सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के रहस्य को सुलझाने में भारत की मदद करना चाहता है ताइवान

क्या अब पूरी तरह सुलझ जाएगी नेताजी की मृत्यु की गुत्थी?

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु

Source- TFIPOST

अगर आप से एक सवाल पूछा जाए कि महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु कैसे हुई, तो आपका जवाब क्या होगा? सम्भवतः आप दो बातें बोलेंगे। पहली यह कि वो हवाई दुर्घटना में मारे गए, दूसरी बात यह कि वह मरे ही नहीं, बल्कि अज्ञात व्यक्ति की तरह जीवन बिताने लगे। खैर ये दोनों ही तर्क अधूरे हैं, क्योंकि इन तर्कों के पीछे कोई ठोस सबूत नहीं है। दोनों बातें सुनने में जैसी भी लगे, इनके पीछे ठोस सबूत का अभाव है।

विभिन्न दावों के अनुसार, अगस्त 1945 में विमान दुर्घटना के बाद नेताजी को ताइपे में सेना अस्पताल नानमोन शाखा ले जाया गया, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। यह अस्पताल वर्तमान ताइपे सिटी अस्पताल की हेपिंग फुयू शाखा है। हादसे के बाद नेताजी के बारे में अब तक की जानकारी का बड़ा हिस्सा जापानी दावों और दस्तावेजों पर आधारित रहा है। जापान सरकार ने नेताजी से संबंधित दो फाइलों को सार्वजनिक कर दिया है और उनकी अस्थियों को टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में रखा है।

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लेकिन इतने वर्ष बाद भी क्या नेता जी से जुड़ी बातों का सही उत्तर नहीं चाहिए? वर्तमान भारत सरकार तो सत्य को सिद्ध करने के पीछे पागल है! नेताजी को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह सम्मान दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतिबद्ध हैं। पीएम मोदी द्वारा रविवार शाम को इंडिया गेट पर नेताजी की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण करने से यह समझ आ जाना चाहिए कि भारतीय शासन नेताजी के प्रति कितना प्रतिबद्ध है। ऊपर से भारत सरकार ने सुभाष चंद्र बोस की 125 वीं जयंती से 23 जनवरी को “पराक्रम दिवस” ​​के रूप में मनाने की घोषणा भी कर दी है।

इसी बीच ताइवान ने नेताजी की विरासत को “फिर से खोजने” के लिए अपने राष्ट्रीय अभिलेखागार और डेटाबेस को खोलने की पेशकश की है, जिससे सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु से जुड़ी गुत्थियों के सुलझने की संभावना प्रबल हो गई है। ताइवान 1940 के दशक में जापानी कब्जे में था, वह आखिरी देश था, जहां भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी को जीवित देखा गया था और आम सहमति यह है कि 1945 में एक विमान दुर्घटना में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई थी।

ताइवान पूरी तरह से है तैयार

ताइपे इकोनॉमिक एंड कल्चरल सेंटर के डिप्टी रिप्रेजेंटेटिव मुमिन चेन ने दिल्ली में ताइवान दूतावास में फिक्की द्वारा आयोजित एक आभासी कार्यक्रम में कहा, “हमारे पास राष्ट्रीय अभिलेखागार और कई डेटाबेस हैं। हम भारतीय दोस्तों को नेताजी और उनकी विरासत के बारे में अधिक जानकारी फिर से खोजने में मदद कर सकते हैं, जिसका 1930, 1940 के दशक में ताइवान पर बहुत प्रभाव रहा है।”

ताइवान के उप दूत ने बताया, “बहुत से युवा इतिहासकार दक्षिण पूर्व एशिया के साथ शोध कर रहे हैं, यहां तक ​​कि भारत के साथ भी शोध कर रहे हैं। नेताजी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर बहुत सारे ऐतिहासिक दस्तावेज और सबूत ताइवान में हैं। अभी बहुत कम भारतीय विद्वान इसके बारे में जानते हैं।” उन्होंने विस्तार से बताया, “ताइवान और भारत को इंडो-पैसिफिक के सामान्य इतिहास की फिर से जांच और खोज करनी चाहिए, क्योंकि हमारे (भारत-ताइवान) ऐतिहासिक संबंध रहे हैं”

यह बताते हुए कि भारत और नेताजी के साथ ताइवान का ऐतिहासिक संबंध हैं, दिल्ली में राजनयिक ने कहा, “1940 के दशक में, चियांग काई-शेक ने अपनी डायरी में नेताजी के बारे में लिखा है। उन्होंने उनके लिए सहानुभूति महसूस की है। उनके दस्तावेजों से स्वतंत्रता के लिए जापानी लड़ाई में जापान का सहयोग करने का निर्णय समझ में आता है।”

चेन ने कहा, “1945 से पहले ताइवान एक जापानी उपनिवेश था, इसीलिए नेताजी ने 1943 में ताइवान पर कदम रखा और फिर 1945 में वे दूसरी बार ताइवान आए।” कहा जाता है कि चियांग काई शेक 1949 में चीन से ताइवान भाग आए और फिर 1975 में अपनी मृत्यु तक पूरी ताकत से ताइवान के द्वीप पर शासन किया। वह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना को दिए गए मजबूत प्रतिरोध के लिए जाने जाते है।

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क्यों इस गुत्थी को समझना जरूरी है?

