क्या आप जानते हैं?
- गांधी का भारत आना ब्रितानी शासन के बढ़े ‘Deadline’ का उद्घोष था
- दक्षिण अफ्रीका में गांधी के आंदोलन या संघर्ष सिर्फ भारतीयों के लिए थे
- वे ‘भारतीय’ मुद्दों को इतनी चतुराई से उठाते थे कि कभी-कभार ये मुद्दे भारतीयों को अफ्रीकियों से अलग कर देते थे
- गांधी को जानना, गांधी पर प्रश्न उठाना और गांधी को आलोचना के आधार में लाना सबसे बड़ा गांधीवाद है
9 जनवरी 1915 को मोहनदास करमचंद गांधी जलयात्रा करते हुए दक्षिण अफ्रीका से बॉम्बे पहुंचे। वह वहां दो दशकों से अधिक समय तक रहे। 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इस दिन को प्रवासी भारतीय दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। पर, सबसे बड़ा प्रश्न जो अभी तक अनुत्तरित है या यूं कहें की जिस प्रश्न को लेकर भारतीय जनमानस आज भी दिग्भ्रमित है, वो प्रश्न है कि आखिर गांधी दो दशक बाद दक्षिण अफ्रीका से लौटे क्यों?
ब्रितानी साम्राज्य और महात्मा गांधी
भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में इस प्रश्न पर अधिक चर्चा इसलिए भी नहीं हुई क्योंकि अधिवक्ता मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बन के लौटे थे। अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन के प्रणेता ने स्वयं हेतु महात्मा का ऐसा कवच बुना की उनके व्यक्तित्व को छूने का किसी ने साहस ही नहीं किया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के दासत्व में बंधे भारतीय ने उन्हें सिर्फ एक उद्धारक महात्मा के रूप में देखा।
ब्रितानी साम्राज्य ने उन्हें भारतीय जनता के क्रोध को अपने अहिंसा से नियंत्रित करनेवाले ‘Safety Pin’ के रूप में देखा तो वहीं नेहरू ने उन्हें भारतीय जनमानस में अपनी स्वीकार्यता को बढ़ाने के माध्यम के रूप में। सभी के स्वार्थ सिद्ध हुए। भारत पर ब्रिटिश शासन की समयसीमा बढ़ गई और विश्व युद्ध में उन्हें भारतीयों की मदद भी मिली। नेहरू को पीएम पद मिला और गांधी को अभेद्य राजनीतिक शुचिता प्रदान करनेवाला महात्मा का कवच।
पर, क्या आप जानते हैं कि मोहनदास के जिंदगी के कई अनछुए पहलू ऐसे हैं, जिन्हें टटोलने पर आपकी धारणा बदल सकती है? साथ ही आपकी यही परिष्कृत धारणा देश की सबसे पुरानी पार्टी की धुरी को ध्वस्त कर देगी तथा सही अर्थों में भारत और उसके राष्ट्रवाद से ना सिर्फ आपको परिचित कराएगी बल्कि उनकी शाश्वत परिभाषा को प्रतिपादित करेगी। शायद, इसीलिए उन्हें राजनीतिक रूप से इतना पवित्र कर दिया दिया गया की वो ‘अस्पृश्य’ हो जाएं और आप गांधी और अपने देश की पहचान को लेकर हमेशा भ्रम में रहें।
रंगभेद के खिलाफ विरोध के साथ गांधी ने…
गांधी को गरीब महत्मा समझने वाली जनता को यह पता ही नहीं होगा कि गांधी एक अत्यंत धनाढ्य और शासकीय वर्ग से आते थे। उनके पिता और दादा पोरबंदर स्टेट के मुख्यमंत्री के अधीन दीवान रह चुके थे। गांधी का बचपन संपन्नता और वैभव में गुजरा। 14 वर्ष की उम्र में ही शादी हो जाने से गांधी बचपन से यौन क्रियाओं के प्रति उन्मुख रहें। लंदन से वकालत की पढ़ाई की लेकिन कभी अच्छे अधिवक्ता नहीं बन पाएं। पिता के बल पर पोरबंदर स्टेट के वकील रहे पर कुछ खास नहीं कर पाएं। वकालत पेशे को छोड़कर शैक्षणिक पेशे में भी हाथ आजमाना चाहा पर वहां भी नाकाम रहे।
अंततः, 1893 में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका संघ में ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया में कानूनी रूप से एक मुस्लिम मवक्किल का प्रतिनिधित्व करने के लिए मुसलमानों की एक फर्म से एक प्रस्ताव स्वीकार कर अफ्रीका चले गए।हम भारतीयों को सिखाया गया है कि गांधी भारत में महात्मा बने, लेकिन उनके ‘संतत्व’ की बीज 1893 और 1914 के बीच दक्षिण अफ्रीका में पड़ी।
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पीटरमैरिट्सबर्ग में गैर-श्वेत होने के कारण ट्रेन से बाहर फेंकने की घटना हम सभी भारतीयों को पढ़ाई गई है। भारतीय स्कूलों में इसे एक प्रतिष्ठित और परिवर्तनकारी क्षण के रूप में पढ़ाया जाता है, जब गांधी अन्याय के खिलाफ उठ खड़े हुए। हालांकि, इस संस्करण से जो सबसे महत्वपूर्ण बात अनुपस्थित है वह यह है कि गांधी अश्वेत अफ्रीकियों के साथ बैठना ही नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने बैठने का विरोध किया। उन्होंने रंगभेद के खिलाफ विरोध नहीं बल्कि खुद को अश्वेतों के साथ बैठाए जाने का विरोध किया था।
क्या गांधी नस्लभेदी थे?
