भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने खुद को एक समाजवादी के रूप में पेश किया था, लेकिन 1940 और 1950 के दशक में सोवियत संघ, चीन, पूर्वी जर्मनी जैसे देशों में प्रचलित स्पोर्ट्स स्कूलों का समाजवादी विचार भारत में विफल रहा। निकोलाई एंड्रियानोव, नेल्ली किम, अलेक्जेंडर पोपोव, विक्टर क्रोवोपुसकोव, व्लादिस्लाव त्रेताक, वलेरी खारलामोव, अनातोली एल्याबयेव और सर्गेई बुबका जैसे कई महान एथलीटों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ को एक प्रमुख खेल शक्ति बना दिया। ध्यान देने वाली बात है कि रूस को यह उपलब्धि स्पोर्ट्स स्कूलों से मिली है।
इसके अलावा ओलंपिक और अन्य खेलों के आयोजनों में चीन की हालिया सफलता स्पोर्ट्स स्कूलों से ही निकली है। समाजवादी देशों के हिसाब से अपने आर्थिक मॉडल को गढ़ने और उनकी सबसे खराब विशेषताओं को तो हमने अपना लिया, पर खेलों के विकास के मामले में भारत सरकार उन शासनों की कुछ अच्छी प्रथाओं को अपनाने में विफल रही। हालांकि, अब मोदी सरकार आक्रामक रूप से खेल के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं को बढ़ावा दे रही है, लेकिन देश में खेल की संस्कृति का लोकतंत्रीकरण होना अभी बाकी है और इसके पीछे का कारण स्कूल स्तर पर खेलों को बढ़ावा न देना है।
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मोदी सरकार ने बढ़ाया खेल बजट
भले ही सरकार सोवियत संघ या चीनी शैली के खेल स्कूलों को बढ़ावा नहीं दे रही, क्योंकि इन संस्थानों में कुछ प्रथाओं को बच्चों के प्रति अपमानजनक कहा जा सकता है। पर, सरकार को गैर-क्रिकेट खेलों जैसे- एथलेटिक्स, कुश्ती, भारोत्तोलन, बैडमिंटन, टेनिस आदि को स्कूलों में लोकप्रिय बनाने के लिए कदम उठाने चाहिए। इस साल केंद्रीय खेल बजट में दो अंकों की वृद्धि हुई, जो 2,757 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,062 करोड़ रुपये हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़े हुए खेल बजट पर कहा, “भारत ने इस बजट में खेल पर जबरदस्त ध्यान दिया है और इसके बजट आवंटन में भी वृद्धि की है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे अधिकतर खिलाड़ी किसान परिवार से हैं। हमने ‘खेलो इंडिया’ अभियान का बजट भी बढ़ाया है। खेल बजट में पिछले सात वर्षों में तीन गुना से अधिक का उछाल देखा गया है और इससे हमारे युवाओं को भी फायदा होगा।“
ध्यान देने वाली बात है कि रियो ओलंपिक में भारत केवल चार पदक (दो स्वर्ण, एक रजत, एक कांस्य) जीतने में कामयाब रहा। रियो ओलंपिक में पदक गिरावट के समस्या को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाथों में ले लिया और अगले तीन ओलंपिक खेल अर्थात् टोक्यो 2020, पेरिस 2024 और लॉस एंजिल्स 2028 के लिए कार्य योजना तैयार करने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन भी किया है। टास्क फोर्स का उद्देश्य सुविधाओं, चयन मानदंडों और बेहतर प्रशिक्षण सुविधाओं में सुधार के लिए रणनीति तैयार करना है। टास्क फोर्स में राष्ट्रीय बैडमिंटन कोच पुलेला गोपीचंद, ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा, भारत के पूर्व हॉकी कप्तान वीरेन रसकिन्हा सहित अन्य विदेशी विशेषज्ञ शामिल हैं।
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खेलो को बनाया जाना चाहिए पाठ्यक्रम का हिस्सा
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय खेल परिदृश्य में सुधार की दिशा में सबसे बड़ा विकास “खेलो इंडिया” कार्यक्रम के माध्यम से हुआ है। कार्यक्रम की आधिकारिक वेबसाइट पर कहा गया है कि इसे “हमारे देश में खेले जाने वाले सभी खेलों के लिए एक मजबूत ढांचा बनाकर भारत में खेल संस्कृति को जमीनी स्तर पर पुनर्जीवित करने और भारत को एक महान खेल राष्ट्र के रूप में स्थापित करने के लिए पेश किया गया है।” “खेलो इंडिया” कार्यक्रम भारत के लिए अद्भुत काम कर रहा है। यह वर्ष 2016 में 97.52 करोड़ रुपये के बजट के साथ शुरू हुआ था, जो वित्तीय वर्ष 2020 के अंत तक नौ गुना वृद्धि के माध्यम से 890.92 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। खेलो इंडिया कार्यक्रम के तहत पहला राष्ट्रीय पैरा खेल वर्ष 2018 में बेंगलुरु में आयोजित किया गया था।
गौरतलब है कि सरकार की इन पहलों के अच्छे परिणाम सामने आए हैं, लेकिन जहां तक ओलंपिक पदकों की बात है तो भारत अभी भी शीर्ष-20 में नहीं है। इस प्रकार खेल संस्कृति का लोकतंत्रीकरण करने और इसे जड़ों तक ले जाने के लिए, खेलों को नियमित पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए और इसके अंकों को बोर्ड परीक्षाओं में गिना जाना चाहिए। भारत को विद्यालय स्तर पर खेल की सिर्फ एक घंटी और वो भी प्रति सप्ताह वाले शिथिल रवैये से बाहर आना होगा।
साथ ही लोगों को ‘खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब, पढ़ोगे लिखोगे होगे खराब’ वाली मानसिकता से भी बाहर आना होगा। हमे इस बात को समझना होगा कि खेल सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, बल्कि शिक्षा भी है। खेलों को उद्यम और व्यवसायोन्मुख भी बनाना होगा, ताकि बच्चे इसे एक करियर और कमाई के साधन के रूप में देख सकें। जब तक स्कूलों में खेल संस्कृति नहीं होगी, देश चीन या संयुक्त राज्य अमेरिका की सफलता के स्तर को प्राप्त नहीं कर सकता है।
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