जो बनेगा पश्चिमी UP की पहली पसंद, वही बनेगा CM

पश्चिमी उत्तर प्रदेश: जो जीता वही सिकंदर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश

शीघ्र अतिशीघ्र उत्तरप्रदेश में चुनावी लहर प्रारंभ होने वाली है, और कोविड की वर्तमान लहर भी इसे अधिक समय तक नहीं रोक सकती। वो कहते हैं न कि दिल्ली की सड़क लखनऊ से होकर जाती है, इसीलिए उत्तर प्रदेश का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत अधिक है। राजनीतिक प्रारूप में उत्तर प्रदेश से रोचक और उत्तर प्रदेश से जटिल राज्य पूरे देश में आपको कहीं नहीं मिलेगा। यहाँ के चुनावी समीकरणों को समझना गणित के गूढ विषयों को समझने के समान कठिन है। कुल 403 सीटों में 71 सीटें पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आती हैं, जो कृषि प्रधान भूमि हैं। जब भाजपा ने सभी को चौंकाते हुए 2017 के विधानसभा चुनाव में 312 सीटों पर प्रचंड बहुमत प्राप्त की थी, तो उन्होंने इन 71 सीटों में से 51 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। इससे आप समझ सकते हो कि ये क्षेत्र क्यों महत्वपूर्ण है और यहाँ का क्या प्रभाव है।

परंतु अब स्थिति पहले जैसी नहीं है, और इसीलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश, 2022 के विधानसभा चुनावों में, विशेषकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। यहाँ पर लगभग द्विपक्षीय मुकाबला है, क्योंकि एक ओर भाजपा होगी और दूसरी ओर है समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठजोड़, जिन्हे अप्रत्यक्ष तौर पर कांग्रेस बाहरी समर्थन दे सकती है।

अब बात करते हैं पहले समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल की। दोनों के लिए ये अस्तित्व की लड़ाई है। दोनों को भली-भांति पता है कि यहाँ हारे तो इसके पश्चात इनकी हालत कम्युनिस्ट पार्टी समान हो जाएगी कि इनकी पार्टी तो है, पर भाव कोई नहीं देता। वंशवाद की विषबेल के कारण दोनों ही पार्टियाँ अपनी चमक खो चुकी हैं, परंतु कृषि आंदोलन के कारण जो इन्हे लाइमलाइट मिली है, उसका लाभ उठाते हुए वे एक बार फिर जाट–मुस्लिम एकता के सपने को वास्तविकता में परिवर्तित करना चाहते हैं। अब देखना यह होगा कि क्या अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की यह जोड़ी वही काम कर पाती है जो कभी मुलायम सिंह यादव और चौधरी अजीत सिंह के गठजोड़ ने किया था।

अब आते हैं भाजपा की ओर। भाजपा के लिए जाट समुदाय उनका पारंपरिक वोटर नहीं रहा है, और कृषि आंदोलन के पश्चात इनका पार्टी के साथ लगभग छत्तीस का आंकड़ा है, जिसके लिए अधिकतम राकेश टिकैत और उनके पैंतरे ही जिम्मेदार हैं। लेकिन भाजपा के पास एक नहीं, अनेक अस्त्र है, जिसके बल पर वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वर्चस्व जमा सकती है।

सर्वप्रथम है गुज्जर समुदाय। धान सिंह कोतवाल और सम्राट मिहिर भोज को उनका उचित सम्मान देकर भाजपा स्पष्ट संदेश दे रही है कि वह अकेले जाटों पर निर्भर नहीं रहेगी। इसके अलावा पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को भी साथ लेकर चलने की भाजपा की पुरानी रणनीति तो है ही।

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परंतु भाजपा का ट्रम्प कार्ड है आक्रामक हिन्दुत्व, जिसका तोड़ ढूँढने से भी शायद ही विपक्षी पार्टियों के पास हो। चाहे कैराना से पलायन किए हिंदुओं को बसाना हो, मुजफ्फरनगर हिंसा के असली आरोपियों को पकड़ना हो, मेरठ के अवैध गल्ला धंधे और गाड़ी माफिया पर लगाम लगानी हो, या फिर अपराधियों को नियंत्रित करना हो, योगी शासन कभी पीछे नहीं हटा है। अखिलेश यादव ने पिछली बार नारा अवश्य लगाया था कि ‘काम बोलता है’, परंतु यहाँ तो वास्तव में काम बोलता भी है और दिखता भी है!

अब पश्चिमी यूपी कौन जीतेगा ये तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि यदि इतने प्रपंच के बाद भी भाजपा पश्चिमी यूपी का दुर्ग बचाने में सफल रही, तो ये सिद्ध हो जाएगा कि इतने समय तक कृषि आंदोलन के नाम पर रचा गया प्रपंच फर्जी था और लोगों ने उसे नकार दिया है!

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