दक्षिण अफ्रीका में गांधी के जीवन और कार्य पर एक विवादास्पद पुस्तक के लेखक और अफ़्रीकी शिक्षाविद अश्विन देसाई और गुलाम वाहेद निश्चित रूप से ऐसा मानते हैं। इन दोनों ने एक ऐसे व्यक्ति के जीवन खोज में सात साल बिताए जो उनके देश में दो दशकों (1893-1914) से अधिक समय तक रहा और वहां भारतीय लोगों के अधिकारों के लिए अभियान चलाया ।
The South African Gandhi: Stretcher-Bearer of Empire नामक अपनी पुस्तक में देसाई और वाहेद लिखते हैं “अफ्रीका में रहने के दौरान, गांधी ने भारतीयों को अफ्रीकियों से रंग और नस्ल के आधार पर अलग कर दिया जबकि अफ्रीकी लोग ब्रिटेन के रंगभेद नीति से ज्यादा त्रस्त थे और ब्रिटिश प्रजा होने का दावा भी कर सकते थे।” आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पूर्वव्याप्त अंग्रेजी रंगभेद की नीति में गांधी द्वारा जनित इस नस्लभेदी अलगाव से दक्षिण अफ्रीका में रहनेवाले भारतीय और अफ्रीकी समुदायों के बीच कितना दुराग्रह जन्मा होगा।
वे लिखते हैं कि गांधी के आंदोलन या संघर्ष सिर्फ भारतीयों के लिए थे। वे ‘भारतीय’ मुद्दों को इतनी चतुराई से उठाते थे कि कभी-कभार ये मुद्दे भारतीयों को अफ्रीकियों से अलग कर देते थे। इस नीति से गांधी एक तीर से तीन निशाने साधते थे। प्रथम, अंग्रेजों की ‘फुट डालो, राज करो’ की रणनीति को सफल बना ब्रितानी साम्राज्यवाद को दबावमुक्त रखते थे। दूसरा, गांधी ने स्वयं को भारतीय समाज के पुरोधा के रूप में प्रस्तुत किया, जिसने उन्हें राजनीतिक शक्ति प्रदान की। तीसरा, पराभव को प्राप्त होते अपने विधिक पेशे को उन्होंने अपने इस राजनीतिक उदय से महत्वहीन कर दिया। लेखक लिखते हैं कि गांधी भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की दुर्दशा के प्रति भी उदासीन थे। अफ्रीका देश के मूल निवासी और काले अफ्रीकियों को गांधी काफिर कहते थे। महात्मा का तो पता नहीं पर अपने इन कृत्यों से गांधी ब्रितानी राजसत्ता के करीब आए और अजातशत्रु बने।
उनके जीवनी के लेखक रामचंद्र गुहा कहते हैं..
