मुहम्मद बिन तुगलक – वह राहुल गांधी जिसे शासन का स्वाद मिला

राहुल गांधी : आधुनिक युग का मुहम्मद बिन तुगलक!

मुहम्मद बिन तुगलक

सन् 1351, स्थान थट्टा, सिंध [अखंड भारत] –

एक विद्रोह को कुचलने हेतु एक ‘बादशाह’ आए थे। परंतु वे अब केवल नाम के ‘बादशाह’ थे। पूरे देश में अब वे हास्य के पात्र बन चुके थे, अनेकों विद्रोहों को कुचलने में वे असफल रहे थे, और उन्ही के जीते जी जो तुर्की साम्राज्य कभी दक्षिण भारत के सबसे दक्षिणी छोर तक पहुँच रहा था, वह धीरे धीरे उत्तर भारत तक सिमटने लगा। यह कथा सुनी सुनी सी नहीं लगती है ? कैसे नहीं लगेगी, क्योंकि ये बादशाह ‘मुहम्मद बिन तुगलक’ थे, जो ऐसे राहुल गांधी थे जिन्हे वास्तव में सत्ता का स्वाद मिला था, परंतु इसके बाद भी वे इसका लाभ नहीं उठा पाए, और आज भी इनका नाम सम्मान से नहीं लिया जाता।

तुगलक और राहुल के शुरुआती जीवन में समानतायें  

अब आप भी सोच रहे होंगे – मुहम्मद बिन तुगलक और राहुल गांधी? ये कैसी तुलना हुई? ठहरिए, हमारे पास पर्याप्त साक्ष्य भी है और इतिहास में ऐसे अकाट्य प्रमाण है, जो ये सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि कैसे मुहम्मद बिन तुग़लक मध्यकालीन ‘राहुल गांधी’ थे, जिन्होंने इतिहास को अपने तरीके से सदैव के लिए परिवर्तित कर दिया।सर्वप्रथम अगर जन्म पर ध्यान तो मुहम्मद बिन तुगलक और राहुल गांधी में काफी समानताएँ हैं। दोनों के माता पिता अलग अलग परिवेश से आते थे। जूना खान मलिक उर्फ मुहम्मद बिन तुगलक के पिता गाजी मलिक उर्फ सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक तुर्क-अफ़गान मूल के लड़ाके थे, जिनकी पत्नी एक हिन्दू दासी थी। ऐसे ही राहुल गांधी के पिता भारतीय, तो माँ इतालवी हैं ।

नीतियों में समानता 

यदि नीतियों की बात करें तो  मुहम्मद बिन तुगलक को वामपंथी इतिहासकार ये कहते हुए महिमामंडित करते हैं कि वे समय से बहुत आगे की सोचते थे, परंतु लोग उन्हे समझ ही नहीं पाए। लेकिन अगर उनकी नीतियों पर एक दृष्टि डाली जाए तो वे दूरदर्शी कम, अपरिपक्व अधिक प्रतीत होते थे। जिस समय विश्व में चांदी का अभाव था, तो उसकी कमी पूरा करने के लिए इन्होंने तांबे और पीतल के सिक्के लागू कराए, परंतु इन्होंने जिस तरीके से लागू कराए, उससे लाभ तो कुछ हुआ नहीं, उलटे साम्राज्य और राष्ट्र की अर्थव्यवस्था गोते खाने लगी।

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अब ठीक इसी भांति राहुल गांधी के महान विचारों से कौन परिचित नहीं है। अगर इनके लेजेंडरी ‘आलू से सोना’ यंत्र को अलग रखें, तो इनके समाजवादी विचार भी इतने अपरिपक्व हैं कि स्वयं समाजवादी पार्टी जैसे घोर समाजवादी इनसे अधिक सयाने लगे। कल्पना कीजिए, यदि कांग्रेस 2019 में सत्ता में आई होती, और 6000 रुपये प्रति माह के अनुसार ‘न्याय योजना’ लागू होती, तो देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल होता?

