जब से दुनिया एक “चीन-जनित कोरोना वायरस” की चपेट में आई, तब से छोटे देशों ने खुद को एक गहरे आर्थिक संकट में डूबते देखा है। ऊपर से विदेशी निवेशकों पर दुराग्रहपूर्ण कार्रवाई कर और Evergande को डूबा कर चीन ने स्थिति को और भी ज्यादा गंभीर बना दिया। स्थिति उन राष्ट्रों के लिए और भी खतरनाक हो गई, जिन्होंने चीन के साथ व्यापारिक संबंध बनाया और अन्य आर्थिक लाभ की उम्मीद की। भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका भी चीन की इन हरकतों का शिकार हो गया और अब एक अंधकारमय आर्थिक भविष्य उसे घूर रहा है।
हालांकि, चीन और उसकी ऋण-जाल की कूटनीति इस आधार पर काम करती है कि साम्यवादी देश की सत्ता सर्वोच्च है और वह एक संप्रभु सरकार के सभी क्षेत्रों में घुसपैठ कर सकता है। अब उसके आर्थिक आक्रमण और घुसपैठ का शिकार श्रीलंका बन चुका है। बीजिंग, श्रीलंका को दिवालिया कर अपने कर-जाल में फंसाने में कामयाब रहा। पिछले कुछ महीनों में श्रीलंका के राजनीतिक वर्ग की विरोध ध्वनि इस बात का उद्घोष करती हैं कि चीन के प्रति श्रीलंका का नजरिया बदल गया है और चीन के खिलाफ एक अघोषित क्रांति वहां चुपचाप चल रही है।
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सांसद ने जिनपिंग को लिखा पत्र
श्रीलंका के बिगड़ते आर्थिक हालात के बीच देश का राजनीतिक वर्ग और उसके नेता खुलेआम चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर निशाना साध रहे हैं। जिनपिंग पर अपनी कुटिल ऋण जाल के कूटनीतिक रणनीति के कारण श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाते हुए, श्रीलंकाई वकील और वहां के संसद सदस्य विजयदास राजपक्षे ने सीसीपी नेता को 45-बिंदु का एक 6-पृष्ठीय तीखा पत्र लिखा है।
45 सूत्री पत्र में राजपक्षे ने चीन की वन बेल्ट-वन रोड से पीछे हटने का आह्वान किया। उन्होंने पत्र में कहा है कि चीन की विदेश नीति और आर्थिक रणनीति को मजबूत करने के बहाने आपके देश ने “वन बेल्ट-वन रोड” नीति शुरू कर, हमारे पुराने संबंध एकदम से खराब कर दिए हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि चीन केवल इस द्वीप राष्ट्र का उपयोग करता है।
राजपक्षे ने जिनपिंग की खिंचाई करते हुए कहा, “यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि हमारे साथ आपकी दोस्ती अब वास्तविक और स्पष्ट नहीं है, इसके बजाय आप हमारे संबंधों का उपयोग विश्व शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को हासिल करने के लिए करते हैं। आप हमारे देश के अन्य शक्तियों को अपने शक्ति संघर्ष का शिकार बनाकर, हमारे क्षेत्र के साथ-साथ दुनिया में शांति भंग कर रहे हैं।”
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हम कर्ज नहीं चुकाएंगे: राजपक्षे
चीन को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह उपहार में देने और चीन के बढ़े हुए ऋणों के कारण श्रीलंका अब आर्थिक रूप से चीन का गुलाम होने के कगार पर है। यह कहते हुए कि श्रीलंका पिछले 15 वर्षों के सभी सौदों की जांच करेगा, सांसद ने आगे कहा कि “आपके द्वारा भ्रष्टाचार के माध्यम से प्राप्त किए गए सभी परियोजनाएं और लेन-देन रद्द कर दिए जाएंगे और हम ऐसे अनुबंधों के लिए प्राप्त किसी भी ऋण का भुगतान करने के लिए कोई दायित्व नहीं रखते हैं। किसी भी पुनर्गठन की स्थिति में, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी समझौते को ऐसे अनुबंधों की स्थापना की तारीख से 15 वर्ष से अधिक की अनुमति नहीं दी जाएगी।”
भारत और श्रीलंका के बीच हुआ सौदा