गांधी अपने शुरुआती दिनों में नस्लभेदी थे, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है। 61 वर्षीय गुहा ने एक साक्षात्कार में NPR को बताया था कि “20 वर्षीय गांधी सोचते थे कि यूरोपीय सबसे सभ्य हैं। उन्हें लगता था कि भारतीय लगभग सभ्य है, जबकि अफ्रीकी पूर्णतः असभ्य है। पूर्वी अफ्रीका के राष्ट्र मालवी में तो #gandhimustfall नाम का अभियान तक चलाया गया। इसके पीछे का कारण था गांधी का रंगभेदी चेहरा। अफ्रीकी लोग उन्हें नायक से ज्यादा खलनायक के रूप में देखते है।”
ब्लैंटायर के चांसलर कॉलेज में काम करने वाले अकादमिक और कार्यकर्ता जिमी कैंजा भी कहते हैं कि “गोरों और दुनिया भर के सरकारों और लोगों द्वारा फैलाए गए प्रोपोगेंडा के कारण मलावी सरकार के लिए इस तथ्य को स्वीकार करना मुश्किल है कि एक देश के तौर पर गांधी की हममें कोई हिस्सेदारी है। गांधी को एक अलग नजरिए से नायक के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन अफ्रीका और अश्वेत अफ्रीकी नजरिए से नहीं।”
कैंजा वास्तव में कहते हैं कि “पूरे अफ्रीका में कई युवा ऐतिहासिक घटनाओं पर सवाल उठाने लगे हैं। कई अफ्रीकी सरकारों ने कार्यकर्ताओं के युवा समूहों के दबाव का सामना किया है, जो एक अलग दृष्टिकोण से इतिहास को फिर से पढ़ना या समझना शुरू करते हैं।” 1893 में गांधी ने संसद को यह कहते हुए पत्र लिखा था कि भारतीय, जंगली या अफ्रीका के मूल निवासियों की तुलना में थोडे बेहतर नस्ल हैं।
1904 में, उन्होंने जोहान्सबर्ग के एक स्वास्थ्य अधिकारी को लिखा कि परिषद को ‘कुली लोकेशन’ नामक एक अस्वच्छ झुग्गी से ‘काफिरों’ अर्थात अफ्रीकी मूल के लोगों को हटा लेना चाहिए। मैं काफिरों की जगह भारतीयों के साथ रहने से व्यथित महसूस करता हूं। 1903 में, जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे, तब उन्होंने लिखा था कि गोरे लोग ‘Predominating Race” यानी श्रेष्ठ जाति है। उन्होंने यह भी कहा कि काले लोग ‘परेशान करने वाले, बहुत गंदे और जानवरों की तरह रहते हैं।’ 1905 में जब डरबन प्लेग की चपेट में आया तो गांधी ने लिखा कि यह समस्या तब तक बनी रहेगी जब तक कि भारतीयों और अफ्रीकियों को अस्पताल में एक साथ रखा जायेगा।
गांधी के पोते राजमोहन गांधी कहते हैं…
इतिहासकारों का कहना है कि ये सारे साक्ष्य पूरी तरह से को नया रहस्योद्घाटन नहीं है। अपने जीवन के प्रारंभिक काल में गांधी नस्लभेदी थे और यह सच है। कुछ दक्षिण अफ़्रीकी लोगों ने हमेशा उनपर आरोप लगाया है कि अपनी राजनीतिक शक्ति, स्वीकार्यता और पेशे को बढ़ाने के लिए उन्होंने नस्लीय अलगाव को बढ़ावा दिया तथा ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के साथ मिलकर काम किया। गांधी के जीवनी लेखक और उनके पोते राजमोहन गांधी कहते हैं कि ‘वे वकालत के काम से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वे दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे।”
उनका तर्क है कि गांधी भी एक अपूर्ण इंसान थे। Magisterial Gandhi Before India के लेखक रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि “गांधी के कारण ही अफ्रीका में नस्लभेद के विरोध में अभियान आरंभ हुए।” परन्तु, The South African Gandhi: Stretcher-Bearer of Empire के लेखक इस कथन से असहमत हैं। अश्विन देसाई कहते है –“उन्होंने इस हद तक श्वेत अल्पसंख्यक शक्ति को स्वीकार कर लिया कि वह ब्रितानी साम्राज्य के कनिष्ठ भागीदार बनने के इच्छुक थे, वह एक नस्लवादी थे। भगवान का शुक्र है कि वह इसमें सफल नहीं हुए। देसाई ने इस दावे को भी खारिज कर दिया कि गांधी ने काले अधिकारों के लिए स्थानीय संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया। वे कहते हैं, “आप उपनिवेशवाद के लिए अफ्रीकी प्रतिरोध का इतिहास लिख रहे हैं, जो गांधी के आने से बहुत पहले सामने आ चुका था।”
