न्यायपालिका सर्वोच्च है और यही सर्वोच्चता लोकतंत्र की संरक्षक है। इसी संरक्षण से सुरक्षा का भाव है और श्रेष्ठता के सपने के साकार होने की संभावना है। यही श्रेष्ठता के सूचकांक का भी सूचक है। पर जरा सोचिए क्या हो अगर इसी न्याय के श्रेष्ठता में मिलावट का विरोधाभासी तत्व मिश्रित हो जाए। आज भी जब कहीं किसी के साथ कोई अन्याय होता है तो वह न्यायपालिका पर अपने चट्टान सरीखे भरोसे का उद्घोष करते हुए कहता है, ”आई विल सी यू इन द कोर्ट।” यही भरोसा किसी भी द्रवित, दलित, कुंठित, पीड़ित और शोषित के मन में यह विश्वास भरता है कि न्यायालय का कवच उसे किसी भी अराजक व्यवस्था के खिलाफ विजय दिला सकता है। पर, हाल के दिनों में कुछ ऐसे फैसले आए हैं जिनका तुलनात्मक अध्ययन करने पर हमें न्याय का विरोधाभासी और पूर्वाग्रह ग्रसित पक्ष दिखता है।
हालांकि, कानूनों के आवर्तों में इसे डाल कर चीजों को सही ठहराया जा सकता है लेकिन मामले की गंभीरता को देखते हुए यह सभी पक्ष में बेमानी से लगते हैं। अभी हाल ही में न्यायालय ने दिल्ली दंगों के आरोपी और कांग्रेस की पूर्व जनप्रतिनिधि इशरत जहां को इस आधार पर बेल दे दिया कि “वह एक महिला है” और दूसरी ओर बलात्कार के झूठे मामले में फंसे विष्णु तिवारी ने निर्दोष होने के बावजूद 20 साल जेल में गुजार दिए, जिन्हें अब यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर 43 साल के उम्र में जेल से बाहर आया एक निर्दोष शख्स अपनी जिंदगी शुरू करें तो करें कैसे?
और पढ़ें: कैसे भारतीय न्यायपालिका बाल-हत्या करने वाली महिलाओं को क्षमा करती रहती है?
अगर हम कानून के आवर्तों में इसे देखें तो भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में न्यायाधीश को उम्र और स्थिति के आधार पर किसी को जमानत देने की शक्ति है लेकिन अफसोस, यही तीव्रता एक निर्दोष को जेल से बाहर निकालने में नहीं दिखी। जबकि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में इस बात के भी प्रावधान हैं और कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से इस प्रावधान का उल्लेख करते हुए सजा की समय सीमा को विशेष परिस्थिति में कम करना सरकार का उत्तरदायित्व बताया है।
आइए, जरा दोनों पक्षों की विवेचना करते हुए आपको यह दिखाते हैं कि भले ही न्याय सबके लिए समान है, भले ही न्याय सबके लिए सर्वोच्च है, किंतु फिर भी कैसे अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग लोगों के लिए यह अलग अलग हो जाता है। दरअसल, इस अंक में हम न्यायालय की सर्वोच्चता और शुचिता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहे हैं, बल्कि हम यह दर्शाने का प्रयास कर रहे हैं कि नियम और कानूनों के आवर्तों में बंधे हमारे न्यायाधीश कभी-कभी ऐसा न्याय करने के लिए बाध्य होते हैं जो एक समय न्याय नहीं लगता। इसकी शुरुआत हम इशरत जहां और उनकी अपराधों की तीव्रता से करेंगे। इशरत जहां कांग्रेस की एक जनप्रतिनिधि होने के साथ साथ संपन्न, समृद्ध और एक शक्तिशाली शख्सियत है। उन पर लगे आरोप को देखेंगे तो यह एक हास्यास्पद निर्णय प्रतीत होता है, चलिए समझते हैं…
अदालत ने माना दंगो में था इशरत जहां का रोल
