भारतीय स्वतंत्रता की वास्तविक कहानी-अध्याय 5: द्विराष्ट्र सिद्धांत का असली गुनहगार

एक ऐसा 'विलेन' जो जिन्ना का भी 'बाप' था!

द्विराष्ट्र सिद्धांत
क्या आप जानते हैं?
3 जून 1947,

ब्रिटिश भारत को दो राज्यों में विभाजित करनेवाली योजना की आधिकारिक घोषणा की गई। ये दो राज्य भारत और पाकिस्तान थे। उत्तरार्द्ध यानी पाकिस्तान में उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, बलूचिस्तान, पंजाब के 16 जिले, पूर्वी बंगाल और सिंध के मुस्लिम बहुल प्रांत शामिल थे। वहीं, इस विभाजन के कारणों को लेकर विद्वानों में मतभेद है। विभाजन द्विराष्ट्र के सिद्धांतों के अनुसार हुआ था। द्विराष्ट्र सिद्धांत के प्रथम प्रतिपादक और सूत्रधार अल्लामा इकबाल थे और इसे परणिति तक मोहम्मद अली जिन्ना, लियाकत अली खान, सैयद अहमद और आग खां ने पहुंचाया।

हालांकि, कुछ लोगों ने इसमें अपने षड्यंत्रकारी और विभाजनकारी उद्देश्यों के तहत वीर सावरकर को भी लांछित करने का कुत्सित और निकृष्ट प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो पाए। आज हम इस लेख के माध्यम से अपने पाठकों को ना सिर्फ द्विराष्ट्र सिद्धांत के जनक अल्लामा इकबाल के निकृष्टतम ऐतिहासिक सिद्धांत से अवगत कराएंगे बल्कि सत्य के आलोक में तथ्यों और साक्ष्यों की विवेचना करते हुए वीर सावरकर पर लगे कलंक को धोने का पुनीत प्रयास भी करेंगे।

क्या है द्विराष्ट्र का सिद्धांत?

सबसे पहले तो यह समझने का प्रयत्न का करते हैं कि द्विराष्ट्र का सिद्धांत आखिर है क्या? दरअसल, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत धार्मिक राष्ट्रवाद की एक विचारधारा है, जिसके अनुसार भारतीय मुसलमान और भारतीय हिंदू अपने रीति-रिवाज, धर्म और परंपराओं में विभेद होने के कारण एक साथ नहीं रह सकते और इनके लिए दो अलग-अलग राष्ट्र अनिवार्य हैं। सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से मुसलमानों को हिंदू-बहुल भारत के बाहर अपनी अलग मातृभूमि बनानी चाहिए जिसमें इस्लाम प्रमुख धर्म  हो और गैर-मुस्लिम दोयम दर्जे के नागरिक हों।

ऐसे विकृत, कलुषित और निकृष्ट सिद्धांत के प्रतिपादक अल्लामा इकबाल थे, जिन्हें पाकिस्तान में राष्ट्रीय कवि की उपाधि प्राप्त है। भारत में भी मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण उन्हेंं हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रणेता के रूप में याद किया जाता है और भारत विभाजन के उनके विचारों को भुला दिया जाता है। भारत में मुसलमानों का एक विशिष्ट समूह उन्हें एक सच्चे राष्ट्रवादी, देशभक्त और गंगा-जमुनी तहज़ीब के वाहक के रूप में याद करता है। उनके जन्मदिन को उर्दू दिवस के रूप में मनाना, उन्हेंं भारत में एक नायक के रूप में स्थापित करने का स्पष्ट प्रयास है। ऐसे में, सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस व्यक्ति ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए दृष्टिकोण दिया है, वह भारत में एक वीर और सम्माननीय व्यक्तित्व कैसे हो सकता है?

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जब किसी मुस्लिम नेता ने नहीं सोचा तब अल्लामा इकबाल ने..

द्विराष्ट्र सिद्धांत और पाकिस्तान तहरीक की विचारधारा को ऐसे समय में प्रतिपादित किया जब किसी मुस्लिम नेता ने इसके बारे में नहीं सोचा था। 29 दिसंबर 1930 को प्रयागराज (इलाहाबाद) में मुस्लिम लीग के 25वीं सत्र में उनके भाषण से उनकी द्विराष्ट्र की मानसिकता स्पष्ट झलकती है, जिसे ‘इलाहाबाद एड्रेस’ के नाम से भी जानते हैं। इकबाल का भाषण पाकिस्तानी इतिहास में सबसे प्रसिद्ध है। इस संबोधन में इकबाल ने उत्तर-पश्चिमी भारत में मुस्लिम-बहुल प्रांतों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की दृष्टि को रेखांकित कर द्विराष्ट्र सिद्धांत का स्वप्न देखनेवाले प्रथम नेता बने।