दोनों में अल्पदृष्टि की प्रधानता

केवल अपरिपक्वता में ही मुहम्मद बिन तुगलक और राहुल गांधी समान नहीं। अज्ञानता और सत्ता में बने रहने के लिए बर्बरता में भी दोनों एक समान रहे हैं। मुहम्मद बिन तुगलक जब कराचिल यानि चीनी अभियान पर निकले थे, तो उनका उद्देश्य था चीन पर विजय प्राप्त करना था। लेकिन वे सोचते थे कि हिमालय के पर्वत अरावली के पहाड़ों जैसे होंगे, यानि भूगोल से महोदय का दूर दूर तक कोई नाता नहीं। रही सही कसर कांगड़ा के कटोच राजपूतों ने पूरी कर दी। लगभग एक लाख की सेना के साथ आए तुगलक कुछ चंद हजार सैनिक लेकर किसी तरह निकल पाए।

ठीक इसी प्रकार राजनीतिक रूप से यदि पूर्वोत्तर भारत और उत्तर प्रदेश, गुजरात इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण राज्यों से किसी ने कांग्रेस का सफाया कराया है, तो वे निस्संदेह राहुल गांधी ही है, क्योंकि भूगोल तो बहुत दूर की बात रही, इन्हे न इतिहास का कोई ज्ञान है, और ही परिस्थितियों का। यदि वे अकेले भी लड़ते तो शायद 20 – 30 सीटें ले भी आते, और विमुद्रीकरण यानि Demonetization के पश्चात स्थिति भी अनुकूल थी, परंतु 2017 में अखिलेश यादव की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर इन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। अखिलेश यादव तो हारे ही, साथ में कांग्रेस भी मात्र 7 सीटें ही जुटा पाए। अभी तो पूर्वोत्तर में काँग्रेस के सर्वनाश पर हमने चर्चा भी नहीं प्रारंभ की है।

सत्ता की लोलुपता 

लेकिन जैसे सत्ता में बने के लिए राहुल गांधी किसी भी हद तक जाने को तैयार हो सकते हैं वैसे ही मुहम्मद बिन तुगलक सत्ता में बने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, और दिल्ली से देवगिरि तक राजधानी स्थानांतरित कराने का उदाहरण से बड़ा प्रत्यक्ष प्रमाण क्या हो सकता है।असल में तुगलक को प्रतीत हुआ कि उनकी राजधानी दिल्ली आक्रमण के लिए अधिक अनुकूल है। इसीलिए उन्होंने देवगिरि में अपनी राजधानी बसाने की सोची, जिसका नाम बदल दौलताबाद कर दिया गया था। लेकिन उन्होंने केवल आवश्यक वस्तुओं और विभागों को स्थानांतरित कराने की नहीं सोची। वे चाहते थे कि समूचा नगर, यानि जनमानस सहित दौलताबाद स्थानांतरित हो।

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कई लोगों ने इस बात का जमकर विरोध किया, तो तुगलक की सेना ने उन्हे जबरदस्ती तलवार के दम पर स्थानांतरित करवाया। कई लोगों को अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ा। प्रत्यक्ष रूप से न सही, पर ऐसा ही कुछ कांग्रेस हाईकमान में भी देखने को मिलता है, जहां राहुल गांधी के आगे किसी की नहीं चलती। विश्वास न हो तो पूर्व कांग्रेसी नेताओं हेमंता बिस्वा सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया से पूछ लीजिए।

लेकिन इन सबका परिणाम भी विनाशकारी सिद्ध हुआ। जब तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह हुआ, तो इस साम्राज्य की अकड़ को सर्वप्रथम धूल में मिलाने का कार्य पश्चिमी भारत ने किया, जब एकत्रित राजपूताना के वीर योद्धा, मेवाड़ राणा हम्मीर सिंह  ने तुगलक को सिंगोली के युद्ध में पटक पटक के धोया। कुछ ही समय बाद दक्कन से विद्रोह की एक भीषण ज्वाला उठी, जिसमें एक बार फिर तुर्क साम्राज्य का घमंड भस्म हुआ, और विजयी हुए हरिहर एवं बुक्का राय, जिन्होंने विराट विजयनगर साम्राज्य की नींव रखी।

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आज जब राहुल गांधी का उपहास उड़ाया जाता है, तो निस्संदेह ये उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता का प्रमाण है। हालांकि उनका व्यक्तित्व तुगलक समान है, और ये कहना गलत नहीं होगा कि वे ऐसे मुहम्मद बिन तुगलक, जिन्हे भाग्यवश कभी सत्ता नहीं मिली।

 

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