारका चली गईं.

मृत्यु

ऐसा माना जाता है कि बहुत समय तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं. जहाँ सन 1560 में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं. मीराबाई के पद सम्पूर्ण उत्तर भारत में काफी प्रसिद्द है और कृष्ण भक्त इनके पद का गायन करते है. इतिहास और संस्कृति से जुड़े लेख और न्यूज़ पढ़ने के लिए हमें सब्सक्राइब करना ना भूले

 

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