प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ सालो पहले ही ये संकेत दिया था की उनकी सरकार एक कानूनी ढांचा ला सकती है जिसके तहत डॉक्टरों को मरीजों को कम लागत वाली जेनेरिक दवाएं लिखनी होगी। जेनेरिक दवा एक ऐसी दवा है जो खुराक, ताकत, प्रशासन के मार्ग, गुणवत्ता, सुरक्षा, प्रदर्शन और इच्छित उपयोग में ब्रांड नाम के उत्पाद के बराबर है। जेनेरिक दवाएं बाजार में पहुंचने के बाद ब्रांड नाम की दवाओं की तुलना में काफी कम खर्चीली होती हैं। हालांकि, ज्यादातर मामलों में, जेनेरिक दवाएं बाजार में तभी उपलब्ध होती हैं, जब किसी दवा के मूल डेवलपर को दी गई पेटेंट सुरक्षा समाप्त हो जाती है।
हमेशा से ही डॉक्टर दवाइयों के नाम इस तरह लिखते हैं कि गरीब लोगों को लिखावट समझ में नहीं आती और उन्हें वह दवा निजी दुकानों से ऊंचे दामों पर खरीदनी पड़ती है। जिसके वजह से तमाम लोगो की मृत्यु दवा के उपलब्धता न होने के कारण हो जाती है ।
इसी कडी में सरकार ने इस चीज पर जोर दिया है की सबसे पहले, भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002, जो कहता है कि प्रत्येक चिकित्सक को, जहां तक संभव हो, जेनेरिक नामों के साथ दवाएं लिखनी चाहिए और वह यह सुनिश्चित करेगा कि एक तर्कसंगत नुस्खा और उपयोग है दवाओं, यह बताना चाहिए कि यह अब अनिवार्य हो गया है। दूसरा, औषधि और प्रसाधन सामग्री नियमों में बदलाव किया जाना चाहिए ताकि केमिस्ट दवाओं को प्रतिस्थापित कर सकें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सभी नुस्खे के खिलाफ जेनेरिक फॉर्मूलेशन का वितरण किया जाता है।
अब आज के परिपेक्ष में देखे तो जब से कोरोना महामारी का प्रकोप जैसे ही बढ़ा बाजार में दवाइयों की मांग अचानक से बढ़ी, तब इसका मुद्दा एक बार फिर चर्चा आया, कोविद १९ की वैक्सीन बाजार में जैसे आई, तमाम कंपनिया दूसरे देशों में, अपने द्वारा बनाई गई वैक्सीन के लिए लॉबिंग करना शुरू कर दी। बड़ी बड़ी कंपनिया जो पश्चिमी देशों में है , वो अविकसित देशों में अपना दवाई अथवा वैक्सीन मनमाने दामों पर बेचती आई है , इसमें भारत भी शामिल रहा है। मगर इस बार भारत ने मोदी सरकार के नेतृत्व में विदेशी कंपनियों के तमाम प्रयासों के बाद भी उनकी वैक्सीन को नहीं खरीदा और भारत तथा यूके के सहयोग से बनी ऑक्सफोर्ड एस्ट्रेजेनिका वैक्सीन तथा पूरी तरह भारत में बनी कोवैक्सीन को टीकाकरण की मंजूरी देकर विदेशी वैक्सीन को दरकिनार कर दिया।
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इस कदम के कारण कई बड़ी फार्मास्यूटिकल कंपनिया भारत के खिलाफ दुष्प्रचार भी किया , तमाम तथाकथित डॉक्टर , एक्टर्स अथवा तथाकथित इंटेलेक्चुअल लोगो से भारत के खिलाफ माहौल बनाने का प्रयास किया , तमाम तरह के भ्रामक अफवाहों को फैलाया जैसे की भारत की इतनी बड़ी आबादी को बिना विदेशी वैक्सीन खरीदे पूरा नही किया जा सकता । इस रफ्तार से भारत अपनी आबादी को दस साल में भी टीकाकरण संपन्न नही करा सकेगा , मगर भारत सरकार और स्वास्थ्य मंत्री के प्रयासों से भारत ने देश के ही बड़े बड़े फार्मा कंपनी जैसे की भारत बायोटेक , सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया तथा तमाम बड़ी कंपनियों को वित्तीय सहायता मुहैया करा के प्रोडक्शन को कई गुना बढ़ाया जिसका नतीजा ये है की भारत आज डेढ़ साल से भी कम समय में १७५ करोड़ से अधिक डोज लगाने में सफलता हासिल की। आंकड़े की माने तो बड़ी बड़ी फार्मास्यूटिकल कंपनिया अपनी सालाना कमाई का 25%हिस्सा बाजार में महंगी दवाई को खरीदने तथा डॉक्टर्स को महंगी दवाई लिखने को प्रेरित करने के लिए खर्च करती है ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए निजी फार्मेसियों की डी-ब्रांडिंग करने से पहले, सरकार ने आदर्श रूप से जेनेरिक दवाओं को बढ़ावा देकर इस का अभ्यास को शुरू कर दिया है , हालांकि सरकारी अस्पतालों और फार्मेसियों, जिनमें ‘प्रधान मंत्री भारतीय जनऔषधि केंद्र’ (पीएमबीजेके) योजना के तहत स्थापित किए जा रहे हैं।
अब यहां चुनौती यह है कि ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयू ऑफ इंडिया के आंकड़ों के मुताबिक देश के 26 राज्यों में 1008 जन औषधि केंद्र हैं। जबकि केरल में सबसे ज्यादा 173 हैं, मिजोरम में सबसे कम तीन हैं। 137 स्टोर के साथ यूपी सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक है। जिसे हर दिन बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है।
जनऔषधि स्टोर आज 600 से अधिक दवाओं की पेशकश करते हैं। यह भारत में बेची जा रही 4000 विषम संयोजनों और एकल संघटक दवाओं में से केवल छठा हिस्सा है। इस प्रकार जनऔषधि स्टोर के उत्पाद को बढ़ाने की आवश्यकता है। ताकि भविष्य में किसी भी प्रकार से स्वास्थ्य संबंधित दवाई में बड़ी बड़ी कंपनिया अपना मुनाफा न ढूंढे और जैसा की प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का सपना है की महंगी दवाई जो आज भी गरीब लोगो के पहुंच से दूर हो , वो सब के पास पहुंचे सके, उसे पूरा किया जा सके।
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