2022 यूपी विधानसभा चुनाव बहुजन समाज पार्टी (BSP) की नेता और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के लिए एक महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव है। कभी किंगमेकर रही मायावती आज उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बचाने के लिए संघर्षरत हैं। मायावती भारतीय राजनीति में बदलाव के अनुकूल होने के लिए भी संघर्ष कर रही है। आज इस लेख के माध्यम से हम राजनीतिक स्तर पर न सिर्फ मायावती के संघर्ष के कारणों की विवेचना करेंगे, बल्कि बसपा के खिसकते वोट बैंक, जनाधार और राजनीतिक मजबूरी के बारे में भी विस्तार से जानेंगे।
राष्ट्रीय स्तर पर बसपा जो कभी दलितों की आवाज़ थी, अब अपनी चमक खो रही है। पार्टी ने पिछले तीन चुनावों (लोकसभा चुनाव 2014, यूपी विधानसभा चुनाव 2017 और लोकसभा चुनाव 2019) में अत्यंत खराब प्रदर्शन किया है और इनके वोट शेयर में भी गिरावट देखी गई है। यूपी विधानसभा की कुल 403 सीटों में से बसपा के पास मात्र सात सीटें हैं। दरअसल, बसपा के पास 18 विधायक थे, लेकिन मायावती द्वारा 11 विधायकों को निष्कासित करने के बाद यह संख्या घटकर सात रह गई है ।
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ध्यान देने वाली बात है कि बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुमत के साथ 403 सीटों में से 206 सीटें जीतकर यूपी में सत्ता में आई थी और मायावती चौथी बार राज्य की सीएम बनी थी। पांच साल बाद अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा ने 224 सीटें जीतकर उन्हें हरा दिया। बसपा की सीटों की गिनती 80 हो गई थी। 2017 में, जब भाजपा ने 312 सीटों के साथ सरकार बनाई, तो बसपा 19 सीटों पर सिमट गई। मायावती तब से अब तक इस चुनावी हार से उबर नहीं पाई हैं। मायावती कभी बहुत शक्तिशाली राजनीतिज्ञ थीं। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री होने के कारण, उन्हें भारत के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक के रूप में देखा जाता था। मायावती ने चार बार मुख्यमंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश का नेतृत्व किया है। हालांकि, उनका पूरा कार्यकाल केवल 2007 से 2012 तक था, शेष 3 बार वो थोड़े समय के लिए सीएम बनी थी। ऐसा राजनीतिक करियर होने के बावजूद अब बसपा और मायावती अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं!
बसपा के भविष्य की धुंधली तस्वीर है उत्तराधिकारी का न होना
65 साल की मायावती ने पार्टी में नेतृत्व की दूसरी पंक्ति स्थापित नहीं की है। एक स्पष्ट उत्तराधिकारी के अभाव में बसपा पार्टी कैसे आगे बढ़ सकती है? यही प्रश्न बसपा के भविष्य की धुंधली तस्वीर पेश करता है। वर्ष 2007 में मायावती ने प्रसिद्ध दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम गठबंधन बनाया। हालांकि, मुसलमान अब समाजवादी पार्टी, जबकि ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पीछे लामबंद हो चुके हैं। दलितों के बीच भी बसपा ने अपना समर्थन खो दिया है। भाजपा का यह प्रचार काफी सफल रहा कि मायावती के सत्ता में रहने से दलितों को कोई फायदा नहीं हुआ है, क्योंकि उन्होंने सिर्फ अपनी जाति जाटव के कल्याण के लिए काम किया। शायद इसीलिए उत्तरप्रदेश की 17 अतिपिछड़ी जातियां या तो भाजपा के पीछे लामबंद हैं या फिर अपने अपने जातीय नेताओं को वोट देती है।
वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में आरक्षित (अनुसूचित जाति) सीटों पर भाजपा ने गैर-जाटवों को सबसे ज्यादा टिकट दिया था। रमापति शास्त्री और गुलाबो देवी जैसे गैर-जाटव नेताओं को योगी आदित्यनाथ कैबिनेट में मंत्री भी बनाया गया। गैर-जाटव, जो अतिपिछड़ा वर्ग में से लगभग 45 प्रतिशत और यूपी की आबादी का 9 प्रतिशत है, उन्होंने विधानसभा चुनाव 2017 में भाजपा का समर्थन किया। इससे बसपा के वोट शेयर पर असर पड़ा जो 25 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया। राज्य के चुनावों में जाटव बसपा को मूल रूप से समर्थन देते रहे हैं। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर वे सामाजिक और शैक्षिक मोर्चे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा किए गए कार्यों के कारण भाजपा में चले गए हैं।