इकबाल ने एक मुस्लिम राष्ट्र के लिए प्रारंभिक रूपरेखा देते हुए कहा, “मैं पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत को एक देखना चाहता हूं। सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर एक राज्य बना दिया जाए। ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर या ब्रिटिश साम्राज्य के बिना एक समेकित उत्तर-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राज्य का गठन मुझे कम से कम उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों की अंतिम नियति प्रतीत होता है।” इकबाल मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक और कांग्रेस विरोधी थे। मौलाना थानवी की तरह इकबाल भी प्रसिद्ध देवबंदी मौलवी थे। इकबाल का मानना ​​था कि कांग्रेस की विचारधारा से जुड़े उलेमा (मौलाना) हिंदुओं का समर्थन करके बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं और इसका परिणाम उनके लिए घातक होगा।

आधुनिक विचारधारा के कट्टर विरोधी

अपनी प्रसिद्ध कविता वतनियत में इकबाल बड़े पैमाने पर राष्ट्र विभाजन का महिमामंडन करता है और इसे पैगंबर के मदीना प्रवास से भी जोड़ता है।

है तार-ए-वतन सुन्नते महबूबे इलाही
दे तू भी नववत की सदाकत की गावाही

अर्थात, अपना देश छोड़ना अल्लाह के प्यारे मुहम्मद का आचरण है, आपको इस पैगंबर की सच्चाई का भी गवाह बनना चाहिए और अपने देश को छोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। प्रमुख रूप से अगर ‘सारे जहां से अच्छा’ यानी तराना-ए-हिंद को छोड़  दिया जाए तो उनकी सारी  प्रस्तुतियाँ राष्ट्रवाद के विचार को स्पष्ट रूप से अस्वीकार करती हैं और एक वैश्विक इस्लामिक स्टेट की वकालत करती हैं ।

राष्ट्रविरोधी विचार

ताज़ा खुदाओं में सबसे बड़ा वतन है, जो जोड़ा उसका है वो मजाब का कफन है
बज्जू तेरा तौहीद की कुवैत से कवि है, इस्लाम तेरा देश है तू मुस्तफवी है।
नज्जरा-ए-देरिना जमने को दिखा दे, ए मुस्तफवी खाक में है लेकिन को मिला दे।

अर्थात, इन नए देवताओं में राष्ट्र सबसे बड़ा है। इसकी पोशाक धर्म के ताबूत की तरह है। एकेश्वरवाद द्वारा प्रदान की गई ताकत के कारण आपके हाथ शक्तिशाली हैं, इस्लाम आपका एकमात्र देश है क्योंकि आप मुस्तफा के अनुयायी हैं। हे पैगंबर मुहम्मद! इस पुराने और अनुभवजन्य दर्शन को पूरी दुनिया को  दिखाओ। हे मुहम्मद के अनुयायियों! इस मूर्ति (राष्ट्र) को मिट्टी में मिला दें।

लोकतंत्र विरोधी विचार

जम्हूरियत एक तारज-ए-हुकुमत है की जिस्में
बंदो को जीना करते हैं तोला नहीं करते हैं

अर्थात, लोकतंत्र सरकार की एक शैली है जहाँ व्यक्तियों को केवल गिना जाता है और उनका ठीक से मूल्यांकन नहीं किया जाता। लोकतंत्र में हर व्यक्ति का वोट बराबर होता है, चाहे उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। इस बात से इकबाल बहुत ज्यादा परेशान था। उन्होंने लोकतंत्र के इस रूप का मजाक उड़ाया और सवाल किया कि यह कैसी व्यवस्था है जहां लोगों की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की उपेक्षा की जा रही है।

एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम बनने की कहानी 

जैसा कि इन पंक्तियों से स्पष्ट है, इकबाल आधुनिक शिक्षा, महिला स्वतंत्रता, लोकतंत्र, शिक्षा और संस्कृति के आधुनिक विचारों के कट्टर विरोधी थे। भले ही उन्होंने अपने बेटे को आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश भेज दिया। उपरोक्त विवरण अल्लामा इकबाल के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के प्रति पूर्वाग्रह और उनके अलोकतांत्रिक, राष्ट्र-विरोधी, आधुनिक-विरोधी, जातिवादी और महिला-विरोधी विचारों की पुष्टि करता है, जो एक अशरफवादी विचारक के रूप में उनकी पहचान स्थापित करते हैं। उनके अनुसार, “भारत एक देश नहीं है। यह विभिन्न भाषाओं से संबंधित और विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले मनुष्यों का एक उपमहाद्वीप है। मुस्लिम राष्ट्र की अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान है।”

लेखक खुशवंत सिंह (इकबाल के हिंदू संबंध, द टेलीग्राफ) के अनुसार, इकबाल का जन्म 1877 में सियालकोट में हुआ था। वह सप्रैन गांव के कश्मीरी ब्राह्मण कन्हैया लाल सप्रू के पोते थे। इकबाल के पिता रतन लाल ने इस्लाम धर्म अपना लिया था और उन्हेंं नूर मुहम्मद नाम दिया गया था। खुशवंत सिंह लिखते हैं- “धर्मान्तरित लोगों की पहली पीढ़ी अन्य की तुलना में अधिक कट्टर थी। अतः इकबाल भी एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम बन गया।” तराना-ए-हिंद (हिंदुस्तान का गान, सारे जहां से अच्छा) के संगीतकार से तराना-ए-मिली (समुदाय का गान, चिनो अरब हमारा) तक की यात्रा उनके निरंतर कट्टरता का प्रमाण है।