दरअसल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस आम जननेता नहीं थे, वो कुछ कर गुजरने में विश्वास रखते थे। सुभाष चंद्र बोस ने भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जापानी मदद मांगी थी और टोक्यो की मदद से इंडियन नेशनल आर्मी को खड़ा किया था। भारत को आजाद कराने के लिए नेताजी के संघर्ष का एक बड़ा हिस्सा अफगानिस्तान और बर्मा से लेकर ताइवान, जापान और सिंगापुर में दक्षिण पूर्व एशिया सहित चीन के सुदूर पूर्व तक विदेशी धरती पर था। उन्होंने महात्मा गांधी और नेहरू की तरह एक जगह बैठकर काम नहीं किया। बोस आग का भांति थे और उन्होंने अपने जीवन को एक सेनानी से ज्यादा एक युद्धनायक की तरह जिया।

एक दिन अचानक मालूम चलता है कि हादसे में वह नहीं रहे। उनपर फ़िल्म बन जा रही है, जो नाटकीय घटनाक्रम से उनको मृत दिखा रही है और राष्ट्र इसकी गुत्थी ना सुलझाए? यह भी हो सकता है कि कोई अन्य राष्ट्र नायक बनने के लिए दूसरे नायक को खत्म कर दे? यह सवाल है, किसी के मानने या न मानने से तथ्य नहीं बदलता और इसको खत्म करने का तरीका निष्पक्ष स्वतंत्र जांच है। यह तो राष्ट्र का दायित्व बनता है कि वह अपने नायकों से जुड़े सवालों का अंत करे।

भारत ने तीन बार की है कोशिश

ऐसा नहीं है कि भारत सरकार ने इस गुत्थी को सुलझाने के लिए सोचा नहीं है। भारत सरकार ने अभी तक तीन बार ऐसा किया है। भारत सरकार ने 1956 में शाह नवाज जांच समिति, 1974 में खोसला आयोग और 2005 में न्यायमूर्ति मुखर्जी जांच आयोग (JMCI) का गठन किया। पहले दो ने यह निष्कर्ष निकाला कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु एक सैन्य अस्पताल में हुई थी। 18 अगस्त, 1945 को ताइवान के ताइहोकू में, एक जापानी सैन्य विमान के टेक-ऑफ के दौरान दुर्घटना के परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हुई। उन दोनों दस्तावेजों ने यह भी निष्कर्ष निकाला कि टोक्यो के रेंकोजी मंदिर में आज भी नश्वर अवशेष उन्हीं के हैं। लेकिन तीसरे रिपोर्ट ने सबकुछ बदलकर रख दिया।

जापान, रूस, ताइवान, थाईलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका की पांच साल से अधिक लंबी जांच और यात्रा के बाद, JMIC ने 8 नवंबर, 2005 की अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष यह निकाला कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु ऐसे नहीं हुई थी, जैसा बताया जा रहा है। 17 मई, 2006 को संसद में पेश किया गए रिपोर्ट में यह बताया गया कि नेताजी विमान दुर्घटना में नहीं मरे। जांच आयोग ने यह भी बताया कि ‘जापानी मंदिर में रखी हुई राख नेताजी की नहीं है’। न्यायमूर्ति मुखर्जी ने इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी और न ही दे सकते थे कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु किसी अन्य स्थान पर हुई या कब और कैसे हुई। उन्होंने बस इतना ही निष्कर्ष निकाला कि ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस मर चुके हैं’ लेकिन वैसे नहीं, जैसे बताया जाता है।’

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तत्कालीन सरकार को JMIC रिपोर्ट की जांच करने पर मूलभूत त्रुटियों का पता चला, जिसके आधार पर उसने JMIC के निष्कर्षों को खारिज कर दिया। केंद्र सरकार द्वारा 7 अगस्त, 2006 को ताइवान में कोई हवाई दुर्घटना नहीं होने और इसलिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु नहीं होने के अपने निष्कर्ष के समर्थन में न्यायमूर्ति मुखर्जी द्वारा दिए गए तथाकथित साक्ष्य और प्रमुख तर्क विश्वसनीय नहीं लगे और सीधे यह मान लिया गया कि आयोग की रिपोर्ट गलत है।

मतलब साफ है कि सरकार की कोशिश करने पर भी सत्य का पता नहीं चला और आयोग के फैसलों को तुरंत चुटकी बजाकर गलत ठहरा दिया गया। अब ताइवान के मदद से हो सकता है कि JMIC की रिपोर्ट पर स्थिति और स्पष्ट हो या फिर ये भी हो सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु की गुत्थी पूरी तरह से सुलझ जाए!0

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