विवाह संस्कार और परिवार व्यवस्था की नींव हिला देगा Marital rape का अपराधीकरण

यह प्रगतिशील सुझाव, वास्तव में प्रगतिशील नहीं है!

वैवाहिक बलात्कार

Source- TFIPOST

दिल्ली हाईकोर्ट वैवाहिक बलात्कार के मामले में दो पक्षों की सुनवाई कर रहा है। मीडिया में उपलब्ध रिपोर्ट्स से यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कोर्ट का झुकाव किस तरफ है। वैसे भी कोर्ट मीडिया ट्रायल को न तो मान्य साक्ष्य का दर्जा देता है और न ही विधिक व्यवस्था में वो प्रासंगिक होती है। पर, न्यायालय के कथन और निर्णय एक मान्य विधि के समतुल्य होते हैं। समाज, विधिक और हमारी संवैधानिक व्यवस्था पर न्यायालयी निर्णयों के दूरगामी परिणाम होते है।

अतः उनके निर्णयों, कथनों और आदेशों की विवेचना और मूल्यांकन करना हमारा कर्तव्य होता है, ताकि समाज को इस न्यायालयी परिवर्तन के प्रति न सिर्फ जागरूक रखा जाए, पर न्यायालय के समक्ष उनके पक्ष को भी रखा जा सके। हालांकि, इस मामले की सुनवाई में कोर्ट एक बात के बारे में निश्चित है और वो है महिलाओं के सम्मान की रक्षा करना। यहां हम न्यायालय के सुझावों के संभावित परिणामों और भारतीय परिवारों पर उनके प्रभाव का विश्लेषण करेंगे। जाहिर है, इतिहास, कानून और परंपराएं हमारी मार्गदर्शक शक्ति होंगी।

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न्यायालय कर रहा वैवाहिक बलात्कार मामले पर समीक्षा

पति-पत्नी अपने जीवन को एक साथ साझा करने के लिए परिणय सूत्र में बंधते हैं। भारतीय वैवाहिक परंपरा में सिर्फ वर-वधू ही नहीं, अपितु उनका पूरा परिवार, समाज, कुल और खानदान संयुक्त रूप से इस माले में पिरो दिए जाते हैं। खासकर, मुस्लिम समाज की तरह हिंदू समाज में विवाह एक संविदा न होकर एक संस्कार है। इस पवित्रतम संस्कार को दैवीय और सामाजिक आधार प्राप्त है। विवाह से ही समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार का उद्भव होता है। एक दूसरे की गरिमा और सम्मान दोनो पक्षों की प्राथमिकता होती है। वैश्वीकरण के युग में इस पवित्र बंधन में भी मिलावट घुल चुकी है। इस मिलावट का नाम है- वैवाहिक बलात्कार, अर्थात् पत्नी के अनिच्छा के बावजूद उससे यौन संबंध स्थापित करना या उसकी कोशिश करना। न्यायालय इस मसले की समीक्षा कर रहा है कि क्या वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण कर देना चाहिए?

पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ क्या करते हैं, यह उनमें निहित है, जब तक कि किसी के सम्मान को चोट न पहुंचे। राज्य के लिए इस मसले का अपराधीकरण करना सर्वथा अनुचित है! इसका अपराधीकरण करते ही कुछ मूलभूत समस्याएं उत्पन्न हो जाएंगी, जैसे वैवाहिक बलात्कार की स्थिति में क्या राज्य शयन कक्ष में प्रवेश करेगा? कौन तय करेगा कि उस कमरे में क्या हुआ? कानून तय करेगा, तो पक्ष किसका लेगा? क्या यहां ‘पीड़ित पर विश्वास करें’ सिद्धांत लागू होगा? क्या एक दंपति के कमरे की बातों को अदालत में घसीटना निजता के अधिकार का हनन नहीं है? आइए विस्तार से समझते हैं!

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‘पीड़ित पर विश्वास का सिद्धांत’ क्या है और यह कैसे लागू होता है?

