राजनीति का स्वरुप बदलने आई आम आदमी पार्टी के स्वयं का स्वरुप कब बदल गया, कोई नहीं जानता ! इतना तो तय है कि जिन भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों को लागू करने की मंशा से आम आदमी पार्टी का उदय हुआ था वो आज के समय में विलुप्त हो चुकी हैं। जिस जनलोकपाल बिल को चिल्लाते-चिल्लाते रामलीला मैदान से अरविन्द केजरीवाल की राजनीतिक उत्पत्ति हुई थी वो उस वादे को भूल ही गए कि जनलोकपाल बिल नाम की कोई चिड़िया भी थी। दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की गई है, जिसमें दिल्ली सरकार को लोकायुक्त को सर्वोच्च प्राथमिकता पर नियुक्त करने का निर्देश देने की मांग की गई है, जो पद 15 दिसंबर, 2020 से खाली है।
2020 से दिल्ली में कोई लोकयुक्त नहीं है
जनलोकपाल के नाम पर सत्ता हथियाने वाले न तो 1995 में बने लोकायुक्त कानून को बदल रहे हैं और न तो लोकायुक्त नियुक्त कर रहे हैं
दगाबाज राजनीतिक पार्टियों की मान्यता खत्म करने के लिए जनहित याचिका दाखिल@adeshguptabjp @PandaJay pic.twitter.com/rLxIt0A5wk
— Ashwini Upadhyay (@AshwiniUpadhyay) February 19, 2022
याचिका के अनुसार, लोकायुक्त की नियुक्ति न होने के कारण कार्यालय में भ्रष्टाचार से संबंधित सैकड़ों शिकायतें लंबित हैं। याचिकाकर्ता, भाजपा नेता एवं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने आरोप लगाया कि आम आदमी पार्टी ने न केवल 2020 के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में बल्कि 2015 और 2013 के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में भी एक स्वतंत्र और प्रभावी लोकायुक्त का वादा किया था, लेकिन वे अभी भी पुराने अप्रभावी 1995 अधिनियम का उपयोग कर रहे हैं। याचिकाकर्ता ने अपनी जनहित याचिका में आगे कहा है कि “लोकतंत्र का आधार निष्पक्ष-चुनावी प्रक्रिया है। अगर चुनावी प्रक्रिया की अखंडता से समझौता किया जाता है तो प्रतिनिधित्व की धारणा खाली हो जाती है।”
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यह सर्वविदित है कि जनलोकपाल बिल उस आशा की किरण की भांति सभी दिल्लीवासियों के लिए उभरकर आया था जब राज्य में 15 साल के शीला दीक्षित के शासन में पूरा मंत्रिमंडल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ था। ऐसे में अरविन्द केजरीवाल ने अपने गुरु अन्ना हज़ारे को ढ़ाल बनाते हुए अपना राजनीतिक डेब्यू सुनिश्चित किया और रामलीला मैदान का वो आंदोलन, दिल्ली विधानसभा पहुंचकर शांत हुआ। इस आशा की पूर्ति के साथ ही अरविन्द केजरीवाल का जनलोकपाल बिल का राग भी शांत हो गया। इसके साथ ही आम आदमी पार्टी के केजरीवाल कब खास हो गए किसी को पता ही नहीं चला।
जनहित याचिका के अनुसार अश्विनी उपाध्याय ने फ्री के झुनझुने की आड़ में सरकार बना लेने वालों को भी आड़े हाथों लिया है। जिस प्रकार लोभ-प्रलोभन की राजनीति के साथ कुछ राजनीतिक दल फ्री-फ्री करते हुए सरकार बना लेते है और बाद में घोषणापत्र में किए वादे पूरे नहीं करते हैं ऐसे में इन दलों पर कठोरतम कार्यवाही सुनिश्चित हो इसके लिए याचिका में मांग की गई है। ऐसे दलों की मान्यता रद्द की जाने की मांग इस याचिका के माध्यम से की गई है।
याचिका में उपाध्याय ने कहा है कि “राजनीतिक दल तर्कहीन मुफ्त बाँटने वाले वादे तो कर रहे हैं लेकिन आवश्यक वादे पूरे नहीं कर रहे हैं। इसलिए, लोकतंत्र और भारतीय गणतंत्र के लिए खतरे को टाला नहीं जा सकता। याचिकाकर्ता ने कोर्ट से यह विश्लेषण करने का भी अनुरोध किया है कि क्या राजनीतिक दल वास्तव में शासन के बारे में चिंतित हैं या क्या वे लोकतांत्रिक चुनावी राजनीतिक प्रक्रिया को खत्म करने में निंदक रूप से भाग लेते हैं।
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जिस लोकपाल के लिए सबसे बड़ी आवश्यक नियुक्ति लोकायुक्त की होती है, वो लोकायुक्त पद दिसंबर 2020 से रिक्त पड़ा है जिसके चलते राज्य की शासन प्रणाली में चल रहे भ्रष्टाचार और उसकी शिकायतों का कोई निदान ही सुनिश्चित नहीं हो पा रहा है। ऐसी स्थिति में राज्य सरकार और विशेषकर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट दिख रहा है कि जिस जनलोकपाल बिल का नाम लिए बिना पेट का पानी नहीं हिलता था आज उसे उन्होंने उस मुद्दे को ठन्डे बस्ते में डालकर रख दिया है।
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