अब समय है कि भारतीय संविधान का ‘भारतीयकरण’ हो और यह सिर्फ भाजपा ही कर सकती है

सरकार को इस पर विचार करना चाहिए!

संविधान का भारतीयकरण

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भारतीय संविधान देश का सबसे स्वीकार्य और साथ ही सबसे पेचीदा दस्तावेज है! इसे स्वीकार करने वाले भी इसे किसी न किसी रूप में बदलने की मांग करते हैं। उन मांगों में से एक भारतीय संविधान का भारतीयकरण है। दरअसल, ब्रिटिश और पाश्चात्य शिक्षा से परिष्कृत हमारे संविधान सभा के पुरोधाओं ने इसमें विदेशी सिद्धांत अनवरत रूप से भर दिये। बाबा साहब जैसे विशिष्ट लोगों के होने के कारण कालांतर में संविधान ने एक तरीके से धार्मिक ग्रंथ का दर्जा प्राप्त कर लिया।

अतः देश के कुछ लोग संविधान के सिद्धांतों को छूने को राष्ट्रविरोधी मानते हैं। वहीं, कुछ लोग इसके पुनर्लेखन की मांग करते हैं, तो कुछ लोग इसकी यथावत स्थिति बरकरार रखने के पक्ष में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा हाल ही में समानता की प्रतिमा का अनावरण और तेलंगाना के सीएम केसीआर की संविधान पुनर्लेखन की मांग इसके द्वंद की अभिव्यक्ति है। परंतु, इस द्वंद को रोकने का एक उपाय भी है। वो है हमारी वृहद और विराट संस्कृति, इतिहास और परंपरा, जो समग्र विश्व के सिद्धांतो को स्वयं में समाहित कर लेती है। ऐसे में क्यों न हम संविधान का भारतीयकरण कर दें, अर्थात् इसके सिद्धांतों को अपनी सांस्कृतिक पहचान दें?

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प्रधानमंत्री ने किया ‘समानता’ की प्रतिमा का अनावरण

हाल ही में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद के चिन्ना जीयर स्वामी के आश्रम मुचिंतल में श्री रामानुजाचार्य की 216 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया। इस अवसर पर बोलते हुएप्रधानमंत्री ने श्री रामानुजाचार्य द्वारा प्रचारित समानता की अवधारणा को रेखांकित किया। यह बताते हुए कि श्री रामानुजाचार्य ने सभी के उत्थान की दिशा में कैसे काम किया, पीएम मोदी ने कहा, “रामानुजाचार्य की विशिष्टाद्वैत अवधारणा का उद्देश्य अंधविश्वास को दूर करना था। उन्होंने उपदेश दिया कि भक्ति, जाति और समुदाय के आधार पर लोगों में भेदभाव नहीं करती है।”

पीएम मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संविधान में निहित समानता की अवधारणा श्री रामानुजाचार्य से प्रेरणा लेती है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने इस तथ्य का भी उल्लेख किया कि संविधान के प्रारुप समिति के अध्यक्ष भीमराव अंबेडकर भी उनके लिए प्रशंसा से भरे थे। ध्यान देने वाली बात है भारतीय संविधान में समानता की अवधारणा यूरोप से ली गई है। माना जाता है कि कई अन्य विशेषताएं उस समय प्रचलित अन्य संविधानों की एक ड्यूप्लिकेट हैं। हालांकि, गहराई से इन अवधारणाओं की समीक्षा करने पर इनमें से अधिकांश का स्रोत भारत में ही मिल सकता है।

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धर्मनिरपेक्षता

भारत को पहली बार वर्ष 1976 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि जब से देश एक गणतंत्र बना है, तब से भारत धर्मनिरपेक्ष ही था। इंदिरा गांधी ने बस इसकी औपचारिक पुष्टि की। अपने पाश्चात्य अर्थ में यह शब्द चर्च और राज्य को विभाजित करने के लिए बनाया गया था। लेकिन लोगों को लगता है कि यही फॉर्मूला भारत पर कॉपी-पेस्ट किया गया है, पर ऐसा नहीं है।

