जब से उत्तराखंड राज्य बना है, कांग्रेस और भाजपा दोनों यहां पर प्रभावी राजनीतिक शक्ति रही है। भाजपा के पास जनाधार और कार्यकर्ता दोनों है, किंतु प्रदेश इकाई की गुटबाजी ने भाजपा को उत्तराखंड की एकमात्र राजनीतिक शक्ति बनने से रोक रखा है। वहीं, दूसरी ओर कांग्रेस के पास हरीश रावत जैसे वरिष्ठ नेता मौजूद हैं, लेकिन कांग्रेस शासन में हुए भ्रष्टाचार के कारण पार्टी को व्यापक जनसमर्थन प्राप्त नहीं है।किंतु इस बार भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के कारण कांग्रेस को सत्ता में वापसी का मौका मिल सकता था, जिसे कांग्रेस अपनी गलतियों से गंवा चुकी है।
गौरतलब है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा में असफल मुख्यमंत्री रहे। उत्तराखंड में भूमि जिहाद एक प्रमुख समस्या बन चुका है, किंतु त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने कार्यकाल में इस बारे में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया, साथ ही देवस्थानम बोर्ड के गठन को लेकर भी जमकर बवाल मचा, जिस कारण भाजपा को भारी नुकसान होने की संभावना थी। इसी कारण पार्टी को चुनाव से थोड़े समय पूर्व ही मुख्यमंत्री बदलना पड़ा, किंतु पुष्कर सिंह धामी के आने से भी पार्टी की स्थिति बहुत मजबूत होती नहीं दिख रही है।
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‘सेक्युलर’ बनने की राह पर निकल चुके थे रावत!
त्रिवेंद्र सिंह रावत के शासनकाल में उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने कई विवादास्पद फैसले लिए, जिनमें सबसे अधिक विवाद चार धाम देवस्थान बोर्ड के गठन को लेकर हुआ था। रावत ने सरकार ने चारधाम सहित कई अन्य मंदिरों को मिलने वाले दान पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से चार धाम देवस्थान बोर्ड बनाया था। इसके विरुद्ध केदारनाथ धाम परिसर में ही पुजारियों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया था। विश्व हिंदू परिषद से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक सभी हिंदुत्ववादी शक्तियों ने सरकार को समझाने का प्रयास किया, किंतु रावत पीछे नहीं हटे। अंततोगत्वा रावत को मुख्यमंत्री पद से हटाकर तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया गया और उनके बाद अब पुष्कर सिंह धामी राज्य के मुख्यमंत्री के रुप में काम कर रहे हैं। हालांकि, पुष्कर सिंह धामी ने सीएम बनते ही देवस्थान बोर्ड के गठन पर रोक लगा दी।
इसके अतिरिक्त त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुसलमानों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से उत्तराखंड में भूमि कब्जाने के प्रयासों के विरुद्ध कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो वो पूर्णत: सेक्युलर बनने की राह पर चल चुके थे! वहीं, दूसरी ओर सांस्कृतिक धरोहरों पर मुसलमानों के कब्जे के प्रयास इतने बढ़ गए कि बद्रीनाथ धाम को बदरुद्दीन शाह घोषित जाने लगा और उसे मुसलमानों का पवित्र स्थल बताया जाने लगा। उत्तराखंड में प्रत्येक पूजा स्थल के आसपास दुकान से लेकर होटल तक, सभी महत्वपूर्ण सेक्टर में मुसलमानों की भागीदारी लंबे समय से बढ़ती जा रही है।
इन्हीं कारणों से उत्तराखंड में नए भू-कानून की मांग भी काफी पहले से की जा रही है। किंतु रावत अपने कार्यकाल में इसके विरुद्ध भी कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं कर सके। देखा जाए तो पुष्कर सिंह धामी ने देवस्थान बोर्ड की समस्या का तो समाधान कर दिया, किंतु अन्य जटिल समस्याओं को सुलझाने के लिए उनके पास पर्याप्त समय नहीं था। इस बीच कांग्रेस के पास मौका था, लेकिन पार्टी की अंदरूनी राजनीति ने उत्तराखंड में कांग्रेस की पराजय सुनिश्चित कर दी है।
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जीत का मौका गंवा चुकी है कांग्रेस पार्टी
हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत पार्टी नेतृत्व से नाराज दिखे। हरीश रावत को पंजाब कांग्रेस की समस्या सुलझाने के लिए पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने प्रभारी के रूप में भेजा था, किंतु हरीश रावत को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं दी गई। साथ ही उत्तराखंड में उनके विरोधी गुटों को मजबूत करने का प्रयास राहुल गांधी द्वारा किया जा रहा है। हाल ही में यह विवाद इतना बढ़ गया था कि हरीश रावत ने ट्विटर के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से इस्तीफे की बात भी कर दी थी।
हालांकि, उत्तराखंड की अंदरुनी कलह कांग्रेस मौजूदा समय में थोड़ी शांत दिखाई दे रही है, किंतु यह करने में महत्वपूर्ण समय गंवाया जा चुका है, जिसका उपयोग भाजपा को घेरने में किया जा सकता था। जो ओपिनियन पोल सामने आ रहे हैं, उससे प्रतीत होता है कि भाजपा सत्ता में पुनः वापस आ सकती है। हालांकि, अभी मुकाबला कांटे का दिख रहा है, किंतु हर ओपिनियन पोल में भाजपा को बढ़त मिलती दिख रही है। ऐसे में यह संभव है कि भाजपा इस चुनाव को निर्णायक रूप से जीत ले। यदि ऐसा हुआ तो यह भाजपा की ‘जीत’ कम और कांग्रेस की ‘हार’ अधिक होगी!
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