लद्दाख़ में खत्म हुआ उर्दू का एकाधिकार

यह निर्णय प्रशंसा के पात्र है!

लद्दाख़ उर्दू
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भारत विविधिताओं से भरा एक देश है, जहां कई तरह के भाषाई एवं विभिन्न धर्मों में विश्वास रखने वाले लोग हैं। इस विविधिता में भाषा विशेष और धर्म विशेष की कोई जगह नहीं होती। इसी क्रम में लद्दाख़ प्रशासन ने राजस्व विभाग के विभिन्न पदों पर भर्ती हेतु उर्दू की योग्यता की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया है। यह जानकारी लद्दाख़ से भाजपा सांसद जामयांग सेरिंग नामग्याल ने दी है। अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद उन्होंने उर्दू की अनिवार्यता की समाप्ति को सच्ची आजादी बताया है। नामग्याल ने इसके लिए देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और लद्दाख़ के उपराज्यपाल राधाकृष्ण माथुर को धन्यवाद दिया है।

उल्लेखनीय है कि लद्दाख से भाजपा सांसद जामयांग सेरिंग नामग्याल ने पिछले साल गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर पटवारी और नायब तहसीलदार जैसे पदों पर बहाली के लिए राजस्व नियमों (उर्दू को हटाने) में बदलाव की मांग की थी। वहीं, इस पत्र पर संज्ञान लेते हुए यह फैसला लिया गया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद यह सबसे महत्वपूर्ण बदलाव है। अब हमें दशकों से थोपी गई भाषा से असली आजादी मिली है।

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लद्दाख़ में उर्दू की खत्म हुई अनिवार्यता

सांसद जामयांग सेरिंग नामग्याल ने कहा, ”केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ के उपराज्यपाल की ओर से नोटिस जारी किया गया है कि 7 जनवरी के बाद राजस्व विभाग में सभी पटवारी और नायब तहसीलदार पदों पर उर्दू अनिवार्य नहीं होगी। अगर आपके पास किसी मान्यता प्राप्त यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की डिग्री है, तो आप आवेदन कर सकते हैं। मैं समझता हूं कि अलग केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ के निर्माण के बाद हमने यह एक सुधारात्मक कदम उठाया है। जो लोग उर्दू नहीं जानते उनके यानी पूरे लद्दाख़ के लिए यह भेदभावपूर्ण नीति थी क्योंकि उर्दू लद्दाख़ की किसी जनजाति की मातृभाषा नहीं है। इस कदम के लिए मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, लद्दाख़ के उपराज्यपाल राधाकृष्ण माथुर को धन्यवाद देता हूं। इससे लद्दाख़ की पूरी जनता खुश है। मुझे उम्मीद थी कि इससे लद्दाख़ को अपनी पहचान बनाने और उभरने का मौका मिलेगा।”

वहीं, लद्दाख़ के प्रमुख सचिव डॉ. पवन कोतवाल द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार ‘नॉलेज ऑफ उर्दू’ की जगह ‘किसी भी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री’ अनिवार्य कर दी गई है। आपको बता दें कि लद्दाख़ में लेह और कारगिल दो जिले हैं और यहां उर्दू भूमि और राजस्व अभिलेखों की भाषा रही है। अदालतों (निचली अदालतें) का संचालन और यहां तक की FIR भी उर्दू में लिखी जाती है। उर्दू सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला शिक्षा का माध्यम भी है, खासकर कश्मीर, कारगिल और जम्मू के मुस्लिम बहुल इलाकों में।

उर्दू को हटाने से हो रहा है विरोध

हालांकि, ये ऐतिहासिक निर्णय भी कुछ लोगों के लिए आंख का कांटा बन गया है और वो अनवरत रूप से इसकी आलोचना और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहें है। लद्दाख़ स्वायत्त हिल विकास परिषद के मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष फिरोज खान ने उपराज्यपाल आर.के. माथुर को पत्र लिखकर इस उर्दू विरोधी फैसले को तुरंत वापस लेने पर जोर दिया है। लद्दाख़ के लेह जिले में इस फैसले की प्रशंसा हो रही है जबकि लद्दाख़ के दूसरे जिले कारगिल में युवा प्रशासन इस फैसले के विरोध की तैयारी कर रहा हैं।

बता दें कि कारगिल में उर्दू पढ़ाई जाती है। ऐसे में कारगिल हिल काउंसिल भी उपराज्यपाल प्रशासन के निर्णय के खिलाफ उतर आई है। फिरोज खान ने उपराज्यपाल को लिखा है कि लद्दाख़ में एक सदी से उर्दू भाषा में काम हो रहा है। डोगरा महाराजा प्रताप सिंह ने वर्ष 1889 में इसे जम्मू और कश्मीर के आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया। राजस्व विभाग का सारा काम उर्दू भाषा में हो रहा है। इसके इस्तेमाल पर रोक लगाने से कई तरह की समस्याएं पैदा होंगी। इस भाषा ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ को जोड़ा है। यह बात अलग है कि कुछ लोग इसे विदेशी भाषा कहते हैं।

खान ने लिखा है कि सितंबर 2021 में एम्पावर कमेटी ने सभी को विश्वास में लेकर लद्दाख़ में भर्ती के नियम बनाए थे। अब इनमें अचानक बदलाव करना एक असहनीय फैसला है। लद्दाख़ में राजस्व रिकॉर्ड का अंग्रेजी में अनुवाद और डिजिटलीकरण किया जाना बाकी है। ऐसे में उपराज्यपाल प्रशासन को इस फैसले को वापस लेकर विशेषज्ञों की एक कमेटी बनानी चाहिए।

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यह निर्णय प्रशंसा के पात्र है

ऐसे में, लोगों को समझने की जरुरत है कि किसी समुदाय पर भाषा की अनिवार्यता थोपने से देश की अखंडता पर खतरा उभर आता है। आप इस कथन के आधार के लिए श्रीलंका और पाकिस्तान का उदाहरण ले सकते है। सरकार ने उर्दू भाषा की अनिवार्यता समाप्त की है, ना की उर्दू भाषा को। पटवारी की परीक्षा जिन्हें उर्दू में देनी हो वो आज भी स्वतंत्र है पर जिनकी मातृभाषा उर्दू है ही नहीं उन्हें अवसर की समानता से क्यों रोका जाए? कारगिल के मुसलमानों को यह बात समझते हुए इस निर्णय की प्रशंसा करनी चाहिए!

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