मुख्य बिंदु
- नेपाल के नागरिकों ने चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ देश में किया चीन-विरोधी प्रदर्शन
- चीन की कोशिश है नेपाल में अपने राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पदचिह्न का विस्तार करना
- रासुवागढ़ी और तातोपानी सीमाओं को चीन ने किया अवरुद्ध , माल के पारगमन की अनुमति नहीं, इससे चीन-नेपाल संबंधों पर पड़ेगा असर
यह आश्चर्यजनक है कि कैसे नेतृत्व में परिवर्तन किसी देश की कूटनीति को पलट सकता है? जब केपी शर्मा ओली नेपाल के प्रधानमंत्री थे, तब चीन नेपाल के राजनीतिक मामलों में बढ़-चढ़कर हस्तक्षेप करता था। ओली सरकार में चीन ने कूटनीतिक शालीनता की सभी हदें पार कर दी थी और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक मामलों में गहराई से दखल देने लगा था। चीन, नेपाल में एक ग्राहक देश के रूप में काम कर रहा था और उसे अपने कर्ज के जाल से निगलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन जब से शेर बहादुर देउबा सत्ता में आए, तब से नेपाल बदल गया है। दरअसल, नेपाल के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में चीन अपना आधिपत्य कायम करना चाहता है किन्तु बीते बुधवार को नेपाल के नागरिकों ने चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ देश में एंटी-चाइना प्रदर्शन किया।
नेपाल में चीन के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोग
एक नेपाली समाचार वेबसाइट खबरहब के अनुसार, नेपाल में चीन विरोधी प्रदर्शन उग्र हो गया है। खबरहब ने बताया कि चीन के खिलाफ स्वतंत्र नागरिक समाज (स्वतंत्र नागरिक समूह) नेपाल की राजधानी काठमांडू में सड़कों पर उतर आया है। उन्होंने नेपाल के राजनीतिक और आर्थिक मामलों में ‘हस्तक्षेप’ करने के लिए चीन की आलोचना की और उत्तरी जिलों में नेपाली भूमि पर अतिक्रमण करने के लिए कम्युनिस्ट देश को लताड़ लगाई। प्रदर्शनकारियों ने ‘चीनी हस्तक्षेप बंद करो’, ‘सीमा अतिक्रमण बंद करो’ और ‘चीन में पढ़ रहे नेपाली छात्रों के लिए सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करो’ जैसे मुद्दों पर नारे लगाए।
एक प्रदर्शनकारी रामू लामा ने कहा, “चीन रासवा और तातोपानी चौकियों पर मनमानी नाकेबंदी कर रहा है और अपने मित्र देशों के साथ नेपाल के संबंधों को तोड़ रहा है।” वहीं, पर्यवेक्षकों का दावा है कि चीन नेपालियों पर अनावश्यक और अक्सर कठोर उपाय कर रहा है। खबरहुब के हवाले से एक व्यवसायी ने कहा कि “चीनियों ने उसे नेपाल के केरुंग इलाके में घर के किराए के रूप में प्रति वर्ष 2 से 3 लाख रुपये की कड़ी राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर किया।” दरअसल, नवंबर 2021 में एक नेपाली समाचार पत्र में प्रकशित रिपोर्ट में कहा गया था कि एक चीनी खुफिया एजेंसी अन्य देशों के साथ नेपाल के संबंधों को अस्थिर करने में ‘सक्रिय भूमिका’ निभा रही है।
नेपाल में कई सामाजिक संगठन हैं चीन के खिलाफ
बता दें कि चीन ने नेपाल में अपने राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पदचिह्न का विस्तार करने की कोशिश की है। अपनी खुली और गुप्त गतिविधियों के साथ चीन नेपाली गांवों पर कब्जा कर रहा है, नेपाली राजनेताओं को भी प्रभावित कर रहा है और भारत-नेपाल संबंधों को तोड़ने के लिए राजनयिक दबाव का उपयोग कर रहा है। हालांकि, नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने ओली युग में बढ़ते चीनी हस्तक्षेप से नेपाल को प्रतिरक्षित किया है। यह नेपाल- भारत संबंध के लिए सकारात्मक पहल है। नेपाल में कई सामाजिक संगठनों ने चीन की साजिश को लैंडलॉक (वह देश जिसकी सभी सीमायें या तटरेखा केवल स्थल या फिर किसी बंद सागर से मिलती हैं) देश में अपने पदचिह्न का विस्तार करने के लिए लताड़ लगाई है और कम्युनिस्ट देश के खिलाफ विरोध रैलियों का आयोजन किया है।
खतरे में पड़ सकता है नेपाल-चीन संबंध
नेपाल में चल रहे प्रदर्शनों का असर अब चीन-नेपाल संबंधों पर पड़ रहा है। कथित तौर पर, रासुवागढ़ी और तातोपानी सीमाओं को चीन द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया है और माल के पारगमन की अनुमति नहीं दी जा रही है। चीन ने स्वयं नेपाल में अपनी बेल्ट एंड रोड महत्वाकांक्षाओं के लिए रासुवागढ़ी-केरुंग सीमा को प्रमुख मार्ग घोषित किया था। वहीं, ओली ने भी चीन के कम्युनिस्ट नेतृत्व को खुश करने की कोशिश की थी और अपने उत्तरी पड़ोसी देश के साथ नेपाल की सीमाओं को खोलने के लिए विशेष उपाय किए थे। मालूम हो कि वर्ष 2016 में, एक चीन-नेपाली पारगमन समझौते ने नेपाल द्वारा चीनी बंदरगाहों के माध्यम से तीसरे देशों से माल के आयात और निर्यात की अनुमति दी थी।
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चीन ने नेपाल को Land-Linked देश में बदलने का वादा किया था लेकिन नेपाली व्यवसायी अब चीन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। रासुवा एवं तातोपानी नेपाल और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार के लिए दो मुख्य सीमा चौकियां हैं और चीन ने इन दोनों चौकियों को बाधित कर दिया है। यह बात अब नेपाल के लोगों को नाराज कर रही है और कम्युनिस्ट देश के खिलाफ और भी जोरदार विरोध प्रदर्शन को प्रोत्साहित कर रही है। ऐसे में, चीन-नेपाली संबंध का पुनः विकसित होना कठिन प्रतीत हो रहा है, क्योंकि नेपाल ने शेर बहादुर देउबा के शासनकाल में चीन के खिलाफ एक बुलंद आवाज उठाई है।