जब गांधी ने भारतवंशियों को साथ देने के लिए बाध्य किया
गुहा ने अपनी किताब में लिखते हैं कि केपटाउन में उनके एक दोस्त ने उन्हें गांधी के बारे में बताते हुए कहा कि आपने हमें एक वकील दिया, हमने आपको एक महात्मा वापस दिया। अश्विन देसाई को लगता है कि एक ऐसे व्यक्ति को नायक बनाया जाना हास्यास्पद है, जिसने अफ्रीकी लोगों पर निरंकुश करों का समर्थन किया और उनपर होनेवाले क्रूरता के लिए आंखें मूंद लीं। गांधी पर पारंपरिक भारतीय इतिहास लेखन को चुनौती देने वाले कई इतिहासकार हुए पर उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया। यहां तक की इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने 2013 में स्पष्ट रूप से लिखा था कि “गांधी का अफ्रीकियों के प्रति व्यवहार उनकी महात्मा छवि पर एक काला धब्बा है।”
1899 में दक्षिण अफ्रीका में दूसरा एंग्लो-बोअर (दक्षिण अफ्रीकी युद्ध) युद्ध छिड़ गया। हालांकि, गांधी की सहानुभूति बोअर्स के साथ थी, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे पर उन्होंने भारतीय समुदाय को अंग्रेजो का समर्थन करने की सलाह दी थी। गांधी ने भारतीयों को ब्रिटिश सत्ता के अधीन मान भारतवंशियों को उनका साथ देने के लिए बाध्य किया। ब्रितानी साम्राज्य की रक्षा करने को उनका कर्तव्य बताया। उन्होंने डॉ बूथ की मदद से संगठित होकर 1,100 स्वयंसेवकों की एक भारतीय एम्बुलेंस कोर को प्रशिक्षित किया और सरकार को अपनी सेवाएं दीं। गांधी के नेतृत्व में वाहिनी ने बहुमूल्य सेवा प्रदान की और प्रेषणों में इसका उल्लेख भी किया गया है। उनके इस कृत्य से ना सिर्फ वहां के मूल अफ्रीकियों और भारतवासियों के बीच दुराव बढ़ा बल्कि अंग्रेजों के बीच गांधी की स्वीकार्यता भी बढ़ी।
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क्यों लौटे थे गांधी?
गांधी दक्षिण अफ्रीका से अपने नस्लभेदी मानसिकता, कृत्यों, अश्वेतो के खिलाफ अपने पूर्वाग्रहों और ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थन करने के कारण लौटाए गए। एक धनाढ्य और कुलीन वर्ग से आने के कारण वो यहां एक बेहतर राजनेता के रूप में उभर सकते थे। अपने पेशे को बचा सकत थे। ब्रिटेन ने भी कोई आपत्ति इसीलिए नहीं जताई क्योंकि उनका भारत आना ब्रितानी शासन के बढ़े ‘Deadline’ का उद्घोष था। यहां उन्हें सुरक्षा थी, संतोष था और अवसर के आसार दिखे जबकि दक्षिण अफ्रीका में उनकी नस्लभेदी मानसिकता के कारण भीड़ ने उनके हत्या तक का प्रयास किया था।
1962 में, एक ब्रिटिश फिल्म निर्माता रिचर्ड एटनबरो ने जब गांधी पर फिल्म बनाने के लिए शोध करना शुरू किया। तब उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से पूछा कि उन्हें अपने दिवंगत सहयोगी को कैसे चित्रित करना चाहिए? नेहरू ने प्रसिद्ध रूप से उत्तर दिया कि गांधी “एक महान व्यक्ति थे, लेकिन उनकी अपनी कमजोरियां, मनोदशा और उनकी अपनी विफलताएं थीं।” उन्होंने एटनबरो से गांधी को संत न बनाने की भीख मांगी। नेहरू ने कहा, “वह संत नहीं बल्कि इंसान थे।”
मोहनदास करमचंद गांधी अपने मानसिकता और कृत्यों के कारण परदेश से घर लौट आये परन्तु कुछ लोगों ने उन्हें महात्मा का चोगा ओढ़ाकर उनके जीवन के सत्य से दुनिया को अपरिचित रखा। यह कुत्सित और निकृष्ट कृत्य स्वयं में ही गांधीवाद के खिलाफ है। गांधी तो सदैव ही सत्यार्थ की खोज में रहे। ऐसे में, कहा जा सकता है कि सत्य के सबसे बड़े प्रवर्तक आज स्वयं हेतु ‘सत्याग्रह’ की मांग कर रहा है। अतः उनके कृत्य और व्यक्तिव का सत्यपूर्ण अन्वेषण करके हम गांधीवाद की धुरी को और मजबूत ही करेंगे। याद रहे, गांधी को जानना, गांधी पर प्रश्न उठाना और गांधी को आलोचना के आधार में लाना सबसे बड़ा गांधीवाद है और इसका निषेध गांधीवाद के खिलाफ!