दिल्ली की एक अदालत ने हाल ही में आरोपी इशरत जहां को एफआईआर 59/2020 में जमानत दे दी है, जिसमें दिल्ली दंगा मामले में एक बड़ी साजिश का आरोप लगाया गया है। हालांकि, न्यायाधीश ने स्वीकार किया कि दिल्ली दंगों के पीछे एक साजिश थी, जिसमें इशरत जहां ने एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। अभियोजक ने दिल्ली दंगों में इशरत जहां की भूमिका को भी विस्तार से बताया। अभियोजक ने कहा कि इशरत जहां ने आप नेता अमानतुल्ला खान द्वारा और खुरेजी में आलिया मदरसा में विरोध प्रदर्शन शुरू करने के संबंध में आयोजित एक बैठक में भाग लिया। उन्होंने खालिद सैफी के साथ खुरेजी में 24/7 विरोध स्थल के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 26 फरवरी को इशरत जहां ने खालिद सैफी के साथ मिलकर लोगों को पुलिस कर्मियों पर हमला करने के लिए उकसाया और इसी सिलसिले में एफआईआर 44/20 दर्ज की गई। वो हिंसा भड़काने के लिए जेसीसी और अन्य समूहों द्वारा रची गई साजिश का भी हिस्सा थी।
उन्होंने भारत सरकार के खिलाफ लोगों को भड़काने के लिए भड़काऊ भाषण दिए। उन्होंने विरोध स्थल के मुख्य आयोजक के रूप में शारजील इमाम, शिफा-उर-रहमान, मीरान हैदर, नदीम खान आदि को बुलाया। वह विरोध में इस्तेमाल होने वाले बेहिसाब और अवैध धन जुटाने में शामिल थी। दंगों का उद्देश्य एक इस्लामिक राज्य बनाना था। वो साजिश के उद्देश्य और प्रक्रिया से अवगत थी। वह मामले के अन्य सभी आरोपियों जैसे अमानतुल्ला खान, खालिद सैफी, तसलीम अहमद, नताशा नरवाल, सफूरा जरगर और अन्य से जुड़ी हुई थी। 1 दिसंबर 2019 से 26 फरवरी 2020 के बीच इशरत जहां और अमानतुल्लाह खान के बीच 1097 कॉल और मैसेज हुए। महादेव विजय कस्ते नाम के शख्स ने उनके खाते में 4 लाख रुपये जमा किए थे, जिसका इस्तेमाल हिंसा के लिए हुआ। हथियार भी बरामद हुआ, पर उन्हें जमानत मिल गई।
20 साल तक जेल की सजा काटता रहा बेगुनाह
वहीं, दूसरी ओर एक 23 साल के लड़के की दास्तान है जो अब न्यायालय की निष्क्रियता की वजह से 43 साल का हो चुका है। उनकी पूरी उम्र गुजर गई और मिला क्या एक बलात्कारी होने का दाग, जिसके साथ अब उस इंसान को जिया नहीं जा रहा। इस साल जनवरी में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्दोष घोषित किए जाने के बाद विष्णु बुधवार शाम आगरा सेंट्रल जेल से बाहर आए। 43 साल के हो चुके विष्णु तिवारी अब घर जाएंगे, जो यूपी के ललितपुर जिले का एक गांव है। ध्यान देने वाली बात है कि उन्हें को 16 सितंबर, 2000 को गिरफ्तार किया गया था और एससी/एसटी अधिनियम के तहत बलात्कार का मामला दर्ज किया गया। तीन साल बाद ललितपुर की एक अदालत ने उन्हें बलात्कार का दोषी ठहराया और 10 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। उन्हें आगे एससी/एसटी एक्ट के तहत दोषी ठहराया गया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
पर, जनवरी में विष्णु तिवारी को बरी कर दिया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा, “चिकित्सकीय साक्ष्य में जबरन संभोग की कुछ झलक दिखाई देनी चाहिए पर वो नहीं दिखी। आरोपी ने उसका मुंह दस मिनट तक बंद रखा था और उसे जमीन पर पीटा था फिर भी, एक पूर्ण विकसित महिला को कुछ चोटें आई होंगी।” अदालत ने कहा, “हमारी खोज में डॉक्टर को कोई शुक्राणु नहीं मिला। डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा कि जबरन संभोग के कोई लक्षण नहीं पाए गए। महिला पर कोई आंतरिक चोट नहीं थी। तथ्यात्मक आंकड़े यह भी दिखाते हैं कि परीक्षा-इन-चीफ में कई विरोधाभास हैं। अतः तथ्यों और सबूतों के रिकॉर्ड के मद्देनजर, हम आश्वस्त हैं कि आरोपी को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है। इसलिए फैसले और आदेश को उलट दिया जाता है। हम आरोपी को बरी करते है।”
आप स्वयं सोचिए, एक निर्दोष युवा की पूरी उम्र जेल में गुजर गई वहीं एक न्यायालय ने हद से अधिक सक्रियता दिखाते एक वीभत्स अपरिधि को सिर्फ इसलिए छोड़दिया क्योंकि वो एक महिला है। स्वयं विचार करिए!