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मायावती ने खो दी है अपनी राजनीतिक आक्रामकता
अब इसे आप स्वेच्छा कहें या फिर सामूहिक रूप से सामाजिक निर्णय का प्रतिफल, यह तथ्य है कि चुनाव के दौरान मतदाता कमजोर उम्मीदवारों का समर्थन नहीं करते हैं और बसपा को मत देने के प्रति जाटवों का भी यही हाल है। जाटव वर्षों से बसपा का समर्थन करके राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सत्ता हासिल करने में असमर्थ रहे हैं और इसी कारण अब वे बसपा का जोरदार समर्थन नहीं करते । वर्ष 2019 के आम चुनावों में मायावती ने भाजपा को टक्कर देने के लिए सपा नेता अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया। 10 सीटें जीतने के बावजूद बसपा ने गठबंधन तोड़ दिया। यह अप्रत्याशितता मायावती को एक कठिन राजनीतिक नेता और एक मनमौजी सहयोगी प्रतिबिंबित करता है। सपा और बसपा दोनों ही बड़े पैमाने पर अपने वोटों को 10 प्रतिशत के रिसाव के साथ एक दूसरे को हस्तांतरित करने में सक्षम थे, जो सामान्य है।
हालांकि, वे हार गए क्योंकि भाजपा ने अपने मूल समर्थन को और मजबूत कर लिया और बसपा-सपा गठबंधन गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक में सेंध लगाने में विफल रहा। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से ही मायावती ने अपना स्पर्श और राजनीतिक आक्रामकता खो दी है। वो अपने भाषण पढ़ती है और जनता से जुड़ने में विफल रहती है। वो अपने विशाल अतीत की एक फीकी राजनीतिक छाया हैं। चंद्रशेखर आजाद जैसे दलित नेता तेजी से युवाओं की कल्पना पर कब्जा कर रहे हैं, हालांकि उन्हें अभी चुनावी मैदान में उतरना बाकी है।
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मायावती पर लगते रहे हैं भाजपा से गंठजोड़ के आरोप
बताते चलें कि यूपी में सियासी माहौल गरमा गया है। अखिलेश यादव ने भाजपा सरकार पर महामारी से निपटने में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया है। हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में सपा शीर्ष पर आ गई है। उपर्युक्त घटनाक्रम बसपा के लिए एक बड़ा जोखिम पैदा करते हैं, जो राज्य की राजनीति में अपना स्थान खो रही है। इसका अर्थ यह है की वर्ष 2022 में भाजपा और सपा के बीच एक द्विध्रुवीय मुकाबला हो सकता है। बसपा के गैर-अनुसूचित जाति के वोटर का एक निश्चित वर्ग सपा में जा सकता है, क्योंकि वे सपा को भाजपा के असल प्रतिद्वंदी के रूप में देखते हैं। वहीं, दूसरी ओर जाटव भाजपा को समर्थन दे सकते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि बसपा का लगभग आधा वोट शेयर गैर-दलितों के समर्थन से आता है।
ऐसी भी अफवाहें हैं कि बसपा का भाजपा के साथ एक गुप्त समझौता है। यह आरोप लगाया जाता है कि बसपा विपक्ष के वोटों को विभाजित करने के लिए उम्मीदवारों को खड़ा करती है और इसके बदले में भाजपा मायावती के भ्रष्टाचार के मामलों को दबाने में मदद करती है। बसपा किसानों के विरोध पर चुप रही, उसने जम्मू-कश्मीर में धारा-370 को खत्म करने का समर्थन किया और तीन तलाक विधेयक के दौरान मतदान से परहेज किया। साथ ही बसपा ने जिला पंचायत का मुख्य चुनाव भी नहीं लड़ने का फैसला किया। उत्तर प्रदेश में एक प्रासंगिक और शक्तिशाली राजनीतिक ताकत बने रहने के लिए, मायावती को अपनी दृश्यता और संचार बढ़ाने के साथ साथ सामाजिक गठबंधन को पुनर्जीवित करने तथा डिजिटल और आकांक्षात्मक राजनीति के अनुकूल होने की आवश्यकता है।