जहां असहमति की आवाजें श्रीलंकाई जनता को जागरूक करने लगी है। वहीं, भारत चुपचाप अपना काम कर रहा है। जैसा कि टीएफआई द्वारा हाल ही में रिपोर्ट किया गया कि बुधवार 5 जनवरी को चीन को करारा जवाब देते हुए नई दिल्ली और कोलंबो ने द्वीप के उत्तर-पूर्वी त्रिंकोमाली प्रांत में संयुक्त रूप से एक तेल टैंक फार्म को विकसित करने के अपने निर्णय की घोषणा की है। समझौते के अनुसार, इंडियन ऑयल सब्सिडियरी, लंका IOC (LIOC) को त्रिंकोमाली ऑयल टैंक फार्म के संयुक्त विकास में 49% हिस्सेदारी दी जाएगी, जिसमें सीलोन पेट्रोलियम कॉरपोरेशन 51% हिस्सेदारी रखेगा। चाइना बे में स्थित, इस ऑयल टैंक फार्म टैंक को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों द्वारा ईंधन भरने वाले स्टेशन के रूप में काम करने के लिए बनाया गया था। ऑयल फार्म में 12,000 किलो की क्षमता वाले 99 भंडारण टैंक हैं। वर्तमान में, LIOC 15 टैंक चलाता है, लेकिन सौदे में 61 टैंक संयुक्त रूप से विकसित किए जाएंगे।
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पीएम मोदी के दखल के बाद पूरी हुई डील
वर्ष 1987 में भारत और श्रीलंका दोनों देश अपने बीच हस्ताक्षरित भारत-श्रीलंका समझौते के साथ संलग्न पत्रों के आदान-प्रदान के माध्यम से त्रिंकोमाली तेल टैंक फार्म को संयुक्त रूप से बहाल करने और संचालित करने के लिए सहमत हुए। हालांकि, गृहयुद्ध और कई अन्य बाधाओं के कारण यह सौदा कभी भी अंजाम तक नहीं पहुंच सका। वर्ष 2015 में पीएम मोदी के श्रीलंका जाने के बाद दोनों पक्ष त्रिंकोमाली में एक पेट्रोलियम हब स्थापित करने पर सहमत हुए, जिसके लिए भारत द्वारा “संयुक्त कार्य बल” योजना तैयार करने की बात कही गई थी। हालांकि, श्रीलंकाई कैबिनेट में चीनी प्रेमियों के बैठने से यह सौदा एक बार फिर ठंडे बस्ते में चला गया।
लेकिन श्रीलंका में आर्थिक संकट बढ़ने के साथ, भारत एक बार फिर रास्ता खोजने में कामयाब रहा। कथित तौर पर, विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने अक्टूबर में द्वीप राष्ट्र की अपनी यात्रा के दौरान टैंक फार्मों का दौरा करने का एक संयुक्त रिपोर्ट बनाया, जो कि हाल ही में सहमत हुए द्विपक्षीय सौदे को दर्शाता है।
श्रीलंका से चीन को आउट कर रहा भारत
श्रीलंका में पिछले कुछ समय से आर्थिक संकट गहराया हुआ है। देश पर चीन का 6 बिलियन डॉलर से अधिक का बकाया है और वह भारत से मदद की उम्मीद कर रहा है। वैसे नई दिल्ली से श्रीलंका की बातचीत हाल के वर्षों में कम रही है, पर कुछ समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि मोदी सरकार द्वीप राष्ट्र को इस कर संकट से निकालने पर विचार कर रही है।
कथित तौर पर, नई दिल्ली श्रीलंका को दो क्रेडिट लाइन प्रदान करने की योजना बना रही है, जिसमें $1 बिलियन के क्रेडिट लाइन से इस द्वीप राष्ट्र को भोजन, दवा और अन्य आवश्यक वस्तुओं के आयात में मदद की जाएगी और दूसरा भारत से पेट्रोलियम उत्पादों के आयात के लिए $500 मिलियन की क्रेडिट लाइन प्रदान करने को लेकर योजना को अंतिम स्वरुप दिया जा रहा है। हिंद महासागर क्षेत्र में नौसेना सुरक्षा प्रदाता होने के नाते, भारत ने श्रीलंका को हमेशा दृढ़ आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान की है। भारत ने अब तक श्रीलंका को 12.64 मिलियन कोविड टीके उपलब्ध कराए हैं, जिससे भारत श्रीलंका के स्वास्थ्य संकट को दूर करने में सबसे अग्रणी रहा है।
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श्रीलंका में बह रही है बदलाव की हवा?
बताते चलें कि नई दिल्ली विकास में योगदान और रोजगार के विस्तार के लिए श्रीलंका में विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय निवेश की सुविधा भी प्रदान कर रहा है। हालांकि, भारत की आक्रामक कूटनीति की बदौलत श्रीलंका ने पिछले कुछ महीनों के दौरान भारतीय चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है। तथ्य यह है कि श्रीलंका के सांसद खुले तौर पर चीनी सरकार की आलोचना कर रहे हैं और इस क्षेत्र में भारत के निवेश का स्वागत कर रहे हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि श्रीलंका में अब परिवर्तन की हवा चल चुकी है।