कांग्रेस की स्थापना क्यों की गई थी?
“तुझे पता भी है हमारे बाप दादाओं ने कितनी कुर्बानियाँ दी है?”
“अरे तू क्या समझेगा स्वतंत्रता का मोल, अंग्रेज़ों के जूटने चाटने वाले RSS का एजेंट!”
“सावरकर ने कौन सा योगदान दिया है स्वतंत्रता को? अंग्रेज़ों का दलाल था, माफी मांगी थी उसने!”
अक्सर आपने ऐसे कई संवाद अपने मित्रों, अपने बंधुओं या रिश्तेदारों के मुख से सुने होंगे, जो भारत की स्वतंत्रता संग्राम का सम्पूर्ण श्रेय केवल एक संगठन को ही देना चाहते हैं, मानो ये नहीं, तो कुछ नहीं। इनके लिए इसी संगठन के कारण भारत का अस्तित्व विद्यमान है, अन्यथा हम कभी स्वतंत्र न होते, और न ही हम कभी सभ्य होता। इस संगठन का नाम है इंडियन नेशनल कांग्रेस, जो भारत की सबसे पुरानी और सबसे सक्रिय राजनीतिक पार्टी है, और अनेक वर्षों तक भारत की सत्ता और भारत के इतिहास पर इनका एकछत्र राज था, आज के लेख के माध्यम से हम बात करने जा रहे है कि कांग्रेस की स्थापना क्यों की गई थी?
परंतु क्या वास्तव में काँग्रेस इसके योग्य है? क्या कांग्रेस के बिना हम स्वतंत्र नहीं हो पाते? क्या कांग्रेस ने हमारे देश की स्वतंत्रता में योगदान दिया या स्वतंत्रता के नाम पर उसका अजेंडा कुछ और ही था? ये कथा है कांग्रेस के निर्माण की और कांग्रेस की स्थापना क्यों की गई थी?
कैसे हुई कांग्रेस की स्थापना?
1857 में अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रारंभ भारत का स्वतंत्रता संग्राम भले ही कुचल दिया गया हो, परंतु स्वतंत्रता की जो लौ जल चुकी थी, वो बुझाए नहीं बुझ पाई। 1877 में ब्रिटिश क्राउन के अधीन आधिकारिक रूप से भारत आ चुका था और क्वीन विक्टोरिया भारत की महारानी बन गई थी। लेकिन भारत में स्वतंत्रता की ज्योति नहीं बुझ पाई, और 1885 में एक पूर्व ब्रिटिश अधिकारी एलन ऑक्टेवियन ह्यूम [Allan Octavian Hume] के सुझाव पर इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य था समान विचार वाले भारतीयों को एक साथ लाना और ब्रिटिश राज से अपने अधिकारों के लिए अनुरोध करना एवं उनके लिए वार्तालाप करना। प्रथम अधिवेशन गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी।
भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसम्बर 1885 को बंबई (मुंबई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी। इसके प्रथम अध्यक्ष कलकत्ता से आए व्योमेश चन्द्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया था। अपने शुरुआती दिनों में काँग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्ग की संस्था का था। इसके शुरुआती सदस्य मुख्य रूप से बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी से लिये गये थे। कभी यदि आप ध्यान दे, तो दादाभाई नाओरोजी, दिनशा वाचा, फिरोज शाह मेहता, महादेव गोविंद रानाडे इत्यादि कभी भी मध्यम वर्ग या गरीब वर्ग की अभिलाषाओं की चर्चा नहीं करते थे। कांग्रेस एक भारतीय मंच कम, एक ‘दिल्ली / कराची जिमखाना’ अधिक प्रतीत होता था, जहां लोग आते, चर्चा करते, अनुनय विनय करते और निकल जाते।
