वैश्विक स्तर पर सबसे शक्तिशाली राष्ट्र होने का गौरव हासिल करने वाला अमेरिका वास्तव में किसी का सहयोगी नहीं है । वह सिर्फ अपने स्वार्थ का साथी है। अफगानिस्तान में 20 साल तक राज करने वाले अमेरिका ने कई विवादों और घटनाओं को अंजाम दिया और ईरान के साथ भी उसका बर्ताव छलपूर्ण ही रहा है। वहीं, चीन और रूस को साधने के लिए वह भारत का साथ देता है लेकिन ड्रैगन के साथ लड़ाई में वो कितनी भूमिका निभाता है, ये हमने वर्ष 1962(भारत-चीन युद्ध) में ही समझ लिया था। फ़्रांस को छला, जापान को ठगा और अंततः ब्रिटेन भी उसके पाले में आ गया है। आइये, हम आपको अमेरिका के छिटकते सहयोगियों और उसके कारणों से अवगत कराते हैं।
अमेरिका का पहला सहयोगी : जापान
हाल ही में, जापान के योमिउरी समाचार ने बताया कि टोक्यो ब्रिटेन के साथ अपने F-X फाइटर जेट के इंजन को संयुक्त रूप से विकसित कर रहा है। यह अमेरिका की रणनीतिक रूप से हार है क्योंकि अगर आपका सबसे प्रमुख सामरिक साझेदार F-X फाइटर जेट के इंजन निर्माण हेतु यूनाइटेड किंगडम का साथ लेता है तो यह निश्चित रूप से US की कूटनीतिक हार है। तकनीकी क्षेत्रों में संयुक्त राज्य अमेरिका किसी अन्य देश के साथ अपने तकनीकी ज्ञान को साझा नहीं करेगा, ये बात जपान भी जनता है। जापान और UK एक मजबूत रडार तकनीक पर भी आपसी सहयोग कर रहे हैं। यूनाइटेड किंगडम और जापान लंबी दूरी की Air-To-Air मिसाइल का उन्नत संस्करण बनाने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। इसके अलावा, रोल्स-रॉयस एफ-एक्स और टेम्पेस्ट कार्यक्रम के विकास पर भी सहयोग कर सकता है।
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अमेरिका का दूसरा सहयोगी : भारत
भारत ने भी अमेरिका के धमकियों को दरकिनार करते हुए सतह से हवा में मार करने वाली S-400 रक्षा प्रणालियों की डिलीवरी प्राप्त करना शुरू कर दिया है। इस सौदे को भी अमेरिका के गीदड़ भभकियों से गुज़रना पड़ा। यहां तक की भारत की कूटनीतिक संप्रभुता प्रभावित करने की भी कोशिश की गई। हाल ही में, यह पूछे जाने पर कि क्या भारत रूस निर्मित एस-500 खरीदने वाला पहला देश होगा?
रूस के उप प्रधानमंत्री यूरी बोरिसोव ने रूस की TASS समाचार एजेंसी को बताया कि “इसमें कोई संदेह नहीं है पर पहले हम इस प्रणाली को अपने सैनिकों को सौंप दें फिर भारत भी सूची में पहले स्थान पर होगा अगर वह इन उन्नत आयुधों को खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है।” भारत ने भी संकेत दिया है कि वह USA की धमकी के आगे नहीं झुकेगा और अपना स्टैंड लेगा। भारत जान चुका है कि महत्वपूर्ण क्षणों में बाइडन प्रशासन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत ईरान परमाणु मुद्दे, CAA-NRC, गलवान और पाकिस्तान पर अमेरिका के दोमुंहे रवैये से परिचित है।
अमेरिका का तीसरा सहयोगी : फ़्रांस और यूरोपियन यूनियन
चीन का मुकाबला करने के लिए ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के साथ रणनीतिक इंडो-पैसिफिक गठबंधन बनाने के अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के फैसले से फ्रांस और यूरोपीय संघ भी नाराज हैं। अमेरिका के एशिया सुरक्षा पहल से ऐसा प्रतीत होता है कि यूरोप के साथ अमेरिका का सहयोग अचानक समाप्त हो गया है। AUKUS (त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौता) विशेष रूप से फ्रांस और यूरोपीय संघ को बाहर करता है। इतना ही नहीं ऑस्ट्रेलिया को Submarine डील से पीछे हटाने के कारण फ़्रांस US और UK से वैसे भी नाराज़ है। इसी का जवाब देते हुए फ़्रांस ने UAE के साथ कुल 80 राफेल का सौदा किया है और भारत के साथ बहुध्रुवीय विश्व बनाने का संकल्प लिया है।
चौथा सहयोगी : ब्रिटेन
ब्रिटेन भी कई मुद्दों पर अमेरिका से नाराज़ दिख रहा है। ब्रिटिश सांसदों ने प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन पर तालिबान के हाथों में पतन देख अपना गुस्सा निकाला था। उन्होने इसे खुफिया, नेतृत्व और नैतिक कर्तव्य की विफलता बताते हुए संसद में इसकी निंदा की थी। वहीं, ब्रिटेन और अमेरिका की बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों पर दो प्रतिशत डिजिटल सेवाकर लगाने की यूरोपीय योजना असमंजस में हैं। कारण UK का मानना है कि Google और Facebook जैसी फर्मों को ब्रिटेन में मिलने वाले लाभों के लिए करो का भुगतान करना चाहिए।
लेकिन अमेरिका ने इस तरह के कर को मनमाना बताया और ब्रिटेन को ब्रिटिश कारों की बिक्री पर पारस्परिक कर लगाने की धमकी दी। अमेरिका ने यह भी चेतावनी दी है कि यदि डिजिटल कर लगाया जाता है तो Brexit (युनाइटेड किंगडम का यूरोपीय संघ से बहिर्गमन) के बाद ब्रिटेन के साथ एक व्यापार समझौते पर सहमत होना कठिन हो सकता है। बता दें कि ईरानी जनरल सुलेमान की मृत्यु पर भी US ने UK को अंधेरे में रखा था।
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ऐसे में, अमेरिका को यह सम्झना होगा कि जो सबका अमेरिका होता है, वो असल में किसी का सहयोगी नहीं होता। इन सभी घटनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कहीं बाइडन के उदारवाद के चक्कर में अमेरिका अपनी कूटनीतिक ताकत भी ना खो दे।