हिंदू महासभा सत्र के दौरान वीर सावरकर का भाषण

अधिकांश लोग 1937 में अहमदाबाद के हिंदू महासभा सत्र के दौरान सावरकर के भाषण का उल्लेख करते हुए उन्हेंं भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का जनक मानते है, जहां उन्होंन कहा था, “भारत को एक एकात्मक और समरूप राष्ट्र नहीं माना जा सकता है। इसके विपरीत भारत में मुख्य रूप से दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।” पहली बात तो यह थी कि उनका भाषण इकबाल के ‘इलाहाबाद एड्रेस’ में प्रतिपादित किए गए द्विराष्ट्र के सिद्धांत के 8 साल बाद आया था और दूसरी बात सावरकर ने 15 अगस्त 1943 को नागपुर से प्रकाशित मराठी साप्ताहिक ‘आदेश’ के कार्यालय में पत्रकारों के सामने अपने बयान को स्पष्ट किया।

अपने साक्षात्कार में वीर सावरकर ने कहा…

उन्होंने 23 अगस्त 1943 को मुंबई में दिए एक साक्षात्कार में भी अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा,यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि मुसलमान एक राष्ट्र हैं। मैंने नागपुर में इस सिद्धांत की ऐतिहासिक और नस्लीय पृष्ठभूमि को स्पष्ट किया था। इस्लाम अपनी स्थापना से ही कुरान पर आधारित एक धार्मिक राष्ट्र है। इस राष्ट्र की कभी भौगोलिक सीमाएँ नहीं थीं। मुसलमान जहां भी गए, एक राष्ट्र के रूप में गए। वे एक राष्ट्र के रूप में ही हिंदुस्तान आए। वे जहां भी जाएंगे या तो विदेशी रहेंगे या एक राष्ट्र के रूप में रहेंगे।

कुरान के अनुसार, जो मुसलमान नहीं हैं वे काफिर हैं, इस्लाम के दुश्मन हैं। आज भी मस्जिद में नमाज अदा करने के बाद मुसलमान काफिर शासित राज्य में रहने का पाप करने के लिए प्रायश्चित मांगते हैं। मुसलमानों के सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी को दो राष्ट्रों में विभाजित किया गया है। दार-उल इस्लाम (इस्लाम की भूमि) और दार-उल हर्ब जहां इस्लाम का शासन नहीं है (शत्रु भूमि)। उनके धार्मिक आदेश के अनुसार उनका हिंदुस्थान पर अभियान एक अलग इस्लामिक राष्ट्र के लिए था। उन्होंने हिंदू राष्ट्र को एक राष्ट्र के रूप में नहीं, बल्कि एक दुश्मन राष्ट्र के रूप में जीत लिया।

द्विराष्ट्र सिद्धांत का असली प्रतिपादक था अल्लामा इकबाल

वहीं, वीर सावरकर इस बात पर भी जोर देते हैं कि हालांकि, भारत में दो राष्ट्र हैं पर भारत को दो भागों में विभाजित नहीं किया जाएगा। दोनों राष्ट्र एक देश में रहेंगे और एक ही संविधान के तहत रहेंगे। इसमें एक आदमी-एक वोट होगा चाहे वह आदमी हिंदू हो या मुस्लिम। उनकी योजना में एक मुसलमान को ऐसा कोई फायदा नहीं होना चाहिए जो एक हिंदू के पास नहीं है। अल्पसंख्यक को विशेषाधिकार के लिए कोई औचित्य नहीं होना चाहिए।

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उन्हेंं और उनके काम को समर्पित एक वेबसाइट Savarkar.org के अनुसार मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सर मुहम्मद इकबाल ने 1930 में पहली बार सार्वजनिक रूप से एक स्वतंत्र, संप्रभु मुस्लिम राज्य की मांग की। उस मांग में एक उल्लेखनीय बात यह है कि पाकिस्तान का प्रारंभिक बिंदु एक हजार साल पीछे चला जाता है जब मुहम्मद-बिन-कासिम ने सिंध की धरती पर पैर रखा और उपमहाद्वीप में इस्लाम की शुरुआत की। पूर्णतः स्पष्ट है कि इस्लाम और उसके बुद्धिजीवियों ने मजहब को राष्ट्र से ऊपर रखा। अपने निजी स्वार्थों और सत्ता के लोभवश इस देश का विभाजन किया, जिसके फलस्वरूप लाखों लोग काल के गाल में समा गए। सावरकर पर लांछन लगाया गया। उन्हेंं झूठा फंसाया गया जबकि द्विराष्ट्र सिद्धांत का असली प्रतिपादक अल्लामा इकबाल था।

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