सतीश धवन- एक ऐसे वैज्ञानिक, जिनकी वजह से जमीन से छलांग मारकर आसमान तक पहुंचा भारत

ऐसे लोग विरले ही पैदा होते हैं!

Satish Dhawan

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अगर आपसे यह पूछा जाए कि अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़े सबसे बड़े वैज्ञानिक का नाम क्या है तो आपका उत्तर क्या होगा? संभवत: आप भारत के वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम का नाम लेंगे, लेकिन क्या आपको मालूम है कि डॉ कलाम के भी एक गुरु हुए हैं, जिन्होंने लीडरशिप और वैज्ञानिक उपलब्धियों के मामले में ऐसे ऐसे काम किये हैं, जिन्हें जानकर आप भी उनपर गर्व करेंगे। हम बात कर रहे हैं भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर सतीश धवन की। अगर आज हिंदुस्तान जमीन से छलांग मार आसमान तक जा पहुंचा है, तो इसका श्रेय मशहूर अंतरिक्ष वैज्ञानिक सतीश धवन को जाता है। यह वही व्यक्ति हैं, जिनके नेतृत्व में भारत पहली बार लॉन्चिंग व्हीकल बनाने में सफल हुआ था। खैर आप इसका श्रेय डॉ कलाम को देते हैं, तो नही आप गलत नहीं है। सतीश धवन अगर कभी अपने बारे में सोचे होते, तो शायद हमारे जुबान पर उनका नाम हमेशा के लिए होता।

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सतीश धवन का प्रारंभिक जीवन

सतीश धवन का जन्म 25 सितंबर 1920 को श्रीनगर में हुआ था। एक न्यायाधीश के बेटे, धवन का पालन-पोषण और शिक्षा लाहौर में हुई, जहां उन्होंने भौतिकी, गणित, साहित्य और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में क्रमिक रूप से डिग्री ली। भारतीय संदर्भ में विषयों का यह संयोजन असामान्य था। 1930 और 1940 के दशक का लाहौर एक ऐसा स्थान था, जिसने इस तरह के प्रयोग को प्रोत्साहित किया था। यह शहर तब संस्कृति और विद्वता का एक बड़ा केंद्र था, जो हिंदू, इस्लामी, सिख और यूरोपीय बौद्धिक परंपराओं का सबसे अच्छा संगम था।

वर्ष 1945 में धवन बैंगलुरु आएं और नव-स्थापित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में एक साल तक काम किया। इसके बाद वो आगे की पढ़ाई के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। वर्ष 1947 में उन्होंने मिनेसोटा विश्वविद्यालय, मिनियापोलिस से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में मास्टर ऑफ साइंस की डिग्री पूरी की और कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से वैमानिकी इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की, उसके बाद उन्होंने अपने सलाहकार हंस डब्ल्यू की देखरेख में गणित और एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में डबल पीएचडी की।

जब देश को आजादी मिली और विभाजन हुआ, तो वो देश से काफी दूर थे। बंटवारे की घटना ने उनके परिवार को पाकिस्तान छोड़ने और भारत में प्रवास करने के लिए मजबूर किया। अपनी अब विभाजित मातृभूमि में लौटने के तुरंत बाद, सतीश धवन भारतीय विज्ञान संस्थान में वैमानिकी विभाग में शामिल हो गए। उनके शुरुआती छात्रों में से एक रोडम नरसिम्हा याद करते हैं कि “धवन ने संस्थान में युवाओं में ताजगी, आधुनिकता, ईमानदारी और कैलिफ़ोर्निया की अनौपचारिकता का एक तत्व लाया, जिसने छात्रों और कई सहयोगियों को आकर्षित किया।”

हालांकि, एक नेता और एक इंसान के रूप में उनके असाधारण गुण, उनका महान व्यक्तिगत आकर्षण और उनकी गहरी सामाजिक चेतना, प्रो. धवन को कई अन्य प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और इंजीनियरों से अलग करती है। उनसे जुड़ा एक मशहूर किस्सा यह है कि जब श्रीहरिकोटा रेंज का निर्माण किया जा रहा था, तब उन्होंने मवेशियों को दूर रखने के लिए रेंज की बाड़ लगाने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि वह रेंज मवेशियों और वहां रहने वाले आदिवासी लोगों की है।

