हिंदी भाषा देश की गौरव है, इसके अतिरिक्त भारत और भारतीयता की परिकल्पना बिल्कुल भी नहीं की जा सकती। अंग्रेज़ों ने हिंदी को जितना गर्त में डालकर जाना था वो डालकर चले गए थे, यही कारण है जो आज हिंदी को राष्ट्र भाषा बन पाना तो दूर, राजभाषा होने के बावजूद भी उसकी स्वीकार्यता समाज के एक वर्ग में लेश मात्र भी नहीं है। इसी बीच जब केंद्र सरकार हिंदी के प्रचार-प्रसार के संदर्भ में नया परिवर्तन लाई तो इसका विरोध करने के लिए वही वर्ग पुनः फट पड़ा जिसे हिंदी और हिंदी भाषी लोगों से सदा से ही घृणा रही है।
अमित शाह ने गुरुवार को कहा था कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए न कि स्थानीय भाषाओं के लिए। संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक की अध्यक्षता करते हुए शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा है और इससे निश्चित रूप से हिंदी का महत्व बढ़ेगा। बस इसी बात पर विपक्षी दलों का पारा चढ़ गया और विषय को भटकाने और जनता को आधी अधूरी बात प्रसारित करने का ढोंग शुरू हो गया। ऐसे में मोदी सरकार के 8 साल बाद अंततः पूरा विपक्ष एक मुद्दे पर एकजुट हुआ और वह मुद्दा है “हिंदी से नफरत।”
दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प को साझा करते हुए हिंदी को किस प्रकार अंग्रेजी के प्रथम विकल्प के तौर वरीयता मिले इसपर सबका ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने संसदीय राजभाषा समिति के सदस्यों को बताया कि “मंत्रिमंडल का 70 फीसदी एजेंडा अब हिंदी में तैयार किया जाता है। अब वक्त आ गया है कि राजभाषा हिंदी को देश की एकता का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया जाए। हिंदी की स्वीकार्यता स्थानीय भाषाओं में नहीं, बल्कि अंग्रेजी के विकल्प के रूप में होनी चाहिए। जब तक अन्य भाषाओं से शब्दों को लेकर हिंदी को सर्वग्राही नहीं बनाया जाएगा, तब तक इसका प्रचार प्रसार नहीं हो पाएगा।” बस अमित शाह ने यह बोला नहीं कि देश के तथाकथित विपक्षी दल जिनका उद्देश्य ही हमेशा से हिंदी को चिन्दी बताना और साबित करना रहा है उनके कान खड़े हो गए और एक के बाद एक विपक्षी नेता ने इस प्रयास को दुत्कारना प्रारंभ कर दिया।
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सिद्धारमैया ने उठाए सवाल
विरोधी स्वर उठाने में सबसे पहला नाम है, कर्नाटक में विपक्ष के नेता सिद्धारमैया का, जिन्होंने शुक्रवार को अमित शाह की हर एक बात की आलोचना की। यह कहते हुए कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं है, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सिद्धारमैया ने शुक्रवार को सत्तारूढ़ भाजपा पर गैर-हिंदी भाषी राज्यों के खिलाफ “सांस्कृतिक आतंकवाद” के अपने एजेंडे को उजागर करने की कोशिश करने का आरोप लगाया। सिद्धारमैया ने कहा, “एक कन्नड़ के रूप में, मैं गृहमंत्री अमित शाह की आधिकारिक भाषा और संचार के माध्यम पर टिप्पणी के लिए कड़ी निंदा करता हूं। हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा नहीं है और हम इसे कभी नहीं होने देंगे।” भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जानता पर हिन्दी के प्रति यह हीन भावना सिद्धारमैया जैसे नेताओं को न ही विपक्ष का चेहरा बनने देगा और न ही ऐसी सोच वालों का अधिकार है कि वो देश के उन सर्वोच्च पदों पर बैठें जहाँ भारत को उसकी हिंदी भाषी होने के कारण ही ख्याति मिली है।
Hindi is neither a national language nor a link language. In federal system, one can't impose any language forcefully.We don't have any problem learning other languages: Former Karnataka CM&LoP Siddaramaiah on Union HM's remark 'Hindi should be accepted as alternative to English' pic.twitter.com/kOGwukNQ0h
