12 मई, 1996 को एक अमेरिकी राजदूत ने 60 मिनट के एक खंड में इराक के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों का बचाव किया। पत्रकार लेस्ली स्टाल ने उनसे पूछा- “हमने सुना है कि आधे मिलियन बच्चे मारे गए हैं। मेरा मतलब है, हिरोशिमा में मरने वालों की तुलना में अधिक बच्चे हैं। क्या इराक में अमेरिका का उद्देश्य इतनी बड़ी कीमत के लायक है?” उस पर राजदूत ने उत्तर दिया, हमें लगता है कि कीमत इसके लायक है। यह मेडलीन अलब्राइट थी। मेडलीन अलब्राइट- वह महिला जो भारत के लिए किसी ग्रहण से कम नहीं थी। बिल क्लिंटन सरकार में वो अमेरिका की पहली महिला विदेश मंत्री बनी थी। वर्ष 1997 से 2001 तक उन्होंने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के अधीन शीर्ष राजनयिक के रूप में कार्य किया था। इसी बीच अब उनकी मृत्यु की खबर सामने आई है। किसी भी व्यक्ति को सच्ची श्रद्धांजलि एक ईमानदार चर्चा है। भारत के दृष्टिकोण से मेडलीन अलब्राइट के बारे में एक ईमानदार चर्चा और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि वो भारत की महाशक्ति की महत्वाकांक्षाओं की सबसे बड़ी दुश्मन थी। जानना चाहते हैं क्यों? चलिए समझते हैं।
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पोखरण परीक्षण और अमेरिकी प्रतिबंध
दरअसल,1998 भारत के लिए एक ऐतिहासिक वर्ष था। इसने भारत को एक परमाणु हथियार राष्ट्र के रूप में स्थापित किया और अपने दो दुश्मन पड़ोसियों- चीन और पाकिस्तान के सामने अपनी रक्षा और बचाव पक्ष को मजबूत किया। लेकिन, यह शक्ति हासिल करने के लिए भारत को सीधे संयुक्त राज्य अमेरिका का सामना करना पड़ा। बिल क्लिंटन प्रशासन ने तब भारत के खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाए थे। तब भारत को अमेरिकी और वैश्विक सहायता से वंचित कर दिया गया और वैश्विक वित्तीय संस्थानों द्वारा उधार लेने के लिए भारत को प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रतिबंध लगाने वाली महिला कोई और नहीं, बल्कि तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री मेडलीन अलब्राइट थी। उन्होंने तब भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों को “भविष्य के खिलाफ एक अपराध” के रूप में वर्णित किया था। वह एक ऐसा युग था जब अमेरिका में प्रतिबंधों के अत्यधिक उपयोग को अप्रभावी माना जा रहा था। हालांकि, अलब्राइट ने यह सुनिश्चित किया कि भारत का अर्थतंत्र घुटनों पर आ जाए और जल्द ही बिल क्लिंटन प्रशासन के अन्य अधिकारी भी उनके द्वारा सुझाए गए प्रतिबंध थोपने पर सहमत हो गए थे।
CTBT का ड्रामा
मेडलीन अलब्राइट ने भारत पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करने का भी पूरा प्रयास किया। यह किस्सा भी काफी मजेदार है। आपको बता दें कि अलब्राइट नई दिल्ली को CTBT पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करती रही, लेकिन अमेरिकी सीनेट ने खुद ही इसे 51-48 वोटों के संकीर्ण वोट से खारिज कर दिया था। तब उन्हें खुद को शर्मिंदगी से बचाने के लिए व्यावहारिक रूप से कहा की हम सीटीबीटी की पुष्टि नहीं करेंगे, लेकिन हम चाहते हैं कि भारत परमाणु परीक्षणों को प्रतिबंधित करने वाली संधि से बाध्य हो। पर, आज तक अमेरिका ने परीक्षण प्रतिबंध संधि की पुष्टि नहीं की है। हालांकि, अलब्राइट ने भारत को इसे अपनाने के लिए मजबूर करने की भरपूर कोशिश की थी।
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अलब्राइट का कश्मीर पर जनमत संग्रह का सपना
ध्यान देने वाली बात है कि मेडलीन अलब्राइट को कश्मीर मुद्दा सुलझाने का जुनून सवार था। वास्तव में वर्ष 1998 में भारत द्वारा पोखरण परीक्षण किए जाने के ठीक बाद, अलब्राइट ने स्पष्ट कर दिया था कि वो कश्मीर का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहती हैं। उन्होंने खुद कहा कि वो कश्मीर को वैश्विक एजेंडे में धकेलना चाहती है। अलब्राइट ने कहा, “मुझे लगता है कि इस पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान देने से मदद मिलेगी।” उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच कश्मीर सहित उनके विवादों पर द्विपक्षीय चर्चा बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे मूल कारणों से उलझते हैं।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि वर्ष 2003 में अलब्राइट ने सारी हदें पार कर दी थी। दरअसल, वर्ष 2001 में बुश प्रशासन के सत्ता में आने के बाद वो अमेरिकी प्रशासन से बाहर हो गई। उसके बाद किसी भी तरह, उन्होंने कश्मीर को दुनिया की सबसे खतरनाक और दुखद जगहों में से एक के रूप में वर्णित करने की कोशिश की। और फिर भारत की संप्रभुता से इनकार करने के एक संबोधन में, अलब्राइट ने यह भी कहा कि जनमत संग्रह कश्मीरी लोगों की इच्छाओं का न्याय करने का सबसे अच्छा तरीका था।
इस तरह अलब्राइट ने कई सालों तक कश्मीर पर पाकिस्तान के एजेंडे को आगे बढ़ाया। ऐसे में एक बात तो स्पष्ट है कि अगर उन्हें मौका मिलता, तो वो भारत को एक परमाणु संपन्न राष्ट्र नहीं बनने देती, और न ही वो भारत को कश्मीर पर अपनी सही संप्रभुता का दावा करने देती। लेकिन अलब्राइट अपने भारत विरोधी उद्देश्यों में विफल रही और अंततः अमेरिकी नेताओं को भारत के साथ बेहतर संबंध स्थापित करने पड़े, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नई दिल्ली का कद लगातार बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि, यह उस तथ्य को कमजोर नहीं करता है कि अलब्राइट लंबे समय तक भारत की दुश्मन नंबर-1 थी।
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