पद्म विभूषण से सम्मानित

प्रो. धवन को भारत और विदेशों में विभिन्न निकायों द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें वर्ष 1977 में भारतीय विज्ञान अकादमी, बैंगलुरु का अध्यक्ष चुना गया और वर्ष में उन्हें 1981 में पद्म विभूषण से सम्मानित भी किया गया। वो यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग के लिए चुने जाने वाले कुछ भारतीयों में से एक थे। सतीश धवन प्रसिद्ध अमेरिकी इंजीनियर हैंस डब्ल्यू लीपमैन के छात्र थे, जो धवन को “एक उत्कृष्ट छात्र और आजीवन मित्र” मानते थे। अपने संस्मरण ‘विग्नेट्स’ में, लीपमैन ने उल्लेख किया कि कैसे धवन के नेतृत्व में भारतीय वैज्ञानिक समुदाय ने एक विकासशील राष्ट्र से कुछ शानदार प्रतिभाओं को जन्म दिया। गणितज्ञ और वैमानिकी इंजीनियर सतीश धवन, जिन्हें ‘भारत में प्रायोगिक द्रव गतिकी के जनक’ के रूप में माना जाता है, 1970 के दशक में जबरदस्त सफलता हेतु भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का नेतृत्व करने के लिए देश में प्रसिद्ध हैं।

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1972 में लिया विक्रम साराभाई का स्थान

वर्ष 1951 में प्रो. धवन भारतीय विज्ञान संस्थान में शामिल हुए और 1962 में वो इसके निदेशक बन गए। उन्होंने वर्ष 1972 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के रूप में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई का स्थान लिया। वो अंतरिक्ष आयोग के अध्यक्ष और अंतरिक्ष विभाग में भारत सरकार के सचिव भी थे। धवन बैंगलुरु में स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में एक लोकप्रिय प्रोफेसर थे। उन्हें IIsc में भारत की पहली सुपरसोनिक पवन सुरंग स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है।

उन्होंने अलग-अलग सीमा परत प्रवाह, त्रि-आयामी सीमा परतों और ट्राइसोनिक प्रवाह के पुनर्विन्यासीकरण पर अनुसंधान का बीड़ा उठाया। प्रोफेसर धवन भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के प्रमुख थे, उन्होंने सीमा परत अनुसंधान के लिए पर्याप्त प्रयास किए। उनका यह सपना था कि भारत अपने तरीके ईजाद करे, जिससे सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजा जा सके। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान हरमन श्लिचिंग की मौलिक पुस्तक बाउंड्री लेयर थ्योरी में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने अंतरिक्ष क्षेत्र में बहुत काम किया है और नाम कमाया है।

कलाम ने कही थे ये बात

बताते चलें कि दिवंगत ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को कहानियां सुनाना पसंद था। जुलाई 1979 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन द्वारा एक उपग्रह के प्रक्षेपण से संबंधित एक कहानी उन्हें विशेष रूप से पसंद थी। कलाम ISRO में परियोजना के प्रभारी थे और जब कुछ सदस्यों ने इसकी तैयारी के बारे में आपत्ति व्यक्त की तो उन्होंने उन्हें खारिज कर दिया और आदेश दिया कि योजना के अनुसार आगे बढ़ो। वो प्रक्षेपण विफल रहा और उपग्रह अंतरिक्ष में जाने के बजाय बंगाल की खाड़ी में गिर गया।

टीम के नेता के रूप में कलाम विफलता से अपमानित थे और प्रेस के सामने इसकी घोषणा करने की संभावना से भयभीत थे। उन्हें इसरो के अध्यक्ष सतीश धवन ने शर्मिंदगी से बचाया, जो खुद टेलीविजन कैमरों के सामने यह कहने के लिए गए कि इस विफलता के बावजूद उन्होंने अपनी टीम की क्षमताओं में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया और उन्हें विश्वास था कि उनका अगला प्रयास सफल होगा। उसके अगले महीने अगस्त में कलाम और उनकी टीम ने एक बार फिर से अंतरिक्ष में एक उपग्रह लॉन्च करने की कोशिश की। इस बार उन्हें सफलता मिली। धवन ने टीम को बधाई देते हुए कलाम को प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करने को कहा।

बाद के वर्षों में भारत के राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान और बाद में भी कहानी सुनाते हुए, कलाम ने हमेशा यह कहा किया कि “जब विफलता हुई तो सतीश धवन ने एक लीडर के तौर पर इसे अपने हाथों में ले लिया। जब सफलता मिली तो उन्होंने इसका श्रेय अपनी टीम को दिया।” मतलब जब मिशन असफल हुआ तो धवन ने ज़िम्मेदारी खुद पर ली। सफल हुए तो अपनी टीम को आगे कर दिया। ISRO अगर आज बुलंदियों पर है तो इसके पीछे सतीश धवन जैसे लोगों का हाथ है। वर्ष 2002 में उनकी मृत्यु के बाद श्रीहरिकोट, आंध्रप्रदेश में स्थित भारतीय उपग्रह प्रमोचन केंद्र का पुनर्नामकरण प्रोफेसर सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के रुप में किया गया।

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