हालांकि, एक विश्लेषण से पता चलता है कि धर्म और राज्य के बीच सकारात्मक जुड़ाव भारतीय सभ्यता की एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है। भारत में राजाओं और रानियों का हमेशा अपना जीवन था। वे भगवान के एक विशेष रूप की पूजा करते थे। लेकिन, भारतीय इतिहास में कहीं भी आपको ऐसा कोई सम्राट नहीं मिलेगा, जो अपनी प्रजा पर अपनी जीवन शैली थोपता हो। वो अलग बात है कि पश्चिमी लोगों और इस्लामी साम्राज्यों ने इसे कभी नहीं समझा।

समानता

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समानता को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की फ्रांसीसी अवधारणा की प्रत्यक्ष व्युत्पत्ति कहा गया है। इसी तरह, कानून के समक्ष समानता ब्रिटिश संविधान से उधार ली गई है। संविधान में समानता का सिद्धांत इसलिए डाला गया, क्योंकि अंग्रेजों द्वारा उनके भारत आने के समय असमानता की एक आभा पैदा की गई थी। जब यूरोपीय भारतीय तट पर उतरे, तो उन्होंने विभिन्न सौहार्दपूर्ण रूप से विद्यमान-मजदूर वर्गों को एक उच्च और निम्न जाति में विभाजित किया, जो बाद में आर्थिक असमानता और अलगाव का कारण बना। उन्होंने जो व्यवस्था बनाई थी, उसे ठीक करने के लिए संविधान में समानता की अवधारणा को शामिल किया गया था। अखंड भारतीय संस्कृति में, इन अवधारणाओं के प्रमाण पहले से मौजूद थे और इसे लागू करने के लिए किसी अधिकार के शब्द की आवश्यकता नहीं होती थी।

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समाजवाद

जिस देश का इतिहास रामराज्य का दावा करता है, उसे विशेष रूप से ब्रिटिश प्रणाली और अन्य देशो से अपने संवैधानिक सिद्धांत लेने की आवश्यकता नहीं है, जिसे लोकप्रिय रूप से समाजवाद कहा जाता है। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लाए गए 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से यह शब्द भारतीय संविधान की प्रस्तावना में औपचारिक रुप से डाला गया था। ध्यान देने वाली बात है कि भारत में पहले से ही परोपकार का एक महान इतिहास रहा है। ऋग्वेद का एक विशिष्ट भाग दान के लिए समर्पित है। राजा नियमित रूप से ऐसा करते थे। विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को हजारों वर्षों से लोगों में निहित उसी सिद्धांत की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। हमारे संस्थापक दस्तावेजों के दर्शन का निर्माण करने वाले कई अन्य सिद्धांत हमारे संविधान निर्माताओं के मन में एक स्पष्ट औपनिवेशिक पूर्वाग्रह का संकेत हैं!

केसीआर की मांग बन सकती है गेम चेंजर

हाल ही में तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव (KCR) ने राजनीतिक हलकों में हंगामा खड़ा कर दिया, जब उन्होंने भारतीय संविधान के पुन: प्रारूपण की बात कही। लोग उनसे इतने नाराज हैं कि अब उनकी मांग को लेकर उनके खिलाफ मामला तक दर्ज कर लिया गया है। हालांकि, केसीआर की मांग भारतीय संविधान का भारतीयकरण की पुष्टि कर सकती है! जैसा कि आपने देखा है कि पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद, कानूनी दिग्गजों सहित विभिन्न विशेषज्ञों ने लगातार भारतीय कानूनी व्यवस्था के लिए आवाज उठाई है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे जानते हैं कि एक राष्ट्रवादी पार्टी ही उनकी बात सुनेगी।

सिर्फ भाजपा ही कर सकती है यह काम

गौरतलब है कि यही बात संविधान के लिए भी है। जब कांग्रेस ने अंग्रेजों से सत्ता अपने हाथ में ली, तो उनके द्वारा बनाई गई अधिकांश प्रणालियां उन्हें विरासत में मिली और इससे उन्हें फायदा हुआ। फिर 70 और 80 के दशक में समाजवादी लहर की सवारी करके सत्ता हासिल करने वाले नेता आए! भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे लागू शब्दावली के माध्यम से उन्हें लगातार लाभ हुआ। लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि भारत में सक्रिय राजनीतिक दलों में से केवल भाजपा की नींव ही सनातनी सभ्यता के मूल्यों पर टिकी हुई है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं है कि केवल भाजपा ही हमारे संविधान का भारतीयकरण करने के लिए नैतिक और राजनीतिक साहस जुटा सकती है और सरकार को इस पर विचार करने की भी आवश्यकता है!

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