— ANI (@ANI) April 8, 2022
ममता ने व्यक्त किया रोष
अगला नंबर है खेला होबे वाली दीदी का, जिनके मुंह से बंगाली ढंग से नहीं निकलती और हिंदी पर व्याख्यान करने चली हैं। पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने शुक्रवार को कहा कि गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाएगा। यह बताते हुए कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं है, टीएमसी ने कहा कि “एक राष्ट्र, एक भाषा और एक धर्म” का भाजपा सरकार का एजेंडा अधूरा रहेगा। “अगर अमित शाह और भाजपा गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने की कोशिश करते हैं, तो इसका विरोध किया जाएगा। इस देश के लोग, जहां इतनी विविधता है, ऐसी बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे।” भाषाई बाध्यता की दुहाई देने वाली यही ममता और उनकी टीएमसी कितनी जलेबी कीतरह सीधी हैं सारा देश जानता है।
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स्टालिन ने फिर निकाली कुंठा
अगली कड़ी में, एक और मुख्यमंत्री ही हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक अध्यक्ष एम.के. स्टालिन ने बीते शुक्रवार को कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार भारत की बहुलवादी पहचान को नष्ट करने की दिशा में लगातार काम कर रही है और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह बयान कि “हिंदी राज्यों के बीच संचार की भाषा होनी चाहिए” भारत की एकता को नष्ट करने का एक प्रयास था। स्टालिन ने कहा कि, “क्या श्री अमित शाह मानते हैं कि अकेले हिंदी भाषी राज्य पर्याप्त हैं और भारतीय राज्यों की आवश्यकता नहीं है? देश की एकता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार एक भाषा को माध्यम बनाना चाहती है तो इससे कभी एकता नहीं आ पायेगी। आप भी वही गलती दोहरा रहे हैं लेकिन आप सफल नहीं होंगे।” ऐसी बातों को स्टालिन पहले भी कई बार दोहरा चुके हैं और तो और हिंदी के घोर आलोचक स्टालिन के परिवेश में ही हिंदी विरोध रहा है।
कांग्रेस और हिंदी विरोध
अब सभी बोलें और वयोवृद्ध कांग्रेस पार्टी चुप रह जाए ऐसा तो कतई नहीं हो सकता। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा कि गृह मंत्री ने हिंदी के बारे में उपदेश देने की कोशिश की है, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा, “गृह मंत्री ने हमें हिंदी के बारे में उपदेश देने की कोशिश की है। मैंने पहले ही हिंदी में जवाब दिया है। मैं हिंदी का बहुत बड़ा समर्थक हूं, लेकिन थोपने का नहीं, भड़काऊ राजनीति का नहीं, विभाजनकारी राजनीति का नहीं।” सिंघवी जी को कौन समझाए कि हिंदी के बारे में उपदेश देने वाले आप जिस पार्टी के प्रवक्ता हैं उसके चश्मोचिराग और इकलौते प्रिंस राहुल गांधी को हिंदी शब्दों का उच्चारण करना तो ठीक ढंग से आता नहीं है, ऐसे में खिसियानी बिल्ली की तरह उपदेश कौन दे रहा है यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो चुका है।
आपने तो पुनर्जन्म लिखा है, राहुल जी तो कुछ और बोल रहे हैं 😀
— अनंत विजय/ Anant Vijay (@anantvijay) April 9, 2022
इन सभी बयानों में एक ह समानता रही- मोदी और हिंदी विरोध। ऐसे में 8 साल के लंबे समय के बाद अंततः कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल आज एक छत के नीचे आ ही गए हैं। आखिरकार एक मुद्दे पर विपक्ष एकजुट हुआ, जो है हिंदी से नफरत। हालांकि, विपक्षी दलों का यह कृत्य शर्मनाक है और इसके लिए उन्हें चुल्लू भर पानी तलाश लेनी चाहिए।
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