‘पीड़ित पर विश्वास’ कानून के सभ्यतागत उद्देश्य के विपरीत है। इसमें कोई यह साबित करे कि उन्हें नुकसान हुआ है, उससे पहले ही यह मान लिया जाता है कि उन्हें नुकसान हुआ है, अर्थात् पीड़ित पर प्रताड़ना को साबित करने का भार नहीं होगा। अपने आप को पूर्ण रूप से निर्दोष साबित करने का भार आरोपित व्यक्ति पर होगा। इस प्रकार, उनका उत्पीड़न अपने व्यक्तिगत प्रतिशोध को निपटाने का एक उपकरण बन जाएगा और अंततः लड़के इसके भुक्तभोगी होंगे। महिला-केंद्रित कानूनों के मामले में अब तक यही परिणाम देखने को मिले हैं। महिलाओं को बलात्कार, घरेलू हिंसा और दहेज से बचाने वाले कानून ऐसे कानून हैं, जहां महिलाओं की बात सर्वोपरि है और पुरुष को महिलाओं को गलत साबित करना होता है। आंकड़े यह दिखाने के लिए उपलब्ध हैं कि यह सब कैसे होता है?

वर्ष 2019 एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि उस साल 74 प्रतिशत से अधिक बलात्कार के आरोप झूठे थे। इसका मतलब है कि लड़की ने वास्तव में झूठ बोला था या उसके करीबी लोगों ने पुरुषों से पैसे वसूलने के लिए उससे झूठ बोला था। हाल ही में गुरुग्राम से बलात्कार के एक झूठे आरोप लगाने वाली लड़की और उसकी मां की गिरफ्तारी ऐसा ही एक हाई-प्रोफाइल उदाहरण है। इसी तरह, वर्ष 2019 का एक और डेटा स्पष्ट रूप से बताता है कि दहेज और घरेलू हिंसा के 80 प्रतिशत से अधिक मामले बरी हो जाते हैं। क्या उनमें से कुछ के कृत्यों के लिए 50 प्रतिशत आबादी को दंडित करना उचित है? कोई भी कानूनी प्रणाली या समाज इस तरह के आंकड़ों पर अपनी विश्वसनीयता बनाए नहीं रख सकता है।

यह परिवारों को कैसे प्रभावित करेगा?

परिवार और परिणामस्वरूप बच्चे इन कानूनों के मुख्य शिकार होंगे। यदि वैवाहिक बलात्कार कानून लाया जाता है, तो पुलिस स्टेशन का दौरा मनमुटाव वाले जोड़े के लिए एक नियमित कार्य बन जाएगा। जरा भी झगडा होने पर साथी बेझिझक पुलिस को मध्‍यस्‍थता के लिए बुलाएगा/बुलाएगी। यह विवाह की गोपनीयता और पवित्रता में बाधा उत्पन्न करेगा। इसके साथ-साथ यह मामले को और ज्यादा उलझाएगा। यदि पवित्रता का उल्लंघन होता है, तो विवाह में बने रहने का कोई मतलब नहीं है। इससे केवल तलाक के मामले सामने आएंगे और फिर मुख्य रूप से बच्चे की कस्टडी के लिए झगड़े होंगे। इस लड़ाई में केवल बच्चे ही हारेंगे और कोई भी राष्ट्र अच्छे बच्चों के बिना जीवित नहीं रह सकता।

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पुरुषों के बारे में भी सोचना जरुरी?

दूसरी ओर इस मामले में पुरुषों के अधिकारों की किसी को परवाह नहीं है। उसकी सहमति और असहमति नगण्य मानी जाती है। अगर कोई महिला उसकी मर्जी के खिलाफ जबरदस्ती करती है, तो पुरुष के पास कानूनी विकल्प का कोई रास्ता नहीं है। भारत में कोई भी कानून मौजूद नहीं है, जो पुरुष को महिला के शोषण से बचाने का मार्ग प्रशस्त करे! वैवाहिक बलात्कार कानूनों में भी ऐसा ही कुछ होने की उम्मीद है। यह माना जाएगा कि केवल पुरुष ही अपनी पत्नी पर जबरदस्ती कर सकता है। यदि राज्य शयन कक्ष में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे बिना किसी अनुमान के दोनों पक्षों को देखना चाहिए।

गौरतलब है कि महिला-केंद्रित कानून अपने दार्शनिक मूल में पुरुषों के खिलाफ धीमी गति से शोषण कर रहे हैं। वैवाहिक बलात्कार कानून पुरुषों तथा परिवार व्यवस्था को ध्वस्त कर देगा। राष्ट्र के भविष्य, बच्चों को एक अंधकारमय जीवन देगा। यह समानता के अधिकार को कचरे में फेंक, पुरुषों के विरुद्ध महिलाओं को एक कानूनी प्रतिशोध का शस्त्र प्रदान करेगा! न्यायलय को इस मामले में दखल न देते हुए, इसे समाज पर छोड़ना चाहिए! अगर आवश्यक हो, तो आप तलाक के कानून को और सुगम तथा सरल बना सकते है।

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