कैसे भारतीय न्यायपालिका बाल-हत्या करने वाली महिलाओं को क्षमा करती रहती है?

भारतीय न्यायपालिका का दोहरा रवैया!

हाईकोर्ट बच्चों की हत्या
मुख्य बिंदु

अपने एक अजीबोगरीब निर्णय में मुंबई हाईकोर्ट ने 13 बच्चों की हत्या की आरोपी दो महिलाओं (सीमा गवित और रेणुका शिंदे) को मृत्यु दंड की सजा को घटाकर उम्र कैद में बदल दिया है। दोनों महिलाओं पर 1990 से 1996 के बीच 13 बच्चों को जान से मारने का आरोप सिद्ध हो चुका था। इस मामले की सुनवाई के बाद एक स्थानीय अदालत ने वर्ष 2001 में दोनों महिलाओं को मृत्युदंड की सजा सुनाई थी।

न्यायालय ने दिया महाराष्ट्र सरकार द्वारा देरी का हवाला

इस सजा के बाद बचाव पक्ष के वकील की ओर से पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने क्रमशः 2004 और 2006 में दोनों महिलाओं के मृत्युदंड के फैसले पर रोक लगा दी थी। राज्य सरकार द्वारा मृत्यु दंड की सजा पर कार्यवाही में काफी विलंब किया गया। इसी को आधार बनाकर अब हाईकोर्ट ने मृत्युदंड के निर्णय को पलट दिया है।

इस मामले पर न्यायमूर्ति सारंग कोतवाल और न्यायमूर्ति नितिन एम. जामदार की खंडपीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए सजा को कम करने के कारण के रूप में उनकी दया याचिका से निपटने में राज्य सरकार (महाराष्ट्र सरकार) द्वारा अत्यधिक देरी और उदासीनता का हवाला दिया। दोनों महिलाओं की दया याचिका को 2008 में राज्यपाल द्वारा एवं 2014 में राष्ट्रपति द्वारा खारिज किया जा चुका है।

2006 में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान सरकारी वकील उज्जवल निकम ने कोर्ट को बताया था कि “हमने हत्या की अवधि को छह साल तक सीमित कर दिया। हालांकि, यह उससे भी अधिक समय से चल रहा था। औरतों को याद नहीं कि उन्होंने कितने बच्चों को मारा था।” सरकारी वकील के अनुसार इन दोनों ने 13 से अधिक बच्चों की हत्या की थी। इतने संगीन अपराध के बाद भी कोर्ट द्वारा मृत्यु की सजा को कम करना बताता है कि फेमिनिस्ट समूहों का भारतीय न्याय व्यवस्था एवं सरकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव है। यह प्रथम मामला नहीं है जब एक महिला के संगीन अपराध के बावजूद उसे मृत्यु दंड की सजा से मुक्त किया गया है।

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पहले भी न्यायालय ने किया था महिला को आरोप में बरी

बता दें कि 2018 में राजस्थान हाईकोर्ट ने भी ऐसे ही बच्चों की हत्या मामले में महिला को आरोपों से बरी कर दिया था। कुमारी चंदा नाम की महिला पर तीन बच्चों की हत्या के आरोप थे। इस महिला ने तीन छोटे बच्चों को कुएं में फेंक दिया था। स्थानीय लोगों द्वारा दो बच्चों को किसी प्रकार बचा लिया गया किंतु एक लड़का डूब कर मर गया था। हाईकोर्ट ने अपनी सुनवाई में महिला की मृत्युदंड की सजा को समाप्त कर उसे बरी कर दिया था।

उसकी मुक्ति का कारण महिला को हुए प्रागार्तव रोग, (Premenstrual syndrome) को बताया गया था। मासिक चक्र के दौरान महिलाओं में होने वाले व्यवहार परिवर्तन की बीमारी को प्रीमेंसुरेशनल सिंड्रोम कहते हैं। कोर्ट की सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष की ओर से इस बीमारी को महिला के आक्रामक व्यवहार का कारण बताया गया था एवं सुनवाई के दौरान 3 वकीलों ने महिला के पक्ष में बयान दिया था। कोर्ट ने इसी आधार पर महिला की सजा को समाप्त कर दिया।

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बताते चलें कि लगभग 150 साल पहले मथुरा जेल में पहला महिला फांसी घर बनाया गया था लेकिन आजादी के बाद से वहां किसी भी दोषी को फांसी नहीं दी गई है। ऐसे में, भारतीय न्यायपालिका महिलाओं की गरिमा की रक्षा करने के लिए इतनी उत्सुक है कि वह यह मानने में विफल हो जाती है कि कानून की नजर में हर कोई समान है। देश के अल्पसंख्यकों, महिलाओं, विशेष रूप से जिनके मामले को मीडिया हाईलाइट मिल जाती है आदि को ही इसका लाभ मिलता है। यही कारण है कि भारतीय न्यायपालिका का दोहरा रवैया देखने को मिलता है।

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