लेकिन ऐसा क्यों हुआ? कांग्रेस तो भारतीयों के आकांक्षाओं और उनके स्वराज्य के अधिकारों के लिए बात कर रही थी न? असल में ह्यूम लॉर्ड लिटन के कार्यकाल में अपनी सेवाएँ दे चुके थे, और वे भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते थे। वे कोई संत आत्मा नहीं थे, क्योंकि वे 1857 की क्रांति में क्रांतिकारियों के हाथों मरते-मरते बचे थे, और वे कई महीनों तक आगरा के किले में छुपे रहे थे।
ए ओ ह्यूम भली-भांति जानते थे कि यदि 1857 जैसी क्रांति दोहराई गई, तो ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। वे जानते थे कि भारतीयों के शौर्य और उनकी वीरता को कुचलना इतना सरल नहीं। इसीलिए उनका सुझाव था कि एक राष्ट्रव्यापी संगठन ब्रिटिश साम्राज्य को ऐसे किसी भी राष्ट्रीय स्तर के विद्रोह से सुरक्षित रखेगा और 1857 जैसी स्थिति नहीं उत्पन्न होगा। कांग्रेस एलन ह्यूम के लिए वो ‘सेफ़्टी वॉल्व’ था, जो ब्रिटिश साम्राज्य को अक्षुण्ण रखने वाला था।
ये हम नहीं कह रहे, बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि कांग्रेस का वास्तविक तो स्वयं कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को लिखे एक पत्र में ए ओ ह्यूम ने स्वयं परिलक्षित किया था। ह्यूम के पत्र अनुसार, “हमारे साथ अगर इस उद्देश्य में पचास व्यक्ति भी जुड़ जाएँ, तो चीजें काफी सरल हो जाएंगी। कुछ नेता ऐसे हैं जो सोच से इतने गरीब हैं, कि वे केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु काम करेंगे, और वे अपने देश पर चाहे जितने भी वार हों, एक शब्द नहीं बोलेंगे, क्योंकि वे उसी योग्य हैं। हर देश उसी सरकार के योग्य है जैसा उसका स्वभाव है।”
ए ओ ह्यूम का उद्देश्य स्पष्ट था – भारतीयों में नेतृत्व की कोई भावना नहीं है, और वे हर क्षेत्र में हीन हैं, और नेतृत्व के लिए उन्हें अंग्रेज़ों के सानिध्य में रहना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता, तो एक भारतीय संगठन होते हुए भी विलियम वेडरबर्न, एल्फ्रेड वेब एवं हेनरी कॉटन जैसे ब्रिटिश अफसर कांग्रेस के अध्यक्ष कैसे होते?
और पढ़ें: अध्याय 2: भारतीय स्वतंत्रता की वास्तविक कहानी: मोहनदास करमचंद गांधी वास्तव में भारत क्यों लौटे?
ये रीति 1905 तक जारी रही, जब तक लॉर्ड कर्ज़न के नेतृत्व में बंगाल का विभाजन नहीं हुआ। लेकिन यहीं से प्रादुर्भाव हुआ एक तिकड़ी का, जिन्होंने कांग्रेस के एलीट वर्ग को न केवल दर्पण दिखाया, अपितु दो अस्त्रों से पूरे भारत का हृदय जीत लिया। ये अस्त्र थे ‘स्वदेशी और बहिष्कार’, और यह तिकड़ी थी ‘लाल बाल पाल’, जिसमें लाल थे ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय अग्रवाल, बाल थे महाराष्ट्र के गौरव, ‘लोकमान्य’ केशव बाल गंगाधर तिलक और पाल थे बंगाल के बिपिन चंद्र पाल। इनकी आक्रामकता ने कांग्रेस के दो फाड़ कर दिये– नरम दल और गरम दल। परंतु कथा बदली 1915 में, जब बॉम्बे के तट पर एक अधिवक्ता पधारे। इनका नाम था – मोहनदास करमचंद गांधी, और यहीं से प्रारंभ होता है भारत के असल स्वराज का दूसरा अध्याय।