रमेशचंद्र मजूमदार: भारत के महानतम इतिहासकारों में से एक जिन्हें कभी श्रेय नहीं दिया गया

तुम मुझे और मेरी लिखी हुई कृतियों को तो मिटा दोगे पर उसे नहीं जो मेरे दिमाग में है!

क्या आप रमेशचन्द्र मजूमदार को जानते हैं? अगर नहीं जानते तो यह सिर्फ आपका दुर्भाग्य ही नहीं बल्कि इतिहास के राजनीतिक एवं कुत्सित विकृतिकरण का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंग्रेजों के पूर्व भारत पर इस्लामी शासन था, जिसने छल और बल के माध्यम से भारत के धर्म और संस्कृति को विकृत किया। बड़े पैमाने पर हिंदुओं का नरसंहार और धर्मांतरण किया और जो धर्मांतरित हो मुसलमान बने उन्होंने हीन भावना से ग्रसित बचे हुए हिंदुओं के नरसंहार, धर्मांतरण और एतिहासिक विकृतिकरण की अंतहीन प्रक्रिया शुरू कर दी, जो आज तक चालू है। 700 सालों के मुस्लिम शासन में 250 साल अंग्रेजों ने राज़ किया।

मुसलमानों के शरीयत को उन्होंने हाथ तक नहीं लगाया पर पाश्चात्य संस्कृति के चक्कर में हिन्दू अंग्रेज बन गए। अंगेज़ों के जाने के बाद मुसलमानों ने पाकिस्तान ले लिया और यहां मुसलमानों ने भारत की शिक्षा पद्दती। आज़ादी के पश्चात भारत का शिक्षा मंत्रालाय मुख्यतः मुसलमानों के पास ही रहा और उसके बाद इतिहास के हर पन्ने पर हिंदुओं को जलील किया गया। इसलिए आप रमेश चन्द्र मजूमदार को नहीं जानते क्योंकि उनके जैसे सत्यपरक, तार्किक और प्रामाणिक इतिहासकारों को लिखने का मौका ही नहीं मिला। सभी मुग़लों के महिमामंडन में लगे थे। चलिये हम आपको बताते हैं कि रमेश चन्द्र मजूमदार कौन थे?

रमेशचन्द्र मजूमदार: एक विस्मृत इतिहासकार

डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार जो भारत के सबसे प्रतिष्ठित और एक विवादित इतिहासकार हैं। भारतीय इतिहास के प्रति उनके असाधारण मौलिक योगदान के कारण उन्हें इतिहास का अग्रणी माना जाता है। जदुनाथ सरकार से प्रेरित और सर आशुतोष मुखर्जी द्वारा पल्लवित मजूमदार ने प्राचीन भारत के अध्ययन में अपने अकादमिक करियर की शुरुआत की। अगले पांच दशकों में उन्होंने बंगाल के क्षेत्रीय इतिहास, भारतीय सांस्कृतिक प्रभाव की देखरेख, प्राचीन हिंदू उपनिवेशवादियों और आधुनिक भारतीय इतिहास पर बड़े पैमाने पर शोध किया।

मजूमदार 4 दिसंबर 1888 को खंडारपारा जिले, फरीदपुर (अब के बांग्लादेश) में जन्मे। वह तीन भाइयों में सबसे छोटे थे। बहुआयामी विद्वान सर आशुतोष मुखर्जी की सलाह पर आर.सी. मजूमदार जुलाई 1914 में कलकत्ता विश्वविद्यालया के प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग में एक व्याख्याता के रूप में विश्वविद्यालय में शामिल हुए। उसके पहले वे कॉलेज ऑफ इंडोलॉजी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और फिर नागपुर विश्वविद्यालय में पहले प्रिंसिपल के रूप में नियुक्त हुए।

वह शिकागो और पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के गेस्ट प्रोफेसर थे। वह ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी और बॉम्बे के मानद फेलो थे। वह कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के अध्यक्ष बने इसके साथ-साथ भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना के मानद सदस्य थे। उन्हें भारतीय इतिहास कांग्रेस और अखिल भारतीय ओरिएंटल सम्मेलन का अध्यक्ष भी बनाया गया। उन्हें रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर, कलकत्ता का अध्यक्ष भी बनाया गया था।

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मजूमदार की कृतियां बार-बार उनकी याद दिलतीं हैं

आचार्य आर.सी. मजूमदार ने मुख्य रूप से अंग्रेजी और बंगाली में कुल सैंतीस खंड और सैकड़ों लेख और पत्र लिखे। बंगाल का प्रारंभिक इतिहास, ढाका, 1924, चंपा (सुदूर पूर्व में प्राचीन भारतीय उपनिवेश), सुवर्णद्वीप (सुदूर पूर्व में प्राचीन भारतीय उपनिवेश), बंगाल का इतिहास, कंबुजा देसा या कंबोडिया में एक प्राचीन हिंदू कॉलोनी, भारत का एक उन्नत इतिहास जैसी मानद पुस्तकें लिखीं। ग्यारह खंडों में भारतीय लोगों का इतिहास और संस्कृति, तीन खंडों में भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, वाकाटक, पूर्व में हिंदू उपनिवेश, भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया और प्राचीन लक्षद्वीप का इतिहास भी उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं।

 

फिर आखिर ऐसा क्या था जो इस इतिहासकार का नाम हमे इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलता? उनका पहला काम ‘प्राचीन भारत में कॉर्पोरेट जीवन’ 1919 में प्रकाशित हुआ था, जब भारतीय इतिहास लेखन ज्यादातर विदेशियों के हाथ में छोड़ दिया गया था। इस काम ने यूरोपीय लेखकों की प्रचलित नस्लीय श्रेष्ठता को चुनौती दी और प्राचीन भारत पर अनुसंधान की गुणवत्ता और नए दृष्टिकोण के लिए यूरोपीय विद्वानों से प्रशंसा प्राप्त की।

एकमात्र इतिहासकार थे जिन्होंने…

दक्षिण-पूर्व एशिया के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में भारत की भूमिका का व्यापक रूप से पता लगाया। उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में हिंदू साम्राज्यों और सुदूर पूर्व में हिंदू उपनिवेशों पर लिखा। एक प्रशंसक होने के नाते, उन्होंने विवेकानंद पर एक संक्षिप्त ऐतिहासिक समीक्षा लिखी, जिसमें उन्होंने कई ऐसे तथ्य प्रकाश में लाए जो पहले ज्ञात नहीं थे।

दिसंबर 1952 में शिक्षा मंत्रालय ने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का आधिकारिक इतिहास लिखने के लिए संपादकों का बोर्ड नियुक्त किया। डॉ आर सी मजूमदार के निर्देशन में बोर्ड में इतिहासकार और राजनेता दोनों शामिल थे परंतु, इसके अध्यक्ष और सचिव “कट्टर कांग्रेसी” थे। एक विशिष्ट राजनीतिक दल से राजनेताओं की भागीदारी आधिकारिक इतिहास लिखने के लिए अनुकूल नहीं थी। इस पक्षपातपूर्ण रवैये का उन्होंने विरोध किया।

ना भूलें रमेशचन्द्र मजूमदार को

बाद में, मजूमदार ने स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे इतिहास को ‘भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास’ शीर्षक से तीन खंडों की श्रृंखला में प्रकाशित किया। इस पुस्तक में मजूमदार ने हिंदू मुस्लिम संबंध, स्वदेशी आंदोलन, गांधीजी की भूमिका, उग्रवादी राष्ट्रवाद जैसे विभिन्न विषयों पर कई प्रचलित धारणाओं को साहसपूर्वक चुनौती दी।

1857 विद्रोह पर तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ संघर्ष के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपनी पुस्तक- “द सिपाही विद्रोह और 1857 का विद्रोह” प्रकाशित किया। उनके अनुसार भारत के स्वतंत्रता संग्राम की उत्पत्ति  अंग्रेजी-शिक्षित भारतीय मध्यम वर्ग और स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत 1905 में बंगाल भंग आंदोलन से हुई। स्वतंत्रता संग्राम पर उनके विचार उनकी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ द फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया” में पाए जाते हैं। वह स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस के प्रशंसक थे।

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और कांग्रेस के पक्षपातपूर्ण रवैये और भारतीय गौरव के मानमर्दन का विरोध करने की सज़ा उन्हें दी गयी। उन्हें हर पद और ओहदों से हटा दिया गया। हालांकि, वो ढाका विश्वविद्यालय के कुलपति बने और कई पुस्तकें लिखी। मजूमदार नें एक बार कहा था- “तुम मुझे और मेरी लिखी हुई कृतियों को तो मिटा दोगे पर उसे नहीं जो मेरे दिमाग में है।“ उनकी योग्यता भी तभी सार्थक होगी जब भारत की जनता उन्हें अपने दिल में भी अमर रखे और इतिहास के पन्नों में भी।

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